विश्व मानवीय दिवसः अफगान को चाहिए मानवता का प्रकाश

By ललित गर्ग | Aug 19, 2021

प्रतिवर्ष 19 अगस्त को मनाया जाने वाला विश्व मानवीय दिवस इस वर्ष अफगानिस्तान में हुई तालीबानी अमानवीयता, क्रूरता एवं बर्बरता की घटनाओं से जुड़े अनेक प्रश्नों को खड़ा करती है। अफगानिस्तान का लगभग अठारह वर्षों तक अमेरिकी एवं मित्र देशों के साये में जद्दोजहद के बाद फिर अंधेरे सायों एवं अमानवीयता के शिकंजे में चले जाना पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक तो है ही, मानवीयता पर कठोर हमला भी है। कथित इस्लामी सत्ता की स्थापना के लिए तालिबान जो कर रहा है, उसकी दुनिया में शायद ही किसी कोने में प्रशंसा होगी। दुनिया स्तब्ध है और भारत जैसे देश तो कुछ ज्यादा ही आहत हैं। बड़ा प्रश्न है कि अठारह वर्षों तक इस मुल्क में तालिबानों से मुकाबला करने के बाद अमेरिकी फौजों ने इस देश का साथ क्यों छोड़ा? प्रश्न यह भी है कि दुनिया में मानवता की रक्षा की वकालत करने वाली महाशक्तियां क्या सोचकर इस अवसर पर चुप्पी साधे रही? विश्वभर में मानवीय कार्यों एवं मूल्यों को प्रोत्साहन देने के लिये मनाये जाने वाले विश्व मानवता दिवस की क्या प्रासंगिकता एवं उपयोगिता है? 

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आज समूची दुनिया में मानवीय चेतना के साथ खिलवाड़ करने वाली त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण परिस्थितियां सर्वत्र परिव्याप्त हैैं-जिनमें जबरन दूसरे राष्ट्रों पर कब्जा करने एवं आतंकवाद सबसे प्रमुख है। जातिवाद, अस्पृश्यता, सांप्रदायिकता, महंगाई, गरीबी, भिखमंगी, विलासिता, अमीरी, अनुशासनहीनता, पदलिप्सा, महत्वाकांक्षा, उत्पीड़न और चरित्रहीनता आदि अनेक परिस्थितियों से मानवता पीड़ित एवं प्रभावित है। उक्त समस्याएं किसी युग में अलग-अलग समय में प्रभावशाली रहीं होंगी, इस युग में इनका आक्रमण समग्रता से हो रहा है। आक्रमण जब समग्रता से होता है तो उसका समाधान भी समग्रता से ही खोजना पड़ता है। हिंसक परिस्थितियां जिस समय प्रबल हों, अहिंसा का मूल्य स्वयं बढ़ जाता है। महात्मा गांधी ने कहा है कि आपको मानवता में विश्वास खोना नहीं चाहिए। मानवता एक महासागर है। यदि महासागर की कुछ बूंदें गंदी हैं, तो भी महासागर गंदा नहीं होता है।’ ऐसे ही विश्वास को जागृत करने के लिये ही विश्व मानवता दिवस की आयोजना की गई है। लेकिन अफगानिस्तान में बूझ गया मानवता का दीप कब प्रज्ज्वलित होगा, इस प्रश्न पर इस दिवस पर गंभीर मंथन होना चाहिए।  


भारत सदैव मानवीय मूल्यों का हिमायती एवं रक्षक रहा है। अफगानिस्तान कभी भारत वर्ष का हिस्सा रहा था, इस आधार पर नहीं, पर मानवीयता के आधार पर उसने वहां तन-मन-धन के विगत कम से कम बीस वर्षों में भारी निवेश किया। एक उदारवादी एवं मानवतावादी ताकत के रूप में न जाने कितनी विकास परियोजनाओं में भारत की वहां हिस्सेदारी रही। लगभग तीन हजार भारतीय अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में लगे थे। एक अनुमान के अनुसार, भारत ने वहां 2.3 अरब डॉलर के सहायता कार्यक्रम चला रखे हैं, अब उनका क्या होगा? भारत और भारतीयों द्वारा वहां मानवीय सहायता, शिक्षा, विकास, निर्माण और ऊर्जा क्षेत्र में किए गए निवेश का क्या होगा? आम अफगानियों के मन में भारत के प्रति अच्छे भाव हैं, लेकिन तालिबान का रुख तल्ख ही रहा है, वे भारतीयों को सम्मान की नजर से नहीं देखते।

