By नीरज कुमार दुबे | Dec 10, 2025
हिंदू-बहुल भारत में आखिर यह स्थिति क्यों पैदा हो गई है कि किसी हिंदू को अपने ही प्राचीन धर्मस्थल पर दीपक जलाने या पूजा करने के लिए अदालत से अनुमति लेनी पड़े? यह स्थिति आखिर क्यों पैदा हो गयी है कि न्यायालय पूजा की अनुमति दे दे तो सरकार उस अनुमति के क्रियान्वयन को ही रोक दे? यह स्थिति क्यों बन गयी है कि अदालत अनुमति दे दे तो कुछ राजनीतिक दल उस न्यायाधीश को ही पद से हटाने की मांग करने लगें जिसने हिंदुओं को अपने धर्म स्थल पर पूजा करने की अनुमति दी? क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वाभाविक दृश्य है? सवाल उठता है कि तुष्टिकरण की राजनीति की आड़ में हिंदू आस्था को बार-बार क्यों चोट पहुँचायी जाती है? क्या बहुसंख्यक धर्म की परंपराएँ केवल इसलिए संदेह के घेरे में हैं क्योंकि कुछ राजनीतिक दल अपने वोट बैंक की राजनीति को धर्म और इतिहास से ऊपर रख चुके हैं? और क्या अब न्यायपालिका तक को इस आधार पर निशाना बनाया जाएगा कि उसका निर्णय किसी समुदाय को राजनीतिक रूप से असुविधाजनक लगा?
इन मूलभूत प्रश्नों के बीच तिरुप्परनकुंद्रम का दीपथूण विवाद केवल एक धार्मिक अनुष्ठान का मामला नहीं रह गया है; यह प्रशासनिक निष्पक्षता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हो रही राजनीति की वास्तविकता का आईना बन चुका है। हम आपको बता दें कि मदुरै के तिरुप्परनकुंद्रम में अरुलमिघु सुब्रमण्य स्वामी मंदिर और उससे सटे ‘दीपथूण’ (पत्थर के दीप-स्तंभ) पर दीप प्रज्ज्वलन को लेकर उठा विवाद लगातार कानूनी और राजनीतिक टकराव का रूप लेता जा रहा है। मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ द्वारा ‘दीपथूण’ पर दीप जलाने की अनुमति देने के बाद राज्य सरकार ने न केवल इस आदेश को चुनौती दी बल्कि जिला प्रशासन ने भी पर्वत की तलहटी पर ही श्रद्धालुओं को रोक दिया। इस घटना ने न्यायपालिका और राज्य सरकार के बीच तनाव को सार्वजनिक रूप से उद्घाटित कर दिया।
हम आपको बता दें कि 1 दिसंबर को न्यायमूर्ति जीआर स्वामीनाथन ने हिंदू तमिलर कच्ची के संस्थापक राम रविकुमार की याचिका पर आदेश देते हुए भक्तों को तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी पर स्थित दीपथूण पर दीप जलाने की अनुमति दी थी। लेकिन 3 दिसंबर के कार्तिगई दीपम उत्सव के दिन प्रशासन ने उन्हें रोक दिया जिसके बाद रविकुमार ने अवमानना याचिका दायर की। उसी दिन न्यायमूर्ति स्वामीनाथन ने दस भक्तों को दीपथूण तक जाने और वहाँ दीप प्रज्ज्वलित करने की अनुमति दी तथा उनकी सुरक्षा के लिए सीआईएसएफ कवर प्रदान करने का निर्देश दिया। इसके बावजूद पुलिस ने समूह को रोक दिया और राज्य सरकार ने अवमानना कार्यवाही से बचने के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
हम आपको बता दें कि इस मामले की जड़ें लगभग सौ वर्ष पुरानी हैं। तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी, जो भगवान मुरुगन के छह प्रमुख पवित्र स्थलों (अरुपडई वीड़कु) में से एक है, वहां पर स्थित मंदिर और एक दरगाह के बीच 1920 से ही स्वामित्व और धार्मिक अधिकारों को लेकर विवाद रहा है। उस समय सिविल कोर्ट और बाद में प्रिवी काउंसिल ने पहाड़ी को मंदिर सम्पत्ति घोषित किया था। किंतु दीप प्रज्ज्वलन की परंपरा को लेकर न्यायालय ने 1996 में यह कहा था कि पारंपरिक स्थान मंदिर परिसर का उचिपिल्लैयार कोविल मंडपम है; हालांकि भविष्य में किसी वैकल्पिक स्थान पर दीप प्रज्ज्वलन की अनुमति HR&CE विभाग द्वारा दी जा सकती है, बशर्ते वह दरगाह से दूर हो।
इसके बाद भी दीपथूण को पारंपरिक स्थल बताकर कई याचिकाएँ दायर हुईं, जिन पर 2014 और 2017 में उच्च न्यायालय ने यह दोहराया था कि मंदिर प्रबंधन ही धार्मिक परंपराओं और स्थलों का निर्धारण करेगा। लेकिन इस वर्ष पुनः इस विवाद ने जोर पकड़ा और राजनीतिक रंग ले लिया। राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की खंडपीठ में अपील दायर कर दी है। वहीं 5 दिसंबर को खंडपीठ ने मंदिर प्रबंधन का पक्ष रखते हुए यह चेतावनी दी कि न्यायपालिका का अपमान करने वाली टिप्पणियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसके बाद 9 दिसंबर को अदालत ने तमिलनाडु के मुख्य सचिव और एडीजीपी (कानून-व्यवस्था) को 17 दिसंबर को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थित होने का आदेश दिया, क्योंकि प्रशासन ने न्यायालय के पूर्व आदेशों का पालन नहीं किया।
