स्विस बैंकों में भारतीयों की जमाराशि कालाधन है या सफेद?

By कमलेश पांडे | Jul 05, 2018

जब कालेधन पर चोट के बाद भारतीयों द्वारा सिंगापुर और हांगकांग जैसे फाइनेंशियल हब की ओर रुख किया गया हो, तब स्विस बैंकों में भारतीयों का जमा धन महज एक साल में ही डेढ़ गुना बढ़ जाना कई सवाल खड़े करता है। ऐसा इसलिए भी कि स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा धनराशि में वर्ष 2014 से 2016 तक लगातार गिरावट दर्ज की गई थी जो 2016 में 45 प्रतिशत तक घटा था। लेकिन 2017 में जिस तरह से इसमें 50.2 प्रतिशत का अप्रत्याशित उछाल आया, उससे लोगों के कान खड़े हो गए हैं।

 

हालांकि वित्त मंत्री पीयूष गोयल की मानें तो स्पष्ट है कि स्विट्जरलैंड के बैंकों में भारतीयों का कितना कालाधन जमा है, इसका पता अगले साल तक चलेगा। क्योंकि तब तक स्विस बैंकों की ओर से सरकार को आंकड़े मिल जाएंगे जिसके बाद कार्रवाई की जाएगी। दरअसल, सरकार के पास सभी जानकारियां हैं और यदि कोई भी व्यक्ति दोषी पाया जाएगा तो उसके खिलाफ वे कार्रवाई करेंगे। वर्तमान में किसी भी व्यक्ति को देश से बाहर रुपए जमा करने का साहस नहीं है। इसलिए जनमानस को आशंका है कि हो न हो यह रकम नेताओं, नौकरशाहों, सुप्रसिद्ध शख्सियतों और नामचीन कारोबारियों की होगी जिनके बारे में जांच अधिकारियों का रुख प्रायः नरम या टालमटोल वाला होता है, क्योंकि बहुतेरे टेबल फ्रेंड भी होते हैं।

 

इसलिए चर्चा आम है कि कालेधन पर समग्र चोट की हुई तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद भी यदि ऐसा सम्भव हुआ है, तो स्पष्ट है कि सरकार की प्रशासनिक कोशिशों में कहीं न कहीं कोई बड़ी चूक अवश्य रह गई होगी, जिसका फायदा कर चोरों को मिल रहा है। क्योंकि कालेधन पर गठित एसआईटी के अलावा वित्तीय खुफिया यूनिट, आयकर विभाग, ईडी समेत तमाम एजेंसियां भी आपसी तालमेल से कालेधन के खिलाफ लगातार कार्रवाई कर रही हैं। लेकिन हकीकत क्या है, इस बात की चुगली स्विट्जरलैंड नेशनल बैंक (एसएनबी) के ताजा आंकड़े कर रहे हैं।

 

दरअसल, ये आंकड़े तब जारी किए गए हैं जब कुछ महीने पहले ही भारत-स्विट्जरलैंड के बीच सूचनाओं के स्वतः आदान-प्रदान की व्यवस्था लागू की गई है। लिहाजा, सीधा सवाल है कि स्विस बैंकों में भारतीयों का जमाधन सिर्फ एक वर्ष 2017 में ही 50.2 प्रतिशत कैसे बढ़ा? क्योंकि इससे पूर्व वर्ष 2004 में 56 प्रतिशत और 2013 में 43 प्रतिशत की अप्रत्याशित वृद्धि हुई दर्ज थी, जबकि 2011 में मात्र 12 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी दर्ज हुई थी।

 

