ट्रिब्यूनल सुधार और राष्ट्रपति संदर्भ संबंधी फैसले संवैधानिक मर्यादा और न्यायिक संयम की मिसाल

By नीरज कुमार दुबे | Nov 20, 2025

भारत की संवैधानिक संरचना में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन सदैव एक संवेदनशील विषय रहा है। दो दिनों में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए दो महत्वपूर्ण फैसलों ने इस संतुलन पर नई बहसों को जन्म दिया है। एक ओर न्यायालय ने न्यायाधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 के प्रमुख प्रावधानों को असंवैधानिक ठहराकर संसद और केंद्र सरकार को कठोर संदेश दिया है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत भेजे गए संदर्भ पर अपनी राय देते हुए न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि न तो राष्ट्रपति और न ही राज्यपाल पर अदालत कोई बाध्यकारी समय-सीमा थोप सकती है। इन दोनों फैसलों को मिलाकर देखें तो न्यायालय ने एक ओर कार्यपालिका के हस्तक्षेप से न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा की है, जबकि दूसरी ओर अपने अधिकार-क्षेत्र की सीमाएँ भी रेखांकित की हैं।


न्यायाधिकरण संबंधी फैसले की बात करें तो 19 नवंबर को दिए गए 137 पृष्ठों के निर्णय में मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने साफ कहा है कि संसद पहले से रद्द किए गए प्रावधानों को मामूली बदलावों के साथ दोबारा पेश कर न्यायिक फैसलों को दरकिनार नहीं कर सकती। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि सरकार बार-बार उन्हीं प्रावधानों को अध्यादेश और फिर कानून के रूप में लागू करती रही, जिन पर न्यायालय स्पष्ट रूप से ऐतराज जता चुका था। यह प्रवृत्ति विधायी अवहेलना (legislative overruling) के रूप में व्याख्यायित की गई— अर्थात, बिना वास्तविक सुधार किए केवल प्रतीकात्मक परिवर्तन कर न्यायालय की बात को निष्प्रभावी करने का प्रयास।

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यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न्यायाधिकरणों की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और संस्थागत मर्यादा को ठोस आधार देता है। न्यायाधिकरण सरकार के अंगों के विरुद्ध भी निर्णय लेते हैं; ऐसे में उनकी नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा-शर्तें यदि सरकार के नियंत्रण में हों, तो न्यायिक निष्पक्षता खतरे में पड़ सकती है। न्यायालय ने इस अधिनियम को शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) और न्यायिक स्वतंत्रता (Judicial Independence) के सिद्धांतों का उल्लंघन करार देते हुए रद्द कर दिया। यह स्पष्ट संकेत है कि संसद कानून तो बना सकती है, लेकिन न्यायपालिका की मूलभूत स्वतंत्रता को नियंत्रण में लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती।


दूसरा महत्वपूर्ण फैसला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए संवैधानिक संदर्भ पर आया। न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न था— क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति पर यह बाध्यता हो सकती है कि वे किसी बिल पर तय समय-सीमा में निर्णय दें? मुख्य न्यायाधीश गवई तथा न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिंह और ए.एस. चंदुरकर की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि न्यायालय राज्यपाल/राष्ट्रपति पर कोई निर्धारित समय-सीमा नहीं थोप सकता। यह स्पष्ट है कि “Deemed Assent” अर्थात समय बीतने पर बिल को स्वतः मंजूर मान लेने की अवधारणा असंवैधानिक है, क्योंकि यह कार्यपालिका की भूमिका को न्यायपालिका द्वारा हड़पने जैसा होगा। हाँ, यदि लंबे समय तक अनिश्चित देरी हो, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित हो, तो न्यायालय सीमित दायरे में यह निर्देश दे सकता है कि राज्यपाल अपनी जिम्मेदारी निभाएँ, लेकिन यह निर्देश विवेकाधिकार के उपयोग पर टिप्पणी नहीं करेगा।


इस फैसले से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली यह कि न्यायालय ने स्वयं पर अंकुश लगाते हुए साफ किया कि कार्यपालिका के संवैधानिक अधिकारों में दखल की सीमा तय है। दूसरी बात यह है कि राज्यपालों की ओर से बिलों को महीनों तक रोककर रखने की आलोचना को भी न्यायालय ने गंभीरता से लिया है और समाधान के रूप में सीमित न्यायिक समीक्षा का दरवाज़ा खुला रखा है। यह संतुलन स्थापित करना आसान नहीं था। एक ओर राज्यों— विशेषकर तमिलनाडु, केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल ने तर्क दिया कि राज्यपालों द्वारा बिलों को रोकना लोकतंत्र-विरोधी है। दूसरी ओर, केंद्र ने कहा कि अदालतें समय-सीमा तय करके कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकतीं। अंततः न्यायालय ने वही रास्ता चुना जो भारतीय संविधान की आत्मा के अनुरूप है यानि संविधान ने समय-सीमा नहीं तय की है, इसलिए अदालत भी इसे तय नहीं करेगी।


इन दोनों फैसलों में न्यायालय का स्वर पूरी तरह एक जैसा नहीं है। एक तरफ उसने संसद को तीखी चेतावनी दी, दूसरी तरफ उसने खुद अपनी सीमाओं को स्वीकार किया। यही दोहरी भूमिका भारतीय लोकतंत्र को संतुलित बनाती है। न्यायालय संदेश दे रहा है कि न्यायिक स्वतंत्रता पर किसी भी प्रकार का आघात बर्दाश्त नहीं होगा, लेकिन संविधान में जो अधिकार अन्य अंगों को दिए गए हैं, उन पर न्यायपालिका कब्जा नहीं करेगी।


इन फैसलों की समय-सीमा भी रोचक है। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई 23 नवंबर 2025 को सेवानिवृत्त होंगे। उनके बाद न्यायमूर्ति सूर्यकांत 24 नवंबर को भारत के 53वें मुख्य न्यायाधीश बनेंगे। इन दोनों महत्वपूर्ण संवैधानिक फैसलों पर गवई और सूर्यकांत दोनों की निर्णायक भूमिका भविष्य की न्यायिक दिशा के संकेत देती है— विशेषकर केंद्र–राज्य संबंधों और न्यायिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में।


बहरहाल, संविधान ने भारत को एक संतुलित संरचना दी है— न्यायपालिका स्वतंत्र हो, कार्यपालिका जिम्मेदार हो और विधायिका जनता के प्रति उत्तरदायी हो। इन दोनों फैसलों ने इस संतुलन को और भी स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है। जहाँ न्यायालय ने संसद को बताया कि वह न्यायिक आदेशों को दरकिनार नहीं कर सकती, वहीं राज्यपालों और राष्ट्रपति की संवैधानिक गरिमा को भी मान्यता दी, यह कहते हुए कि समय-सीमा थोपना न्यायपालिका के अधिकार-क्षेत्र से बाहर है। इन फैसलों के साथ भारत का लोकतंत्र एक बार फिर यह साबित करता है कि संस्थाएँ तभी मजबूत होती हैं जब वे एक-दूसरे की सीमाओं और स्वतंत्रता का सम्मान करें।


-नीरज कुमार दुबे

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