By सुखी भारती | Dec 11, 2025
क्या हम जानते हैं, कि पशुओं को पशु क्यों कहा जाता है? पशु का अर्थ होता है, जो पाश अर्थात बँधन में बँधा होता है। किंतु मानव भी तो पाँच विकारों के पाश में बँध कर पशु की मानिंद ही आचरण करता है। कबीर जी कहते हैं-
‘करतूत पशु की मानस जात।
लोक पचारा करे दिन रात।।’
नारद मुनि जी भी काम बाण लगने के पश्चात पशुवत् आचरण में ही विचरण कर रहे थे। बंदर जैसे मदारी के इशारों पर गली-गली नाचता है, ठीक वैसा ही नाच नारद मुनि जी द्वारा भी हो रहा था। वे काम के साथ साथ अमरता व देवलोकों के पदों की लालसा में ऐसे फँस गये थे, जैसे गजराज किसी दलदल में फँस जाता है।
नारद मुनि ने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए अंततः यही निर्णय लिया, कि बजाये इसके स्वयं बैकुण्ठ में जाया जाये, क्यों न श्रीहरि को ही यहाँ बुला लिया जाये?
‘बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला।
प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला।।
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने।
होइहि काजु हिएँ हरषाने।।’
नारद मुनि जी द्वारा आर्त भाव से अनेकों स्तुतियाँ, विनतियाँ व महिमा गान किये गए। तब कहीं जाकर श्रीहरि नारद मुनि के समक्ष प्रगट हुए। नारद मुनि के नयनों में एक अलग ही प्रकार की चमक जग गई। क्योंकि मुनि ने सोचा, कि अब मेरा काम बस बना ही समझो। प्रभु के यहाँ प्रगट होने में ही विलम्भ था। अब तो मेरा कार्य मानों चुटकियों में ही हा जाना है।
मुनि शतप्रतिशत आश्वस्त थे, कि अब तो विश्वमोहिनी मेरी ही है। किंतु अभी स्वपन काल से बाहर आकर, वास्तविक्ता में कार्य करने का समय था। इसलिए मुनि ने बड़े आर्त भाव से प्रभु से सब कथा कह सुनाई। हालाँकि मुनि को यह भाव ही न रहा, कि मैं जो सुना रहा हुँ, वह कथा नहीं, अपितु व्यथा है। कथा तो तब होती है, भगवान की बात कही जाये। यहाँ तो मुनि अपने हारे मन की व्यथा सुना रहे थे। मुनि ने हाथ जोड़ते कहा, कि हे स्वामी! कृपा कीजिए! आप मेरे सयाहक बनिए। हे प्रभु! आप मुझे अपना रुप दे दीजिए। क्योंकि कोई अन्य मार्ग से मैं विश्वमोहिनी को नहीं पा सकता-
‘अति आरति कहि कथा सुनाई।
करहु कृपा करि होहु सहाई।।
आपन रुप देहु प्रभुा मोहीं।
आन भाँति नहिं पावौं ओही।।’
नारद मुनि की बात सुन कर श्रीहरि निश्चित ही सोच में पड़ गए होंगे, कि पगले! मैं तो कब से तुम्हें अपना रुप दे चुका हुँ। तुम संत की सबसे बड़ी अवस्था में थे। भला तुमने कैसे सोच लिआ, कि मेरे और संत के रुप में कोई भिन्नता है? कोई साधारण मानव अगर संत बनता है, तो वे मेरा ही रुप होता है। तुम तो कब से मेरा रुप धारण किये बैठे हो।
किंतु आज मुझे आश्चर्य है, कि तुमने कैसे मेरे ईश्वरीय रुप को त्याग दिया। और व्याकुल हो, कि अपने उस दिव्य रुप को नकार कर, केवल सौंदर्य की खाल लपेटना चाहते हो? जो सौंदर्य आध्यात्म से सींचा गया हो, वह कहीं श्रेष्ठ है, बजाये इसके कि इस नश्वर चर्म से निर्मित हो। दैहिक सुंदरता ने किसे पार लगाया है आज तक? संसार सागर को लाँघना है, तो वही मार्ग श्रेष्ठ था मुनिवर, जो साधना पथ के नाम से जाना जाता है।
खैर! अब जब तुमने हमें बुला ही लिया है, तो हम यहाँ हाथ पे हाथ रखकर बैठने तो आये नहीं। कुछ न कुछ तो हम करेंगे ही। तुम हमें शीघ्र अति शीघ्र करने को विवश कर रहे हो। तो हमें भी विलम्भ करने में कोई रुचि नहीं है। किंतु हमें पहले देखने तो दो, कि हमें करना क्या है? तुम तो अड़े हो, कि हम अपना रुप दे दें। किंतु तुम्हें कौन सा अपना रुप दें? संपूर्ण सृष्टि ही जब हमारा प्रतिबिंब है, तो इस सृष्टि में से तुम्हें अपना कौन सा रुप दूँ, पहले हमें यह सोचने दो।
भगवान विष्णु ने थोड़ा मंथन करने के पश्चात कहा, कि आप स्वयं को दृढ भाव से आश्वस्त करलें, कि जिसमें आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता।
नारद मुनि ने जैसे ही श्रीहरि के वचन सुनें, तो वे सोचने लगे, कि मेरी सफलता पर प्रभु ने भी मोहर लगा दी। मेरा परम हित भला और क्या होगा। मैं विश्वमोहिनी को वरण करने के पश्चात अमर हो जाऊँगा, समस्त लोकों का मैं स्वामी होऊँगा। भला इससे बढ़कर मेरा परम हित और क्या होगा? निश्चित ही विश्समोहिनी अब मेरी हुई। बस मेरे गले में वरमाला डालनी ही शेष है। बाकी भविष्य तो निर्धारित हो ही गया है।
नारद मुनि ने अति उत्साह में श्रीहरि के आधे अधूरे शब्द ही सुने थे। किंतु श्रीहरि ने आगे भी कुछ शब्द चौपाई में कहे हैं। जिन शब्दों में एक चेतावनी भी थी, और परामर्श भी। क्या कहा था श्रीहरि ने जानेंगे अगले अंक में।
क्रमशः
- सुखी भारती