बिहार में सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा, समझिए विस्तार से

By कमलेश पांडे | Oct 08, 2025

लोकतंत्र की जननी बिहार के राजनेतागण अपनी व्यक्तिगत, गुटगत, पार्टीगत और गठबंधनगत सियासी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए चुनावी जनादेश को अकसर धत्ता बताने के आदी समझे जाते हैं। पहले जब यहां कांग्रेस का एकछत्र राज या जनता पार्टी-जनता दल का छिटपुट राज हुआ करता था, तब मुख्यमंत्री बदल दिए जाते थे। लेकिन जब क्षेत्रीय दलों के रहनुमा लालू प्रसाद (राजद) या नीतीश कुमार (जदयू) की सियासी चलती आई तो मुख्यमंत्री कम, गठबंधन साथी बदलने की एक नई परिपाटी शुरू हो गई। लोजपा नेता स्व. रामविलास पासवान और अब उनके पुत्र केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान, हम नेता व केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी, रालोसपा नेता उपेंद्र कुशवाहा, वीआईपी पार्टी नेता मुकेश सहनी के अलावा वामपंथी दलों ने इनका खूब साथ दिया।


बताया जाता है कि इसके पीछे कांग्रेस और भाजपा के केंद्रीय व सूबाई नेतृत्व की अदूरदर्शिता भरी मनमानी तथा राजद और जदयू आदि क्षेत्रीय दलों के घात-प्रतिघात की सियासत की भी बड़ी भूमिका रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि टीम मोदी इसबार इन राजनीतिक कुप्रथाओं को रोकने के लिए प्रतिबद्ध है। तभी तो केंद्रीय मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव को सभी चुनावों की मां बताया है। क्योंकि समझा जा रहा है कि यह इलेक्शन कई कारणों से बिहार की सियासत को बिल्कुल नया रंग देने वाला है। यह ठीक है कि पिछले दो दशकों से एनडीए ने बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार को मुख्य केंद्रीय भूमिका में बनाए रखा है और भाजपा को इसकी भारी चुनावी कीमत भी चुकानी पड़ी है। शायद इसलिए कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और विगत तीन-साढ़े तीन दशकों उसके चहेते नेता लालू प्रसाद (राजद) व उनके पुत्र व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को सूबाई सत्ता से दूर रखा जा सके। कहा जाता है कि बिहार में लालू प्रसाद के सियासी कुनबे को स्थायित्व देने, दिलवाने में कांग्रेस की बहुत बड़ी भूमिका रही है। इसलिए भाजपा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सभी मनमानियों को बर्दाश्त करते हुए उन्हें अपने पाले में मिलाए रखती है। दो दो बार नीतीश कुमार भाजपा से दूर भी गए, लेकिन उन्हें निकट लाने का कोई भी मौका भाजपा ने नहीं गंवाया। 

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फिलवक्त यह चर्चा है कि 2025 का चुनाव नीतीश कुमार के जीवन का शायद आखिरी इलेक्शन हो सकता है। चूंकि बिहार की महिलाओं और एमबीसी मतदाताओं पर नीतीश कुमार की शुरू से पकड़ रही है, इसलिए इस बार महिलाओं और अति पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं के बीच उनकी लोकप्रियता की परीक्षा होगी। वैसे तो सवर्णों और अल्पसंख्यकों को भी मुगालते में रखने में वो सफल रहे हैं, लेकिन इस बार की सियासी स्थिति काफी बदल चुकी है। कई ऐसे सियासी प्रसंग छिड़े, जिनसे नीतीश कुमार बेनकाब हो चुके हैं। यह ठीक है कि गठबंधन में बार-बार बदलाव करके नीतीश कुमार राजनीतिक समीकरण के केंद्र में बने रहे। लेकिन, इस बार उनके सामने अपने विधायकों के खिलाफ बढ़ती नाराजगी, मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप और राजद सुप्रीमो तेजस्वी यादव व कांग्रेस नेता राहुल गांधी के अलावा जनसुराज पार्टी के प्रशांत किशोर की मजबूत चुनौती उनके समक्ष है।


