By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Aug 07, 2025
पुराने शहर के चौपालगंज में एक अजीब सी खलबली मची हुई थी। चुनाव अभी दूर थे, लेकिन दो प्रमुख विचारधाराओं के बीच एक अदृश्य, भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ था। एक ओर थे 'पुरानी-खोपड़ी-पार्टी' के लोग, जो कहते थे कि 'सत्य सनातन है और हमारे संस्कार ही इस देश की नींव हैं।' उनके नेता श्री रामभरोसे थे, जो धोती-कुर्ता पहनकर, माथे पर चंदन लगाकर घूमते थे और हर बात पर 'पहले हमारे ज़माने में' कहकर लंबी-चौड़ी भाषणबाजी करते थे। दूसरी ओर थे 'फॉरवर्ड-थिंकिंग-फ्रंट' के नौजवान, जो जींस और टी-शर्ट पहनकर, मोबाइल की स्क्रीन पर देश का भविष्य तलाशते थे। उनके नेता मिस सिमरन थीं, जो हर बात में 'डेटा', 'एल्गोरिदम' और 'ग्लोबल-इकोनॉमी' जैसे शब्द ठूंस देती थीं। दोनों दलों के बीच काफ़ी कड़वाहट थी। रामभरोसे कहते, "यह नई पीढ़ी तो हमारी संस्कृति का मज़ाक उड़ा रही है।" और सिमरन का जवाब होता, "इन पुरानी खोपड़ियों में नए विचार घुसते ही नहीं।" इस सब के बीच एक तीसरा पात्र था, जिसका नाम था 'ट्विंकल'। वैसे तो उसका असली नाम सुरेश था, लेकिन लोग उसे 'ट्विंकल' इसलिए कहते थे, क्योंकि वह तारों की तरह कभी इस दल में तो कभी उस दल में चमकता रहता था। वह कभी रामभरोसे के साथ बैठकर 'आदर्शों' की बातें करता तो कभी सिमरन के साथ पिज्जा खाते हुए 'मॉडर्न-अप्रोच' का दम भरता। ट्विंकल की ज़िंदगी का एक ही उसूल था: जिस ओर हवा, उसी ओर छतरी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस विचारधारा के युद्ध में वह किसके साथ जाए। वह दोनों दलों के मंचों के बीच एक अजीबोगरीब मुद्रा में खड़ा था, जैसे दो नावों पर पैर रखने वाला सर्कस का कलाकार।
ट्विंकल की इस बेचैनी को देखकर सबसे पहले पुरानी-खोपड़ी-पार्टी के लोग उसके पास आए। रामभरोसे ने अपनी मोटी आवाज़ में कहा, "अरे ट्विंकल बेटा, तुम तो हमारे परिवार के ही हो। हमारे संस्कारों को तुम ही तो आगे बढ़ाओगे। आओ, हमारे दल में शामिल हो जाओ।" यह सुनकर ट्विंकल ने अपनी आंखों में नकली आंसू भर लिए और हाथ जोड़कर बोला, "रामभरोसे चाचा, मैं आपका ही हूं, लेकिन आप मेरी हालत देखिए। मेरे दोस्त, मेरे रिश्तेदार, सब तो फॉरवर्ड-थिंकिंग-फ्रंट के साथ हैं। अगर मैं आपके साथ आ गया, तो मेरे WhatsApp ग्रुप्स से मुझे निकाल दिया जाएगा। मेरी सोशल मीडिया पर 'ट्रेंडिंग' वाली इमेज का क्या होगा? मैं तो जींस और टी-शर्ट पहनता हूं, आपके इस खादी के माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाऊंगा।" उसकी यह बात सुनकर रामभरोसे ने अपनी मूंछों पर ताव दिया और बोले, "तुम तो हमारे ही हो, तुम्हारा दिल तो पुराना ही है, बस शरीर पर नए कपड़े हैं। आओ, तुम्हारा स्वागत है। देखो, तुम्हारे कपड़ों को देखकर कोई तुम्हें पहचान ही नहीं पाएगा, तुम हमारे खुफिया एजेंट बन जाओ।" ट्विंकल ने एक पल सोचा, फिर अपनी आंखें नचाते हुए कहा, "नहीं चाचा, यह 'फॉरवर्ड-थिंकिंग' की हवा थोड़ी ज़ोरदार है। मैं इस हवा के खिलाफ कैसे चलूंगा? आप देखिए, मेरे पास दाढ़ी नहीं है, आप तो दाढ़ी वाले को ही अपना मानते हैं।" यह सुनकर रामभरोसे के साथी बोले, "अरे बेटा, दाढ़ी नहीं तो क्या हुआ? दिल में दाढ़ी तो है।" यह कहकर वे हंसने लगे और ट्विंकल को और उलझन में डालकर चले गए। ट्विंकल ने सिर पकड़ लिया, उसकी चाल पकड़ी जा चुकी थी।
