अक्साई चिन से लेकर तिब्बत तक, सीमा समझौते को लेकर नेहरू के लापरवाह रवैया से भारत को हुए नुकसान का इन नई पुस्तकों ने किया खुलासा

By अभिनय आकाश | Aug 02, 2021

जब भी भारत और चीन के बीच सीमा पर टकराव होता है तो कुछ पुरानी बातें और तथ्य अपने आप ही याद आ जाते हैं। भारत के लोगों के मन में हमेशा ये पीड़ा रही है कि अगर चीन के मामले में भारत ने इतनी बड़ी-बड़ी गलतियां न कि होती तो आज चीन भारत को ऐसे आंखे दिखाने की स्थिति में होता ही नहीं। आपने स्कूल से लेकर अब तक कई किताबों में पढ़ा होगा कि चीन बड़ा शक्तिशाली देश है और इससे हम जीत नहीं सकते। ये एक के बाद एक की गई गलतियों का नतीजा था कि 1962 के युद्ध में हम उस चीन से बुरी तरह हारकर शर्मिंदा हुए जिस चीन की उस वक्त दुनिया में कोई खास हैसियत तक नहीं थी। एक पुरानी कहावत है कि अपने पाँव आप कुल्हाड़ी मारना, इस मुहावरे का आम जीवन में हम कई बार प्रयोग करते आए हैं। जिसका अर्थ होता है कि खुद ही संकट को निमंत्रण देना या खद की गलती लापरवाह रवैये से खुद को नुकसान पहुंचाना। इतिहास में अक्सर कई ऐसी गलती हो जाती हैं जिसका खामियाजा आगे चलकर हमें भुगतना पड़ता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन को लेकर इतिहास में कई सारी भूल की है और जिसका जिक्र समय-समय पर होता भी रहता है। चाहे वो सुरक्षा परिषद की सीट चीन को ऑफर करना हो या 60 के दशक में हिंदी-चीनी भाई-भाई के जुमले पर भरोसा करना हो। लेकिन नेहरू के लापरवाह रवैये और उससे भारत को हुए नुकसान को लेकर आई दो पुस्तकों ने कई अहम खुलासे किए हैं। पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले की दि लॉन्ग गेम: हाऊ चाइन नेगोशिएट्स विथ इंडिया’ और विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी अवतार सिंह भसीन की 'नेहरू, तिब्बत एंड चाइना'  भारत-चीन के रिश्तों पर आधारित पुस्तक में चीन को समझने में नेहरू की गलतियों और इससे भारत को हुए नुकसान का विस्तृत विश्लेषण किया है। 

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तिब्बत मामले में की ये भूल 

पूर्व विदेश सचिव, विजय गोखले ने द लॉन्ग गेम: हाउ चाइना नेगोशिएट्स विद इंडिया' में लिखा कि नेहरू ने ल्हासा में भारतीय दूतावास को एक कांसुलर पोस्ट में बदलने के झोउ एन लाई के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था। ऐसा करने से के दौरान उन्होंने चीनी समकक्ष से बात करने से पहले तथ्यों पर उचित शोध नहीं की और आंतरिक परामर्श के बिना ही ऐसा करने को राजी हो गए। दूसरी ओर चीन की बातचीत की रणनीति व्यवस्थित और व्यावहारिक थी। उन्होंने भारत को ग्यान्से और यादोंग से अपने सैन्य अनुरक्षकों को वापस लेने के लिए मनाया। इस तरह भारत ने 1953 में चीन पर एक बड़ी पकड़ को खो दिया। 

चीन को UNSC की सीट दिलाने में लगे थे नेहरू

आधिकारिक दस्तावेजों का उपयोग करते हुए भसीन की नवीनतम पुस्तक, "नेहरू, तिब्बत और चीन" में कहा गया है कि नेहरू चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता दिलाने के प्रति जितने उतावले थे, उतने ही ड्रैगन के साथ लगने वाली सीमाओं के प्रति बातचीत को लेकर लापरवाह थे। अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भसीन का दावा है कि भारत की स्वतंत्रता के शुरूआती वर्षों में भारत एशियाई एकजुटता प्राप्त करने के उद्देश्य के लिए चीन को लुभाने में लगा था। उस वक्त भारत चीन के प्रति खतरे से अंजान था। चीन में उस वक्त गृह युद्ध चल रहा था। एक तरफ च्यांग काई शेक की कुओमितांग पार्टी और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी थी। इस गृह युद्ध के बाद अमेरिका और बाकी देशों ने राष्ट्रवादी सरकार च्यांग काई शेक को मान्यता दे दी। बाद में माओ त्से तुंग भागकर ताइवान चले गए और वहां सरकार बना ली। उस दौर में नेहरू जी ने कहा कि चीन एक महान देश है और ये उसके लिए अच्छा नहीं होगा की वो शामिल न हो। नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता। आपको यहां पर एक बात और याद दिला दें कि वर्ष 1950 में ही सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले ही 7 नवंबर 1950 को देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। लेकिन अपने अंतरराष्ट्रीय आभामंडल और कूटनीतिक समझ के सामने पंडित नेहरू ने किसी कि भी सलाह को अहमियत नहीं दी।

अक्साई चिन की जगह नगा समस्या को महत्व 

1962 में करीब एक महीने के युद्ध में चीन से हम हार गए थे। हमारे करीब तीन हजार सैनिक शहीद हुए थे और भारत के करीब 43 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर चीन ने कब्जा कर लिया था। हमें रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अक्साई चीन को भी तब गंवाना पड़ा था। भसीन ने 1950 के दशक में अक्साई चिन में चीन के सड़क निर्माण अभ्यास के महत्व को लेकर भारत के नजरअंदाजगी का उल्लेख किया है। इसके बारे में बात करते हुए, वे कहते हैं, "अगर हम इस समय चीन के प्रति नेहरू के रवैये को देखें, तो वह इसके प्रति बहुत अधिक उदार दिखाई दिए। 28 जुलाई 1956 को रक्षा मंत्री केएन काटजू को एक नोट दिखाते हुए नेहरू ने कहा था कि चीन जो भी करे, लेकिन वो नगा समस्या को लेकर ज्यादा चिंतित हैं। चीन भी नेहरू के इस रवैये से भलि-भांति वाकिफ था। 

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