गुम हुई ममता (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त' | Nov 15, 2025

अरे साहब! यह जो नई पीढ़ी का 'फिलॉसफी' है न, 'जियो और जीने दो', यह बड़ा खतरनाक हथियार है। मालती जी ने जब से यह नारा पकड़ा, तब से उनके और बेटे दीपक के बीच की दूरी, मुंबई-दिल्ली एक्सप्रेसवे से भी तेज़ हो गई। बेटे ने शहर के दूसरे कोने में जब अलग आशियाना लिया, तो मालती ने खुद को समझा लिया—"दीपक आत्मनिर्भर है, और मैं अब 'अति-आधुनिक माँ' हूँ।" अति-आधुनिक माँ वह होती है, जो बेटे की ख़ुशी के नाम पर अपनी अकेली साँसों को गिनती है, और उसे 'आज़ादी' का नाम देती है। त्योहारों पर दीपक आता था, तो मालती जी ऐसा दिखाती थीं, जैसे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, पर रसोई में छिपकर आँसू पोंछती थीं। उन्हें मालूम था, अब उनकी 'राय' का मूल्य, पुरानी रद्दी से भी कम है, क्योंकि वह 'अनचाही सलाह' है। सलाह अनचाही नहीं होती, बल्कि राय देने वाला व्यक्ति जब उपेक्षित हो जाता है, तो उसकी बात 'अनचाही' हो जाती है। मालती की आँखों की नमी को दीपक ने कभी नहीं देखा, क्योंकि वह बस 'चाय की चुस्कियाँ' लेने आता था। और फिर एक दिन जब वह मुस्कुराते हुए बोला—"माँ, आज एक राय चाहिए।" मालती की आँखें भर आईं। यह 'राय' नहीं थी, यह वर्षों से सूखी पड़ी ममता की ज़मीन पर अचानक बरसा हुआ पहला बूँद था। वह हड़बड़ा गईं। बेटा राय नहीं माँग रहा था, वह तो अपनी सुविधा के लिए माँ की ममता का 'प्रयोग' करने आया था। और माँ को लगा, अहा! आज मेरी उपयोगिता सिद्ध हो गई!


दीपक ने जब सोने की बाली की कहानी सुनाई, तो मालती के मन में टीस उठी। बेटा चार महीने पहले सड़क पर सोना उठाता है, और माँ को बताता है, जब वह सोने को बेचकर नक़दी में बदल चुका है! यह कैसा भरोसा है, जहाँ माँ को जीवन की बड़ी घटनाओं में नहीं, बल्कि केवल 'पाप-बोध' की सफ़ाई में याद किया जाता है! दीपक ने कहा—"माँ, किसी की गुम हो गई होगी, बेचारी परेशान होती होगी।" हाँ, बेटा! तेरी माँ की तरह! तेरी माँ की 'ममता' भी तो गुम हो गई है, और वह भी यहाँ कोने में बैठकर परेशान होती होगी। पर तुझे तो सिर्फ़ उस अनजान औरत का दुःख याद आया, जिसकी बाली खोई, तेरी माँ का दुःख क्यों नहीं याद आया, जिसने अपना बेटा खो दिया? 'सोना मिलना अशुभ होता है', यह कैसी वाहियात नैतिकता है, जिसमें वस्तु को अशुभ बताकर, उस पर किए गए पाप को छोटा कर दिया जाता है! असली अशुभ तो वह मानसिकता है, जिसने चार महीने तक उस सोने को छुपाए रखा, मंदिर में रखा (ताकि भगवान भी इस पाप के साक्षी बनें), और फिर चुपचाप बेच दिया। 2400 रुपये मंदिर में रखे हैं! यह क्या है? यह लांच-पूंछ है, बेटा! नक़दी को छूने से डर लग रहा है, पर नक़दी से हाथ धोना भी नहीं चाहता। पत्नी के सामने इसलिए नहीं पूछा, क्योंकि वह व्यावहारिक है, वह तुरंत उन पैसों से मिक्सर या इंडक्शन ले आती। और दीपक को उन पैसों को खर्चने से डर लग रहा था, क्योंकि उसे मालूम था, इस पर उस अनजान औरत के आँसू चिपके हैं। इसलिए आया अपनी बूढ़ी माँ के पास, ताकि माँ अपनी अखंड ममता से उन आँसुओं को धो दे।