पुरानी-खोपड़ी-पार्टी के जाते ही, फॉरवर्ड-थिंकिंग-फ्रंट के लोग उसके पास आए। सिमरन ने अपनी उंगलियों से हवा में एक ग्राफ बनाते हुए कहा, "हे ट्विंकल, तुम तो हमारे दल के सबसे महत्वपूर्ण 'डेटा-पॉइंट' हो। आओ हमारे साथ। हम तो तुम्हें अपनी 'डिजिटल-आर्मी' का हेड बनाएंगे।" ट्विंकल ने तुरंत अपनी टी-शर्ट का कॉलर ठीक किया और बोला, "मैम, आप मेरी हालत देखिए। मेरे दादा-परदादा तो रामभरोसे चाचा के ही समर्थक रहे हैं। मेरी पुरानी पीढ़ी का क्या होगा? मेरे घर में तो अभी भी गोबर के कंडे से खाना बनता है, और आप कहती हैं कि 'इलेक्ट्रिक-इंडक्शन' पर चलो। मैं तो उनके कल्चर को भूल ही नहीं सकता।" यह सुनकर सिमरन ने अपनी आंखें सिकोड़कर कहा, "ओह, माय गॉड! तुम तो 'इमोशनल-ब्लैकमेलिंग' कर रहे हो। यह तो बहुत ही 'रेट्रो' अप्रोच है। क्या तुम 'प्रोग्रेस' नहीं करना चाहते? तुम पुराने विचारों में ही फंसकर रह जाओगे। 'डिजिटल-इंडिया' के युग में गोबर के कंडे? कितना 'आउट-ऑफ-द-बॉक्स' हो तुम!" ट्विंकल ने तुरंत अपनी मुद्रा बदली और हंसते हुए बोला, "अरे मैम, वह तो मैं मज़ाक कर रहा था। आप तो मेरी 'सेंस ऑफ ह्यूमर' को समझिए।" सिमरन बोली, "तुम्हें पंख नहीं दिखते? तुम तो हमारे ही हो।" ट्विंकल ने तुरंत अपना बचाव किया, "मेरे पास तो पंख नहीं हैं, मैम। मैं तो ज़मीन पर रहने वाला चूहा हूं, जिसे आप लोग कभी 'प्रोग्रेसिव' नहीं मानेंगे।" सिमरन और उसके साथी भी हंसते हुए उसे उलझन में डालकर चले गए।
एक दिन दोनों दलों ने शहर के बीचों-बीच एक बड़ी प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। रामभरोसे और सिमरन आमने-सामने बैठे थे और ट्विंकल उन दोनों के ठीक बीच में एक 'न्यूट्रल-पॉइंट' की तरह बैठा था। एक पत्रकार ने रामभरोसे से पूछा, "रामभरोसे जी, क्या आप मानते हैं कि 'सोशल मीडिया' का उपयोग देश के विकास के लिए ज़रूरी है?" रामभरोसे ने जवाब दिया, "देखिए, सोशल मीडिया तो हमारी संस्कृति के लिए खतरा है, लेकिन कुछ 'ज्ञान' की बातें भी होती हैं, तो ठीक है।" ट्विंकल तुरंत बोला, "नहीं, नहीं, सर। सोशल मीडिया तो हमारी 'आत्मा' है। यह तो एक 'डेटा-माइनिंग' का ऐसा साधन है, जिससे हम लोगों की भावनाओं को समझ सकते हैं।" सिमरन ने मुस्कुराकर कहा, "अच्छा ट्विंकल, तुम क्या मानते हो कि 'संस्कारों' की बातें करना आज के समय में प्रासंगिक है?" ट्विंकल ने तुरंत अपनी बात पलटी और कहा, "मैम, हमारी संस्कृति ही तो हमारी पहचान है। संस्कार तो हमारी 'डीएनए' में हैं, उन्हें कोई बदल नहीं सकता।" सिमरन के चेहरे पर एक गुस्सा झलक गया। रामभरोसे ने भी उसे घूरकर देखा। ट्विंकल ने महसूस किया कि उसने दोनों दलों को एक साथ खुश करने की कोशिश में दोनों को नाराज़ कर दिया है। उसकी 'डबल-एजेंट' वाली छवि अब सबके सामने आ गई थी। उस दिन वह प्रेस कॉन्फ्रेंस में बैठा तो था, लेकिन ऐसा लग रहा था कि वह अपने ही वजूद से दूर होता जा रहा है। उसकी आंखों में एक अजीब सी उदासी थी।
कुछ दिन बाद, अचानक एक बड़ी घटना हुई। शहर के एक पुराने किले की नींव में एक प्राचीन शिलालेख मिला, जिस पर दोनों दलों की विचारधाराओं का अद्भुत समन्वय था। उसमें लिखा था कि 'संस्कार और प्रगति दोनों मिलकर ही एक शक्तिशाली समाज का निर्माण करते हैं।' इस घटना ने दोनों दलों के नेताओं को हिला दिया। रामभरोसे और सिमरन दोनों ने एक-दूसरे से हाथ मिलाया और मिलकर शहर के विकास के लिए एक नई योजना शुरू करने का फैसला किया। दोनों दलों के बीच की सारी कड़वाहट दूर हो गई और शहर में शांति का माहौल छा गया। चारों ओर खुशियां ही खुशियां थीं। लोग एक-दूसरे को गले लगा रहे थे। दोनों दलों के समर्थक एक-दूसरे के घर जाकर चाय पी रहे थे। यह देखकर ट्विंकल की आंखों में चमक आ गई। उसने सोचा, "अब मेरा समय आ गया है। अब मैं किसी