दूसरी ओर, यह विवाद इसी बीच संसद तक पहुँच गया है। कांग्रेस, डीएमके, समाजवादी पार्टी, एनसीपी (एसपी) और AIMIM से संबद्ध 107 विपक्षी सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति स्वामीनाथन को हटाने का प्रस्ताव सौंपा। आरोप लगाया गया कि न्यायाधीश ने एक विशेष राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित होकर निर्णय दिए और निष्पक्षता व धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्नचिह्न लगा है। देखा जाये तो विपक्ष का यह कदम अपने आप में एक बड़ा राजनीतिक टकराव बन चुका है, क्योंकि इसे न्यायपालिका पर सीधे प्रहार के रूप में देखा जा रहा है। जिस प्रकार से विपक्षी दलों ने न्यायाधीश के निर्णय से असहमति को आधार बनाकर उन्हें हटाने का प्रस्ताव दिया, वह भारतीय लोकतंत्र में अभूतपूर्व और चिंताजनक मिसाल है।
सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी का इतिहास केवल मंदिर-प्रशासन से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि यह हिंदू आस्था का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र है जहाँ सदियों से भक्तों की उपस्थिति रही है। 1920 के सिविल डिक्री और प्रिवी काउंसिल के निर्णय ने स्पष्ट कहा था कि पहाड़ी मंदिर की संपत्ति है तथा दरगाह उससे केवल कुछ सीमित हिस्सों में सम्बद्ध है। यह तथ्य अपने आप में बताता है कि दीपथूण पर दीप जलाना मंदिर-परिसर के भीतर ही धार्मिक अनुष्ठान का एक स्वाभाविक हिस्सा है।
फिर भी, पिछले तीन दशकों में दीपथूण को लेकर विवाद गहराता गया और प्रशासन ने अक्सर सुरक्षा या साम्प्रदायिक संवेदनशीलता का हवाला देकर हिंदू परंपराओं को सीमित किया। यह वही मानसिकता है जो डीएमके और उसके सहयोगियों की राजनीति में बार-बार दिखाई देती है, जहाँ बहुसंख्यक आस्था को दबाकर तुष्टिकरण को राजनीतिक लाभ का साधन बना दिया जाता है। यह संयोग नहीं है कि वही दल, जिसके नेताओं ने अनेक बार सनातन धर्म को नष्ट करने योग्य कहा, वही आज दीपथूण में दीप जलाने का विरोध कर रहा है।
यहाँ प्रश्न केवल परंपरा का नहीं, बल्कि अधिकारों का है। जब उच्च न्यायालय का स्पष्ट आदेश मौजूद था कि भक्त दीपथूण पर दीप जला सकते हैं, तब राज्य सरकार द्वारा उसे लागू न करना न केवल न्यायालय की अवमानना है बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता का खुला हनन भी है। जिस प्रकार अदालत ने पुलिस और प्रशासन को फटकारते हुए कहा कि न्यायपालिका का अपमान बर्दाश्त नहीं होगा, वह बताता है कि सरकार किस हद तक अपनी सीमाएँ भूल चुकी है।
लेकिन इससे भी खतरनाक कदम था 107 विपक्षी सांसदों द्वारा न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव। यह केवल असहमति का मुद्दा नहीं, बल्कि न्यायपालिका को धमकाने का सीधा प्रयास है। अगर किसी निर्णय से असहमति हो तो अपील का मार्ग उपलब्ध है; परन्तु न्यायाधीश की नीयत पर प्रश्नचिह्न लगाना और उन्हें राजनीतिक विचारधारा से जोड़कर हटाने का प्रयास करना लोकतांत्रिक संस्थाओं को अस्थिर करने जैसा है। यह न्यायपालिका को संदेश देता है कि धार्मिक मामलों पर निर्णय देते समय राजनीतिक दबाव को ध्यान में रखना पड़ेगा, जो कि किसी भी स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था के लिए विषाक्त है।
वैसे तो सनातन धर्म के विरुद्ध डीएमके के कई नेताओं के वक्तव्य पहले ही सामाजिक समरसता को कमजोर करते रहे हैं। अब दीपथूण पर दीप जलाने के खिलाफ प्रशासनिक दमन और फिर न्यायाधीश पर निशाना साधना इस बात का प्रमाण है कि यह विवाद मूलतः विधिक नहीं, बल्कि वैचारिक और राजनीतिक है। इसमें आस्था को बार-बार चोट पहुँचाई गई है और उन भक्तों को अपराधी जैसा व्यवहार झेलना पड़ा है जिन्होंने केवल अपनी परंपरा निभानी चाही।
बहरहाल, यह विवाद एक व्यापक प्रश्न खड़ा करता है कि क्या भारत में बहुसंख्यक आस्था को केवल इसलिए सीमित किया जा सकता है कि कुछ राजनीतिक दल अपने वोट-बैंक को नाराज़ नहीं करना चाहते? क्या न्यायाधीश केवल इसलिए निशाने पर होंगे कि उन्होंने संविधान और न्यायिक मर्यादा के आधार पर निर्णय दिया, न कि राजनीतिक सुविधा के अनुसार? विपक्ष को समझना होगा कि तिरुप्परनकुंद्रम की पहाड़ी केवल एक पहाड़ी नहीं, वह आस्था का स्रोत है। वहाँ दीप जलाना किसी समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि एक परंपरा का निर्वाह है। इसे रोकना और फिर इसे अनुमति देने वाले न्यायाधीश को निशाना बनाना, दोनों ही लोकतांत्रिक मर्यादाओं के विपरीत हैं। विपक्ष को चाहिए कि सनातन पर प्रहार और न्यायपालिका पर दबाव के जरिये भारत की अवधारणा को कमजोर नहीं करे।
-नीरज कुमार दुबे