जदयू नेता नीतीश कुमार को यह याद है कि 2020 में लोजपा नेता चिराग पासवान ने एनडीए से अलग होकर जदयू के खिलाफ चुनाव लड़ा था, जिससे जदयू की सीटें भाजपा के मुकाबले काफी कम होकर महज 43 तक सिमट गईं। लेकिन इस बार एनडीए के लिए राहत की बात यह है कि चिराग पासवान की लोजपा (राम विलास) गठबंधन में बनी हुई है और साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी। इससे एनडीए को चिराग के 5 प्रतिशत पासवान वोट आधार के अलावा दलित मतों पर भरोसा है, जो कि इस चुनाव में निर्णायक साबित हो सकता है। वहीं, एनडीए के पूर्व सहयोगी वीआईपी नेता मुकेश साहनी,जो 2020 में एनडीए के साथ रहकर चार सीटें जीते थे, इस बार वह इंडिया गठबंधन में शामिल हो गए हैं। इससे गंगापुत्र वोटों की क्षति भाजपा को उठानी पड़ सकती है। 


वैसे महागठबंधन में सीट बंटवारे पर वीआईपी पार्टी की भी बातचीत चल रही है। इससे इंडिया गठबंधन को उम्मीद है कि साहनी के निषाद समुदाय का समर्थन मिलेगा, जो मिथिलांचल, सीमांचल, अंग और चंपारण में अहम वोटर समझे जाते हैं। यह उनकी जीत में मदद करेगा। शायद यह बिहार में पहला ऐसा चुनाव है जिसमें नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने मुफ्त योजनाओं की झड़ी लगा दी और नकद धनराशि देने पर भी जोर दिया है। यह उसकी सामान्य रणनीति से अलग है।


यही वजह है कि गत सोमवार को आदर्श आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले नीतीश ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 21 लाख महिलाओं को 10 हजार रुपये भेजे। इस प्रकार से कुल मिलाकर राज्य सरकार ने 1.21 करोड़ महिलाओं को 12,100 करोड़ रुपये हस्तांतरित किए हैं। वहीं, अगले 29 लाख लाभार्थियों के लिए शेड्यूल जारी हो चुका है। हालांकि, आगे के हस्तांतरण के लिए निर्वाचन आयोग की मंजूरी जरूरी होगी। इसके अलावा, पेंशन राशि को 400 रुपये से बढ़ाकर 1100 रुपये प्रति माह किया गया है। वहीं, कई सरकारी कर्मचारियों के मानदेय में वृद्धि की गई है। यह सब नीतीश कुमार ने इसलिए किया ताकि विरोधियों को सियासी शिकस्त दी जा सके।


हालांकि, सवर्णों के वोट आधार पर अपनी-अपनी सियासत चमकाने वाली जदयू-भाजपा को इस बार जनसुराज पार्टी के संस्थापक व मशहूर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के रूप में एक नई चुनौती मिल रही है, जो तेजस्वी यादव से ज्यादा खतरनाक है। ऐसा इसलिए कि कई वर्षों बाद बिहार में एक ऐसा नया चेहरा चर्चा में है जो सवर्ण पृष्ठभूमि का है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पिछले तीन वर्षों से राज्य में प्रचार कर रहे हैं और उनकी ओर से लगाए गए सरकारी भ्रष्टाचार के आरोप पूरे राज्य में चर्चा का विषय बने हुए हैं। इससे सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबंधन दोनों सतर्क हो गए हैं। हालांकि, अभी यह देखना बाकी है कि क्या वह इन चर्चाओं को वोटों में बदल पाएंगे। 


इस तरह 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव न केवल नीतीश कुमार की विरासत की परीक्षा लेगा, बल्कि भाजपा के नए चेहरों और विपक्ष की बदलती रणनीतियों के साथ सियासत को नया आयाम भी देगा। इसलिए बिहार में चुनाव को प्रभावित करने वाले कतिपय महत्वपूर्ण व प्रमुख फैक्टर्स का विश्लेषण करना लाजिमी है, जो यह निर्धारित कर सकते हैं कि सत्तारूढ़ एनडीए सत्ता में बनी रहेगी या फिर जनता विपक्षी गठबंधन को समर्थन देकर आश्चर्यचकित कर देगा, या फिर 2025 की तरह ही एक बार फिर त्रिशंकु सरकार बनेगी।


