Prabhasakshi NewsRoom: भीड़ प्रबंधन के लिए स्थायी नीति क्यों नहीं बनाई जाती? क्यों हर बार हादसे के बाद सिर्फ जाँच आयोग बनाकर जिम्मेदारी टाल दी जाती है?

By नीरज कुमार दुबे | Sep 29, 2025

करूर में अभिनेता से नेता बने विजय की रैली के दौरान हुई भगदड़ ने तमिलनाडु और पूरे देश को झकझोर दिया है। मरने वालों की संख्या 41 तक पहुँच चुकी है और 60 से अधिक लोग अस्पतालों में इलाजरत हैं। मृतकों में बच्चे, महिलाएँ और नवविवाहित जोड़े भी शामिल हैं। यह घटना केवल एक दुर्घटना भर नहीं है, बल्कि एक गहरा सवाल खड़ा करती है कि आखिर क्यों भारत में बार-बार होने वाली भगदड़ों से न तो सरकारें और न ही आयोजक कोई सबक लेते हैं।


रिपोर्टों से स्पष्ट है कि यह हादसा महज़ भीड़ के अचानक बढ़ जाने का परिणाम नहीं था। आयोजन स्थल पर पानी और भोजन की कमी थी, तपती धूप में हजारों लोग इंतजार कर रहे थे, और विजय का देर से पहुँचना बेचैनी बढ़ाता गया। इसी बीच जनरेटर फेल होने से अंधेरा छा गया और अफरातफरी मच गई। लोग विजय की एक झलक पाने को आगे बढ़े, बच्चे और महिलाएँ भीड़ में दब गए और भगदड़ ने भयावह रूप ले लिया।

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तमिलनाडु पुलिस की तैनाती को लेकर भी गंभीर सवाल उठते हैं। विजय की पार्टी टीवीके के मुताबिक अन्य जिलों की रैलियों में जहाँ 400–600 पुलिसकर्मी लगाए गए थे, वहीं करूर में संख्या पर्याप्त नहीं थी। भीड़-प्रबंधन और आपातकालीन इंतजाम न होने से यह त्रासदी टाली नहीं जा सकी।


देखा जाये तो यह पहली बार नहीं है जब देश में किसी धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक आयोजन में भीड़ ने जानें ली हों। हर बार हालात लगभग वही रहे यानि भीड़ ज्यादा, व्यवस्था कमज़ोर और लापरवाही घातक। सवाल उठता है कि क्या हमारे पास भीड़ प्रबंधन के लिए कोई स्थायी नीति है या हर हादसे के बाद सिर्फ जाँच आयोग बनाकर जिम्मेदारी टाल दी जाती है?


अभिनेता विजय तमिल सिनेमा में एक सुपरस्टार हैं और हाल ही में राजनीति में उतरकर तमिलगामन (TVK) पार्टी बनाई है। उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस रैली में उमड़ी भीड़ से लगाया जा सकता है। लेकिन अब यही लोकप्रियता उनके लिए चुनौती बन सकती है। विरोधी पार्टियाँ— खासकर एआईएडीएमके और डीएमके, इसे उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता और प्रशासनिक विफलता से जोड़ रही हैं।


हाालंकि विजय ने तुरंत ही मुआवज़े का ऐलान किया और सीबीआई जाँच की माँग उठाई, लेकिन क्या इतना पर्याप्त है? उनके समर्थक इस घटना को "राजनीतिक साज़िश" कह रहे हैं, पर आम जनता के लिए यह तर्क संतोषजनक नहीं होगा। यदि यह धारणा बनी कि विजय की रैली में जान गँवानी पड़ी, तो उनकी छवि एक करिश्माई नेता की बजाय गैरजिम्मेदार आयोजक की बन सकती है।


हम आपको बता दें कि तमिलनाडु में अगले विधानसभा चुनाव से पहले यह घटना चुनावी समीकरण बदल सकती है। विजय की पार्टी टीवीके युवाओं और शहरी मतदाताओं में तेजी से पकड़ बना रही थी। करूर की त्रासदी से उनका अभियान धीमा पड़ सकता है। विपक्ष इसका राजनीतिक इस्तेमाल करेगा और सरकार (डीएमके) जाँच रिपोर्ट का सहारा लेकर विजय को घेर सकती है।


हालाँकि करुणा और संवेदना भी राजनीति का हिस्सा होती है। यदि विजय सही तरह से पीड़ित परिवारों के साथ खड़े होते हैं और व्यवस्था सुधार के ठोस सुझाव देते हैं, तो वे "जिम्मेदार नेता" की छवि बना सकते हैं। लेकिन यदि मामला सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप में उलझा, तो यह घटना उनके कॅरियर की सबसे बड़ी बाधा बन सकती है।


देखा जाये तो करूर की भगदड़ केवल तमिलनाडु की त्रासदी नहीं है, यह पूरे देश के लिए चेतावनी है। जब तक भीड़ प्रबंधन को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी। सरकारें और आयोजक यह मानकर नहीं चल सकते कि "दुर्घटना टल सकती थी"; उन्हें मानना होगा कि दुर्घटना टालनी ही चाहिए।


बहरहाल, विजय के लिए यह क्षण उनकी राजनीतिक परिपक्वता की परीक्षा है। क्या वह इस त्रासदी से सीखकर संवेदनशील और उत्तरदायी नेता साबित होंगे या यह हादसा उनके उभरते राजनीतिक सितारे को धूमिल कर देगा? और सबसे अहम, क्या प्रशासन और सरकारें इस बार सचमुच सबक लेंगी, या फिर किसी अगली रैली, किसी अगले मंदिर मेले, या किसी अगले चुनावी मंच पर एक और करूर दोहराया जाएगा?

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