Gyan Ganga: देवी पार्वती की ऐसी कौन सी जिज्ञासा थी जिस पर भगवान शंकर को क्रोध नहीं आया?

By सुखी भारती | Jul 03, 2025

मुनि भारद्वाज जी को श्रीराम जी की कथा श्रवण करने का अत्यंत उत्साह है। मुनि याज्ञवल्क्य जी, भगवान शंकर के प्रसंगों के माध्यम से ही, उन्हें श्रीराम जी की कथा सुनानी आरम्भ करते हैं। वे कहते हैं, कि एक समय कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर और माता पार्वती दोनों अत्यंत ही सुंदर व मनोहर वातावरण में बैठे थे। भगवान शंकर को अपने पर अपार स्नेहयुक्त भावों से सरोबार देख, माता पार्वती ने कहा-


‘जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी।

जानिअ सत्य मोहि निज दासी।।

तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना।

कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना।।’


अर्थात हे प्रभु! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं, और सचमुच मुझे अपनी दासी जानते हैं, तो हे प्रभु! आप श्री रघुनाथजी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए।


यहाँ माता पार्वती जी ने संसार के लिए यह भी स्पष्ट कर दिया, कि भगवान श्रीराम जी की कथा कभी भी एक प्रकार से नहीं कही जाती है। ऐसा नहीं, कि किसी संत ने जैसी कथा कही, ठीक वैसे ही दूसरे संत भी कहेंगे। एक ही प्रसंग को कोई संत किसी ओर प्रकार से बाँचेंगे, और दूसरे संत किसी अन्य प्रकार से।

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इसमें एक और विशेषता होगी, कि उसी प्रसंग में अगर एक संत राग की व्याखया से रंगेंगे, तो हो सकता है, कि दूसरे संत उसी प्रसंग को वैराग्य की दृष्टि से बाँचते हुए भी दिख जायें। ठीक वैसे जैसे एक कुशल गृहणी, दूध से दही बनाते दिख सकती है, वहीं दूसरी गृहणी उसी दूध में नींबू डालकर, उसे पनीर बनाते भी दृष्टिपात हो सकती है। 


‘तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना।।’


यहाँ माता पार्वती जी ने एक बात पर और बल दिया। वह यह, कि जो नाना प्रकार की श्रीराम कथा आप मुझे सुनाने जा रहे हैं, उसके सुनने से मेरे मन में उलझन नहीं होगी, अपितु मेरे अज्ञान का ही नाश होगा। किंतु जब माता पार्वती जी विनती करती हैं, तो एक शब्द ऐसा कहती हैं, मानों उनके मन में, अभी पूर्व जन्म वाली गाँठ अभी भी उन्हें खटक रही हो। वे आदर भाव से पूछती हैं-


‘जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति मोरि।

देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि।।’


अर्थात यदि श्रीराम राजपुत्र हैं, तो वे ब्रह्म कैसे हैं? यदि वे ब्रह्म हैं, तो एक साधारण मानव की भाँति, पत्नि बिरह में उनकी मति बावली कैसे हो गई? ऐसे में मैं उनकी महान चरित्र गाथा को सुनकर, व दूसरी ओर, उनके ऐसे मानवीय चरित्र को देखकर, मेरी मति मानो चकरा गई है।


भगवान शंकर ने जब माता पार्वती जी के श्रीमुख से यह शब्द सुने, तो वे किसी भी प्रकार से खिन्न अथवा निराश नहीं हुए। उनके मन में एक क्षण के लिए भी नहीं उठा, कि देवी पार्वती का मन तो पूर्व जन्म की भाँति, फिर से शंकापूर्ण है। क्योंकि पूर्व जन्म, सती रुप में, उनके मन में, यही तो समस्या उन्पन्न हुई थी, कि श्रीराम जी ब्रह्म हैं, अथवा एक साधारण जीव? तब इसी संशय के कारण ही, सती के प्राणों की बलि हुई थी। आज वही प्रश्न फिर से प़फ़न उठाये है। क्या इस जन्म में भी माता पार्वती जी को ऐसे प्रश्न ले डूबेंगे, अथवा समाधान होगा?


निश्चित ही भगवान शंकर को देवी पार्वती की ऐसी जिज्ञासा पर किसी प्रकार का क्रोध नहीं आया। कारण कि वे जानते हैं, कि प्रश्न भले ही वही हैं, जो पिछले जन्म में सती के मन में उठे थे। किंतु इस बार इन प्रश्नों के पीछे छिपी भावना संशय की नहीं, अपितु जिज्ञासा व लोक कल्याण की है। भोलेनाथ कहते भी हैं, कि हे पार्वती! तुमने जो श्री रघुनाथ जी की कथा का प्रसंग पूछा है, वह कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो।  


‘पूँछेहू रघुपति कथा प्रसंगा।

सकल लोक जग पावनि गंगा।।

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी।

कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी।।’


साथ में यह भी कह दिया-

‘राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।

सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं।।’


अर्थात हे पार्वती! मेरे विचार में तो श्रीराम जी की कृपा से तुम्हारे मन में स्वपन में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम इत्यादि कुछ भी नहीं है। फिर भी तुमने इसीलिए फिर वही शंका की है, कि इस प्रसंग को कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा।


क्रमशः


- सुखी भारती

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