जानकारों का कहना है कि सिक्युरिटीज और अन्य मदों में स्विस बैंकों में जमा भारतीय रकम अरबों रुपए में हुआ करती थी, लेकिन भारतीय नियामकों की सख्ती के बाद उसमें गिरावट आनी शुरू हुई, जो वर्ष 2006 में घटकर महज 23,000 करोड़ रुपए रह गई। लेकिन बीते एक दशक में ही इसमें 90 प्रतिशत की गिरावट आई है जिससे यह महज 7000 करोड़ रुपए तक सिमट चुकी है। हालांकि ताजा बढ़त जारी रही तो अगले कुछ सालों में स्थिति फिर से पुराना रुख भी अख्तियार कर सकती है।

 

खास बात यह कि 2004 में हुई भारी बढ़ोत्तरी के दौरान भी कुछ महीनों तक बीजेपी की ही सरकार केंद्र में थी, और 2017 में भी उसी की सरकार रही, जो अब भी सत्तारूढ़ है, जबकि 2013 में कांग्रेस की सरकार थी। इसलिए आशंका है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कालाधन के खिलाफ सक्रिय अधिकारी वर्ग छोटी-छोटी मछलियों को तो फंसा रहा है, लेकिन निज स्वार्थ वश बड़ी-बड़ी मछलियों को छुट्टा छोड़ दे रहा है जिसके ताजा परिणाम और प्रथमदृष्टया साक्ष्य, दोनों सामने नजर आए हैं।

 

यह बात दीगर है कि महज स्विस बैंक में रकम जमा होने भर से ही इसे कालाधन नहीं करार दिया जा सकता। इसलिए इसकी व्यापक जांच-पड़ताल तो होनी ही चाहिए। इसके अलावा, सिंगापुर और हांगकांग जैसे फाइनेंशियल हब में भी भारतीयों के कितने रुपए जमा हैं, इस बात के भी आंकड़े लोगों से साझा किए जाने की जरूरत है ताकि कालेधन से जुड़ी सच्चाई स्वतः ही सामने आ जाए। समझा जा रहा है कि स्विस बैंकों में सूचना साझा करने के दबाव के बाद कालेधन के जमाखोर कर चोरी के अन्य पनाहगाहों की ओर रुख कर रहे हैं और सिंगापुर एवं हांगकांग जैसे देशों के मुकाबले भारतीयों की जमा रकम स्विस बैंकों में अब काफी कम है, जिसकी उचित छानबीन देश की आर्थिक सेहत के लिए जरूरी है।

 

दरअसल, संदिग्ध लेनदेन की सूचना पर स्विट्जरलैंड ने भारत को उसके नागरिकों के खाते के बारे में जानकारी देना तो शुरू कर दिया है। इसलिए स्विस बैंकों में भारतीयों द्वारा जमा की गई बड़ी रकम का ताजा आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है, क्योंकि भारत पिछले कुछ वर्षों से दुनियाभर में भारतीयों द्वारा छुपाए गए कालेधन को वापस लाने की लगातार कोशिशें कर रहा है। यही वजह है कि भारत और कई अन्य देशों के द्वारा घपले-घोटालों के साक्ष्य मुहैया करवाने के बाद स्विट्जरलैंड ने विदेशी ग्राहकों की अद्यतन जानकारी देनी शुरू कर दी है जिसके तहत ताजा जानकारी मिली है। लेकिन उछाल वाली बात तो कुछ और ही इशारे कर रही है।

 

लिहाजा, इस पर भी कतिपय सवाल उठना लाजिमी है, क्योंकि ताजा आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। सीधा सवाल है कि लगातार तीन वर्षों की लगातार गिरावट के बाद यदि पिछले साल 2017 में भारतीयों की जमा राशि में जो अप्रत्याशित उछाल पाया/देखा गया, उसका मौलिक कारण क्या है? क्या कालेधन पर किए गए विभिन्न तरह के कुठारघातों का भी कोई असर ऐसे लोगों की मानसिकता पर नहीं पड़ा है, या फिर बात कुछ और है जिसे समझना हर नागरिक के लिए जरूरी है।

 