भी दल में शामिल हो सकता हूं, क्योंकि अब तो दोनों एक ही हैं।" उसने अपनी कमर सीधी की और आत्मविश्वास के साथ चलने लगा। उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी, जैसे कोई चोर चोरी करने के बाद निश्चिंत हो जाता है कि अब उसे कोई नहीं पकड़ेगा। उसे लगा कि उसकी चाल, उसका दांव अब सफल हो गया है। उसने अपने मन में सोचा, "मैं कितना होशियार हूं। जब ये दोनों लड़ रहे थे, तब मैंने इंतज़ार किया और अब जब दोनों एक हो गए हैं, तो मैं इन दोनों का हिस्सा बन जाऊंगा।"
यह सोचकर ट्विंकल सबसे पहले रामभरोसे के पास गया। वह उनके चरणों में झुककर बोला, "चाचा, मुझे माफ कर दीजिए। मैं उस दिन आपकी बातों को नहीं समझ पाया था। मैं तो हमेशा से ही आपके साथ था, बस दुनियादारी की मजबूरी थी।" रामभरोसे ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और एक ठंडी सांस लेकर बोले, "बेटा, जब हमें तुम्हारी ज़रूरत थी, तब तुम 'फॉरवर्ड-थिंकिंग' की बातें कर रहे थे। जब तुम हमारे साथ नहीं थे, तब तुमने हमें अकेला छोड़ दिया था। अब जब सब ठीक हो गया है, तब तुम यहां आए हो? तुम अपने स्वार्थ के लिए हमारे पास आए हो। हम तुम्हें अपने दल में नहीं ले सकते। जिस व्यक्ति का कोई आदर्श नहीं होता, वह किसी काम का नहीं होता।" ट्विंकल की आंखों में पानी आ गया। उसे रामभरोसे की बातों में अपने ही कर्मों का प्रतिबिंब दिखाई दिया। वह चुपचाप, सिर झुकाकर वहां से चला गया। उस समय, उसके अंदर का एक हिस्सा मर गया था।
हताश होकर ट्विंकल सिमरन के पास गया। वह हाथ जोड़कर बोला, "मैम, मैं हमेशा से आपकी ही टीम का हिस्सा बनना चाहता था। मैं उस दिन डर गया था। मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं 'न्यू एज' के विचारों के साथ ही जीना चाहता हूँ।" सिमरन ने उसे देखकर अपनी आंखों में एक कटाक्ष भरा और बोली, "ट्विंकल, जब हमें तुम्हारी ज़रूरत थी, तब तुम 'पुरानी-खोपड़ी' के आदर्शों का गुणगान कर रहे थे। अब जब हमें तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं है, तब तुम हमारे पास आए हो। हमारे दल में सिर्फ वही लोग रह सकते हैं, जो दिल से 'फॉरवर्ड-थिंकिंग' वाले हों। तुम एक मौकापरस्त हो, और मौकापरस्त लोगों को कोई भी दल स्वीकार नहीं करता।" सिमरन की बात सुनकर ट्विंकल का दिल टूट गया। उसे अपने ही किए पर शर्म महसूस होने लगी। वह समझ गया कि उसका असली चेहरा सबके सामने आ चुका है और अब उसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा। उसकी ज़िंदगी एक ऐसे चौराहे पर आकर खड़ी हो गई थी, जहां से कोई रास्ता नहीं था। वह अकेला खड़ा था।
इस घटना के बाद ट्विंकल पूरी तरह से अकेला हो गया। दोनों दलों के लोगों ने उससे बात करना बंद कर दिया। उसके दोस्त, जो कभी उसके साथ थे, अब उसे देखकर रास्ता बदल लेते थे। वह चौपालगंज में अकेला ही घूमता रहता था, जैसे कोई भूत। उसके पास न तो 'पुरानी-खोपड़ी' के संस्कार थे, न ही 'फॉरवर्ड-थिंकिंग' की कोई 'प्लानिंग'। वह दोनों दुनियाओं के बीच में फंसा एक ऐसा पात्र बन गया था, जिसका कोई वजूद नहीं था। एक रात, वह अपनी बालकनी में अकेला बैठा चांद को देख रहा था। उसकी आंखों से आंसू टपक रहे थे, और उसे अपने स्वार्थ के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। वह आज़ाद तो था, लेकिन इस आज़ादी में सिर्फ़ अकेलापन था। उसके होंठों से एक आह निकली, "काश, मैंने किसी एक दल के साथ पूरी ईमानदारी से काम किया होता। आज मैं किसी का तो होता।" उसका दिल टूट गया था। उसकी आत्मा कांप रही थी।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)