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हाल ही में भारत की पहल पर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अफगानिस्तान के बचाव के लिए विशेष बैठक हुई थी, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला है। अभी भारत के पास परिषद की अध्यक्षता है, क्या उसे नए सिरे से पहल नहीं करनी चाहिए? तालिबान पर किसी को भरोसा नहीं है और अभी सभी का ध्यान अपने-अपने नागरिकों को बचाने पर है, लेकिन आने वाले दिनों में व्यवस्थित ढंग से सोचना होगा कि ताकत और पैसे के भूखे आतंकियों के खिलाफ क्या किया जाए? यह भी सत्य है कि तालिबान में भी सभी आतंकी नहीं होंगे, कुछ अपेक्षाकृत सभ्य भी होंगे, जो अपने देश की बदनामी नहीं चाहेंगे। ऐसे लोगों को मानवता की रक्षा की कोशिश करनी चाहिए। अफगानी युवाओं को बंदूकों के सहारे ही जिंदगी न काटनी पडे़। महिलाओं की तौहीन एवं अस्मत न लुटी जाये। अफगानिस्तान दुनिया में नफरत और हिंसा बढ़ाने की वजह न बने। कुल मिलाकर, मानवीयता, उदारता और समझ की खिड़की खुली रहनी चाहिए, ताकि इंसानियत शर्मसार न हो, इसके लिये समूची दुनिया को व्यापक प्रयत्न करने होंगे।


अफगानिस्तान में अमानवीयता का नंगा नाच हुआ है, वहां अराजकता एवं बर्बरता की कालिमा छा गयी है, अब वहां मजहब के चश्मे से विभिन्न देशों के साथ अपने संबंध तय करने की कोशिशें होंगी, महिलायें-बच्चे तालिबानी क्रूरता के शिकार होंगे, इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों के आभास मात्र से भारतीय ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों के लोग भी अफगानिस्तान से भाग रहे हैं और तालिबान में इतनी सभ्यता भी नहीं कि वह लोगों को रोकने के लिए कोई अपील करे। संयुक्त अरब अमीरात भी मजहबी आधार वाला देश है, लेकिन उसने कैसे दुनिया भर के अच्छे और योग्य लोगों को जुटाकर अपने यहां आदर्श समाज जुटा रखा है, लेकिन अफगानिस्तान में जो इस्लामी खलीफा शासन स्थापित होने वाला है, क्या वह मानव मूल्यों पर आधारित होगा? तालिबान भारत-विरोधी है, उसने विगत दशकों में एकाधिक आतंकी हमले सीधे भारतीय दूतावास पर किए हैं। कंधार विमान अपहरण के समय तालिबान की भूमिका भारत देख चुका है। क्या दुनिया के आतंकवादियों को अफगानिस्तान में सुरक्षित ठिकाना मिल जाएगा? क्या ये पैसे लेकर सभ्य देशों को परेशान करने और निशाना बनाने का ही काम करेंगे? जो देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तालिबान की पीठ पीछे खड़े हैं, उनकी भी मानवीय जिम्मेदारी बनती है कि वे दुनिया को अशांति, हिंसा, साम्प्रदायिक कट्टरता एवं आतंकवाद की ओर अग्रसर करने वाली इस कालिमा को धोये।

