बच्चे क्या पढ़ें यह शिक्षाविद् तय करेंगे या राजनीतिक दल?

By कौशलेंद्र प्रपन्न | Jun 07, 2018

बच्चों को क्या और कितना पढ़ना चाहिए यह राजनीतिक दल तय करेंगे या शिक्षविदों के ऊपर यह जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए। यह एक ऐसा मसला है जिस पर राजनीतिक धड़ों और अकादमिक समूहों के बीच हमेशा ही तनातनी रही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना होगा कि मतभिन्नताएं कितनी भी हों। हमारी चिंता के केंद्र में बच्चे का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। वह किसी भी कीमत पर निभाने के प्रयास करने चाहिए। पूर्व की सरकारें व राजनीतिक दलों ने शिक्षा में बदलाव परिवर्तन के नाम जो भी कदम उठाए हैं उसका विश्लेषण राजनीतिक कम अकादमिक स्तर पर होना चाहिए।

हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर ने कहा है कि बच्चों पर करिकूलम के बोझ को कम करना होगा। हमारे बच्चों पर करिकूलम का बोझ है। बच्चों का विकास अवरूद्ध होता है। 1990 के आस−पास या इससे थोड़ा पीछे जाएं तो प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद् प्रो. यशपाल ने एजूकेशन बिदाउट बर्डेन की बात की थी। यानी शिक्षा बिना बोझ के की वकालत न केवल यशपाल ने नीति के स्तर पर की बल्कि पाठ्यपुस्तकों के निर्माण और पाठ्यचर्याओं में भी रद्दोबदल की मांग की थी। यहां हमें अकादमिक स्तर पर समझना होगा कि जहां प्रो. यशपाल बस्ते के बोझ को कम करने की मांग कर रहे थे वहीं वर्तमान सरकार करिकूलम के बोझ को कम करने की बात कर रही है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के हवाले से कहा तो यह भी जा रहा है कि इस नीति में बच्चों की परीक्षा प्रणाली को भी बदला जाएगा। यानी कक्षा पांचवीं और आठवीं में फेल की प्रक्रिया को बदला जाएगा।

 

शिक्षा में परिवर्तन न तो कोई नई बात है और न ही अपूर्व घटना। बल्कि शिक्षा का स्वरूप हमेशा ही बदलता रहा है। शिक्षा का परिप्रेक्ष्य समय और कालानुसार बदलता रहा है। लेकिन जो चीज नहीं बदली है वह है शिक्षा का उद्देश्य। किसी भी कालखंड़ पर नज़र डालें तो शिक्षा का मकसद एक बेहतर इंसान बनाना है। बच्चों को भविष्य के जीवन की तैयारी के रूप में भी शिक्षा के सरोकारों को रेखांकित किया जाता रहा है। 

शिक्षा में करिकूलम, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकें तो सहायिका की भूमिका निभाती हैं। ये सहगामी प्रक्रियाएं जिन्हें हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। हम बस इतना कर सकते हैं कि इन सहभागी क्रियाओं को कैसे बेहतर तरीके से इस्तमाल करें ताकि शिक्षा के वृहत्तर मकसद को हासिल किया जा सके।

 

आज की तारीख में शिक्षा के उद्देश्य में यदि कोई बड़ी तक़्सीम हुई है तो वह यही कि हमारा फोकस बदल चुका है। हम पूरी तरह से शिक्षा को नंबरों के पहाड़ पर चढ़ा चुके हैं। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज की तारीख में अंकों के मायने हमारे बच्चों की जिंदगी की दिशाएं तय करने लगी हैं। हालांकि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड जिस प्रकार से नंबरों को बढ़ा−चढ़ाकर परिणाम घोषित कर रही है इस बाबत वह इस ग़लती को स्वीकार भी कर चुकी है।

 

वर्तमान में एमएचआरडी का मानना है कि सरकार ने पहली बार रेखांकित किया है कि बच्चों का सिलेबस जटिल है। इसे हल्का करना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकारें जो अब तक रही हैं क्या उनके संज्ञान में ऐसी बड़ी घटना कभी आई ही नहीं या उन सरकारों की प्राथमिकता सूची में शिक्षा के इतने बड़े बोझ को नज़रअंदाज़ ही किया गया। दरअसल जब जब सरकारें सत्ता में आई हैं उन्होंने शिक्षा को अपना एजेंड़ा ज़रूर बनाया है। बस अंतर इतना रहा कि किसी ने बेहतरी के लिए कदम उठाए तो किसी ने अपने एजेंडा को पूरा करने के लिए शिक्षा का इस्तेमाल किया।

 

-कौशलेंद्र प्रपन्न

 

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