यक्ष प्रश्न है कि जब देश के आम नागरिकों की अर्थव्यवस्था नोटबन्दी और जीएसटी के दुष्प्रभाव से तबाह हो चुकी है, तब वर्ष 2016 में स्विस बैंकों में जमा धनराशि जो घटकर महज 4500 करोड़ रुपए रह गई थी, वो 2017 में अचानक बढ़कर 7000 करोड़ रुपए कैसे हो गई? क्या नोटबन्दी के दौरान हुई परोक्ष लूट-खसोट और जीएसटी से भी बच निकलने के लिए ईजाद किए गए चोर दरवाजे से मिले अप्रत्याशित लाभ से ऐसा हुआ है, या फिर कुछ अन्य कारक भी इस स्थिति के लिए जिम्मेवार हैं।

 

अमूमन, यह बदलते वक्त का तकाजा है कि कालाधन प्रवाह और उससे निबटने के सरकारी तौर-तरीकों पर एक बार फिर से तल्ख सवाल उठने लगे हैं, क्योंकि 2016 की नोटबन्दी और 2017 की जीएसटी जैसे सख्त वित्तीय उपायों को लागू करने के बाद भी जब यह हाल है, तो पहले क्या स्थिति रही होगी सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। आर्थिक मामलों के जानकार भी मानते हैं कि अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने और कालाधन पर रोक लगाने के लिए केवल सुधारात्मक कदमों से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि इसके लिए बड़े रोकथामकारी उपाय लागू करने ही होंगे।

 

बेशक, स्विस बैंकों में भारतीयों का जमाधन बढ़ना दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, लेकिन यह कितना काला है और कितना सफेद, यह सामने नहीं आया है जिसे लाने के वास्ते सरकार को अपनी गतिविधि तेज करनी चाहिए। देखा जाय तो पहले जब देश में आयकर के नियम कड़े थे तब उससे बचने के लिए स्विस बैंकों में बड़े पैमाने पर धन जमा होता था, लेकिन अब आयकर के नियम बेहद आसान हो गए हैं जिससे बचत हेतु वहां धन जमा करने का कोई मतलब नहीं रह गया है। लिहाजा, स्विस बैंकों में जमा बढ़ने के और भी कई कारण हो सकते हैं जो निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चल पाएंगे।

 

आमतौर पर माना जा रहा है कि जब तक धनशोधन के कानून में सुधार नहीं होगा, तबतक यह स्थिति बनी रहेगी। दरअसल, नोटबन्दी एक कदम था, लेकिन वह एक बार का सुधारात्मक कदम था। वह किसी भी नजरिए से रोकथाम करने वाला कदम नहीं था। दरअसल, आयात-निर्यात के जरिए पैसा बड़ी मात्रा में देश के भीतर आता है और जाता है जिस पर बारीकीपूर्वक ध्यान देना होगा। शेयर बाजार पर भी नजर रखनी होगी। इसके अलावा, चुनाव सुधार करना होगा और सरकारी खर्च पर चुनाव करना भी जरूरी है। बेशक, चुनाव खर्च की एक सीमा तय की गई है जिसका पालन प्रायः सभी उम्मीदवार कर रहे हैं, लेकिन सबको पता है कि चुनाव में कितना पैसा खर्च होता है और यह कहां से आता है। शायद इसी से कालाधन बढ़ता है जिसे सरकार की एजेंसी ही रोक सकती है, हम-आप नहीं।

 

शायद यही वजह है कि टैक्स हैवेन देशों में बेईमान भारतीयों के लिए कई और चोर दरवाजे भी खुल चुके हैं जिससे कर चोरों की चांदी ही चांदी है। इसलिए उनकी वास्तविक संख्या और अनुमानित राशि का महज अनुमान ही लगाया जा सकता है, लेकिन भरोसेमंद आंकड़े कैसे लोगों तक पहुंचे, यह देखना और उपाय करना सरकार का काम है जिसमें वह अब भी पूरी तरह से सफल प्रतीत नहीं हो पा रही है।

 

-कमलेश पांडे

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