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मालती ने जब कहा—"बेटा, जिस धन में किसी का दुःख जुड़ा हो, वो अपने पास नहीं रखना चाहिए।" यह केवल सोना बेचने वाले बेटे के लिए सलाह नहीं थी, यह एक माँ की अपनी पीड़ा थी, जो उस बेटे से कह रही थी, "बेटा, मेरे जीवन में भी तो मेरा दुःख जुड़ा है, अब मैं यह दुःख कहाँ रखूँ?" माँ की आँखों में नमी थी, क्योंकि वह जानती थी कि दीपक उन पैसों से मुक्ति पाना चाहता है, और माँ की 'सलाह' उसके लिए एक नैतिक छूट-पत्र है। उसने कहा, "तुम चाहो तो वो रुपये किसी जरूरतमंद को दे दो... या कन्या पूजन में छोटी-छोटी कन्याओं को। उनका आशीर्वाद सबसे बड़ा शुभ होता है।" यह दान नहीं था, यह नैतिक रिश्वत थी, जिसके बदले दीपक अपने चार महीने के पाप-बोध से मुक्ति पा रहा था। एक माँ, जो स्वयं उपेक्षा का दंश झेल रही थी, वह अपने बेटे के पाप को मिटाने के लिए उसे 'पुण्य' का रास्ता दिखा रही थी। गरीबों को दान दो! क्योंकि गरीब हमारे समाज का वह 'डस्टबिन' हैं, जहाँ हम अपनी सारी गंदगी फेंककर खुद को 'साफ़' महसूस करते हैं। कन्या पूजन! वाह! 2400 रुपये का पाप, छोटी-छोटी बच्चियों की हँसी में घुल-मिलकर 'शुभ' हो जाएगा। मालती को मालूम था कि बेटा दान करने के बाद छाती ठोककर कहेगा, "देखो, मैंने अनजाने में मिले अशुभ धन से भी कितना बड़ा पुण्य कमाया!"


दीपक सिर हिलाते हुए बोला—"सही कहा माँ आपने… अब समझ आया, शुभता वस्तु में नहीं, भावना में होती है।" इस लाइन पर रोना आता है, क्योंकि यह सबसे बड़ा झूठ है! यदि शुभता भावना में होती, तो वह सोना मिलते ही वापस कर दिया होता। भावना तो तब भी थी, जब वह सोना बेचकर आया था, पर तब 'शुभता' नहीं दिखी। 'शुभता' तो तब दिखी, जब माँ ने उसे दान का आसान रास्ता दिखाया! माँ की राय ने उसकी कायरता और लोभ पर पवित्रता का आवरण डाल दिया। मालती की आँखों में ममता और सुकून था। सुकून इस बात का नहीं कि दीपक का पाप धुल गया, सुकून इस बात का था कि बरसों की उपेक्षा के बाद, बेटे ने आज उसे अपनी समस्या के योग्य समझा। माँ को 'राय' माँगकर मिली, और माँ को लगा कि उसकी ज़िंदगी मूल्यवान हो गई। अरे मूर्ख माँ! तेरी राय नहीं, तेरी नैतिक स्वीकृति मूल्यवान थी। बेटा चला गया, और मालती जी बैठी रह गईं। उनकी आँखों में पानी था, और वे सोच रही थीं—"काश! मेरा बेटा भी कभी मुझसे पूछता कि, 'माँ, आपकी गुम हुई ममता को वापस पाने के लिए मैं क्या करूँ?'" पर यह कोई नहीं पूछता। माँ की 'राय' का मोल केवल पाप-बोध के निवारण तक ही सीमित रहता है। और माँ रो पड़ती है—क्योंकि यही उसके जीवन का अंतिम 'मूल्य' है।


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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