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किसी भी युग में हो रहे नैतिक पतन को रोककर मानवीय चेतना के ऊर्ध्वारोहण के लिए अमानवतावादी दृष्टिकोण का निरसन आवश्यक होता है। सामाजिक मूल्य-परिवर्तन और मानदंडों की प्रस्थापना से लोकचेतना में परिष्कार हो सकता है। अफगान के ताजा घटनाक्रम के सन्दर्भ में विश्व मानवता दिवस की उपयोगिता बढ़-चढ़ कर सामने आ रही है। इसलिये ऑड्रे हेपबर्न ने कभी कहा था कि जब तक दुनिया अस्तित्व में है, अन्याय और अत्याचार होते रहेंगे। जो लोग सक्षम और समर्थ हैं, उनकी जिम्मेदारी अधिक है कि वे लोग अपने से निर्बल लोगों को भी स्नेह दें। 


अफगान में हिंसा, आतंक, स्वार्थ, साम्प्रदायिकता, व्यभिचार, शोषण और क्रूरता आदि के दंश मानवता को मूर्च्छित कर रहे हैं। इस मूर्च्छा को तोड़ने के लिए मानवीयता, अहिंसा और सह-अस्तित्व का मूल्य बढ़ाना होगा तथा सहयोग एवं संवेदना की पृष्ठभूमि पर स्वस्थ विश्व-संरचना की परिकल्पना को आकार देना होगा। दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता मानवता का आधार तत्व है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तरह दूसरे के अस्तित्व को अपनी सहमति नहीं देगा, तब तक वह उसके प्रति संवेदनशील नहीं बन पाएगा। जिस देश और संस्कृति में संवेदनशीलता का स्रोत सूख जाता है, वहाँ मानवीय रिश्तों में लिजलिजापन आने लगता है। अपने अंग-प्रत्यंग पर कहीं प्रहार होता है तो आत्मा आहत होती है। किंतु दूसरों के साथ ऐसी घटना घटित होने पर मन का एक कोना भी प्रभावित नहीं होता, यह संवेदनहीनता की निष्पत्ति है। इस संवेदनहीन मन की एक वजह सह-अस्तित्व का अभाव एवं कट्टर मजहबी भावना भी है। हमने तालिबानियों को इतने संवेदनशून्य होते हुए देखा हैं कि उन्हें औरों का दुःख-दर्द, अभाव, पीड़ा, औरों की आहें कहीं भी पिघलाती नहीं। वहां निर्दोष लोगों की हत्याएं, हिंसक वारदातें, आतंकी हमले, अपहरण, जिन्दा जला देने की रक्तरंजित सूचनाएं, महिलाओं के साथ व्यभिचार-बलात्कार की वारदातें पढ़ते-देखते रहे हैं, पर मन इतना आदती बन गया कि यूं लगता है कि यह सब तो रोजमर्रा का काम है। न आंखों में आंसू छलकें, न पीड़ित मानवता के साथ सहानुभूति जुड़ी। न सहयोग की भावना जागी और न नृशंस क्रूरता पर खून खौला। दुनिया की बड़ी शक्तियां सिर्फ स्वयं वर्चस्व को स्थापित करने की चिन्ता करती रही है। तभी औरों का शोषण करते हुए नहीं सकुचाते। दुनिया में संवेदना को जगाना होगा। 


मानवता को उपेक्षा का दंश भोगना पड़ा तो उसे मूर्च्छित होने से कोई बचा नहीं सकेगा। चिंता का मुख्य बिंदु यह नहीं है कि मूल्यों का हृ्रास हो रहा है। आज की सबसे बड़ी समस्या है-संवेदनहीनता की। आज अफगानी घटनाओं को देखते हुए अनुभव किया जा रहा है कि देश एवं दुनिया विकृतियों की शूली पर चढ़ा है। मनुष्य उच्चता का अनुभव तभी कर सकता है जब मानवीय मूल्यों का प्रकाश हो। मानवता का प्रकाश सार्वकालिक, सार्वदेशिक, और सार्वजनिक है। इस प्रकाश का अफगान में व्यापकता से विस्तार हो, इसके लिए तात्कालिक और बहुकालिक योजनाओं का निर्माण कर उनकी क्रियान्विति से प्रतिबद्ध होना होगा। यही विश्व मानवता दिवस मनाने को सार्थक बना सकता है।


- ललित गर्ग

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