बिहार में चुनावी बिगुल आधिकारिक तौर पर बज चुका है। चुनाव आयोग द्वारा 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में वोटिंग के ऐलान के साथ, एक बेहद अहम राजनीतिक मुकाबले का मंच तैयार है। लेकिन इस अहम मुकाबले में किसका पलड़ा भारी है? 14 नवंबर को नतीजों का इंतज़ार रहेगा। यूँ तो तमाम चुनाव पूर्व आए मतदाता सर्वेक्षण में एनडीए के लिए अंकगणितीय बढ़त की बात बताई जा रही है, लेकिन कागज़ों पर और सियासी जमीन पर यह गणनात्मक दौड़ कितनी सही बैठी, इसका खुलासा 14 नवम्बर को ही हो पाएगा। यह ठीक है कि राजनीतिक अंकगणित के आधार पर एनडीए की स्पष्ट बढ़त से चर्चा शुरू होती है, लेकिन विपक्ष को हल्के में लेना उसकी बड़ी भूल साबित हो सकती है। यह ठीक है कि सत्तारूढ़ एनडीए में बीजेपी, जेडीयू, जीतन राम मांझी की पार्टी, चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा आदि शामिल हैं। इसलिए यह गठबंधन संख्याबल के रूप से विपक्ष यानी आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी दलों के गुट से ज़्यादा मज़बूत प्रतीत है, वो भी तब जब सवर्ण व मुस्लिम वोटों का बंटवारा न हो।


राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भले ही आंकड़ों का गणित एनडीए के पक्ष में हो सकता है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर बिखरे हुए राजनीतिक समीकरण मुकाबले को और अधिक दिलचस्प बना देते हैं। ज़्यादातर सर्वेक्षणों से पता चलता है कि आरजेडी के तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद के लिए पसंदीदा विकल्प हैं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी चुनौती उनका पारिवारिक कलह है। वहीं, आरजेडी के पारंपरिक मुस्लिम-यादव (एम-वाई) वोट आधार से आगे खासकर सवर्णों के बीच उनकी अपनी अपील का विस्तार करना है, जिससे मुकाबला रोचक हो सकता है।


इसी बीच काबिलेगौर है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 20 साल की सत्ता-विरोधी लहर से जूझ रहे हैं और मोदी-शाह के बढ़ते दबाव के चलते कुछ लोग उन्हें हाल के वर्षों में एक कमज़ोर नेता के रूप में देखते हैं। इससे वे अपनी पार्टी के लिए एक संपत्ति और एक बोझ दोनों बन चुके हैं। हालांकि एकमुखी दल के लिए यह आम बात है। वे एक सियासी सम्पत्ति इसलिए हैं क्योंकि उन्हें करीब 15 प्रतिशत वोट शेयर लगातार मिलता आया है। और एक बोझ इसलिए भी हैं क्योंकि वे सत्ता-विरोधी लहर का चेहरा हैं। दो दो बार तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री उन्होंने बनवाया है, इसलिए उनपर लोगों का भरोसा करना कठिन हो जाता है। लिहाजा, अहम सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार अपनी सियासी ज़मीन बचा पाएंगे या अब उनका स्थायी पतन हो रहा है। यदि ऐसा हुआ तो भाजपा के सुनहरे सपने भी ध्वस्त हो जाएंगे। क्योंकि 2026 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव और 2027 में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव पर बिहार के जनादेश का सीधा असर पड़ेगा।


इसबार के चुनाव की खास बात यह भी है कि कल्याणकारी योजनाएं बनाम सत्ता-विरोधी भावना का लिटमस टेस्ट यहां होना है। यूँ तो फ्रीबीज से कई नई सरकारें बन चुकी हैं और पुरानी सरकारें भी बची हैं। इसलिए एनडीए ने बिहार में भी फ्रीबीज के प्रयोग को दोहरा दिया है। बताया जाता है कि मतदाताओं की बेचैनी दूर करने के लिए ही एनडीए सरकार ने हाल के महीनों में महिलाओं और युवाओं को टारगेट करते हुए प्रत्यक्ष नकद लाभ योजनाओं की एक सीरीज शुरू की है। चूंकि मतदाताओं के हाथों में सीधे पैसा पहुंचाने की रणनीति मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उड़ीसा जैसे अन्य राज्यों में भी कारगर साबित हुई है। ऐसे में प्रत्यक्ष कल्याणकारी लाभ क्या पारंपरिक जातिगत समीकरणों को तोड़ सकते हैं, यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है। वहीं, फ्रीबीज की घोषणा बिहार में सत्ता-विरोधी भावना को दूर करने का एक शक्तिशाली साधन हो सकते हैं। ऐसा राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं।


बिहार विधानसभा चुनाव का सबसे दिलचस्प और अप्रत्याशित पहलू राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की एंट्री है। उनके बड़े चुनाव प्रचार अभियान ने स्थानीय और बाहरी हर तरह के लोगों का ध्यान खींचा है, लेकिन असली परीक्षा उस उत्साह को वोटों में बदलना है। राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि अगर जनसुराज पार्टी 10 फीसदी से ज़्यादा वोट हासिल कर लेती है, तो मुकाबला काफ़ी खुला हो सकता है। यह बात सबको मालूम है कि 2020 का चुनाव सिर्फ़ 12,000 वोटों के बेहद कम अंतर से तय हुआ था, इसलिए प्रशांत किशोर की एक छोटी सी भी बढ़त दोनों प्रमुख गठबंधनों के वोट खींचकर अंतिम परिणाम को नाटकीय रूप से बदल सकने की क्षमता रखती है।


बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है, जिससे साफ है कि बिहार में दो चरणों में विधानसभा चुनाव होंगे। बिहार में पहले चरण के लिए 6 नवंबर जबकि दूसरे चरण के लिए 11 नवंबर को वोटिंग होगी। वहीं नतीजे 14 नवंबर को आएंगे। इस बीच एक ओपिनियन पोल आया है जिसमें एनडीए गठबंधन को प्रचंड बहुमत में मिलता दिखाई दे रहा है। IANS-MATRIZE ओपिनियन पोल के अनुसार बिहार में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है, क्योंकि इस ओपिनियन पोल के अनुसार बिहार में बीजेपी को 80 से 85 सीटें मिल सकती है जबकि जनता दल यूनाइटेड को 60 से 65 सीटें मिल सकती है। वहीं जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा को 3 से 6, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को 4 से 6, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा को एक से दो सीट मिल सकती है।


वहीं अगर महागठबंधन की बात करें तो आरजेडी को 60 से 65 सीटें मिल सकती हैं। जबकि कांग्रेस को 7 से 10, सीपीआईएमएल को 6 से 9, सीपीएम को 0 से 1, वीआईपी को 2 से 4 सीट मिल सकती है। इसके अलावा असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM को 1 से 3 सीट मिल सकती है। प्रशांत किशोर की जन सुराज पहली बार चुनावी मैदान में है और उसे 2 से 5 सीटें मिल सकती है। जबकि अन्य को 7 से 10 सीटें मिल सकती है।


उल्लेखनीय है कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन को जीत हासिल हुई थी। एनडीए गठबंधन ने 243 सदस्यीय विधानसभा में 125 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि महागठबंधन ने 110 सीटों पर जीत हासिल की थी। 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी को 75 सीटों पर जीत हासिल हुई थी जबकि भाजपा को 74 सीटें मिली थी। वहीं नीतीश कुमार की जेडीयू को 43, कांग्रेस को 19 सीपीआईएमएल को 12 और असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने 5 सीटों पर जीत हासिल की थी।


इसप्रकार, बिहार में चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद आया पहला ओपिनियन पोल भी चौंकाने वाला है।


- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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