जानवरों को व्यक्ति के समान कानूनी दर्जा देने का फैसला ऐतिहासिक

By राकेश सैन | Jul 06, 2018

वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देने वाली भारतीय संस्कृति में पूरी पृथ्वी को एक परिवार माना गया है और इस परिवार में केवल मनुष्य ही शामिल नहीं बल्कि पशु-पक्षी जगत, जलचर, पातालवासी व वनस्पति को भी शामिल किया गया है। एक परिवार के सदस्य होने के नाते सभी को परस्पर प्रेम से रहने, सह-अस्तित्व के सिद्धांत का पालन करने, परस्पर जीवन के अधिकार का सम्मान करने के संदेश हमारे वेदों-शास्त्रों में जगह-जगह दिए गए हैं। यह विचार व संस्कार भारतीयों के भीतर गुणसूत्रों की तरह विद्यमान हैं और अब इस विचार को कानूनी मान्यता भी मिल गई है। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक अनोखे फैसले में राज्य में जानवरों को कानूनी तौर पर व्यक्ति या इकाई का दर्जा देने की घोषणा की है। न्यायालय ने कहा कि जानवरों का भी एक अलग व्यक्तित्व होता है। जीवित मनुष्य की तर्ज पर उनके पास भी अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व होते हैं। न्यायाधीश राजीव शर्मा और लोकपाल सिंह की पीठ ने जानवरों को यह विशेष दर्जा प्रदान करते हुए उनके खिलाफ क्रूरता रोकने के लिए भी कई निर्देश जारी किए। जानवरों की सुरक्षा और कल्याण के लिए कोर्ट ने उत्तराखंड के सभी निवासियों को सभी जानवरों का अभिभावक घोषित किया है और इनकी सुरक्षा-स्वास्थ्य, संरक्षण, सम्मान को लेकर कई तरह के निर्देश जारी किए हैं। बता दें कि उच्च न्यायालय पहले स्वर्गवासिनी गंगा नदी को भी जीवित मानव घोषित कर चुका है।

 

ईशोपनिषद् समस्त मानव जाति को निर्देश देते हुए कहता है- ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत्। अर्थात जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। अपने शास्त्र कहते हैं कि इस धरती पर सभी जीवों के अधिकार एक समान हैं, किसी को अधिकार नहीं है कि दूसरे का जीवन छीने या उसे कष्ट दे। अधिकार न तो इंसानी होते हैं ना पाश्विक वो सार्वभौमिक होते हैं। जानवरों के अधिकार, इंसानों के हक को चुनौती नहीं देते, वो सिर्फ शोषण का विरोध करते हैं। मौलिक अधिकार सबको बराबरी का है। जानवर बेजुबान होते हैं, मगर उन्हें भी जीने का अधिकार है। जैसे तमाम देश अपने अस्तित्व के लिए सजग हैं, वैसे ही जानवरों के भी इलाके हैं। हम ये सोच लें कि जानवरों के पास हमसे कम अक्ल है, इसलिए हम उनसे बदसलूकी कर सकते हैं, तो ये गलत है। इस तरह तो हम ये मान लेंगे कि जो अक्लमंद हैं वो कम अक्ल वालों का शोषण कर सकते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो इंसानों को जानवर के शोषण का अधिकार कैसे मिल सकता है? जिसने भी कुत्ते-बिल्लियों या दूसरे पालतू जानवरों के साथ समय बिताया होगा, उसे ये पता है कि जानवर भी तमाम जज्बात समझते हैं, महसूस करते हैं। हमें पता है कि जानवर भी अपने बच्चों की परवरिश करते, उन्हें सिखाते हैं। उन्हें भी खान-पान और भविष्य की चिंता होती है। उन्हें भी घर की याद सताती है, जानवरों को भी मौत से डर लगता है।

 

जानवरों का सम्मान करना, उनके अधिकारों को मानना हमारी जिम्मेदारी है। जानवर न तो संपत्ति हैं और न ही संसाधन। वो हमारी सेवा के लिए नहीं हैं, उनके अधिकार देने के लिए हमें ये समझना होगा कि हम उनके साथ बर्ताव कैसा करते हैं। लड़ाई मानवाधिकार और जानवरों के हक की नहीं है। ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम जानवरों का शोषण न करें। जब भी इंसानों और जानवरों के हित टकराते हैं तो हमें उन्हें बराबरी के तराजू पर तौलना होगा। अगर हमारी खाने की आदत बदलने से और हमारे शाकाहारी होने से जानवरों की जान बचती है तो हमें खाने की आदत बदलनी चाहिए। हम खाने के अधिकार के नाम पर करोड़ों जानवरों के साथ राक्षसों जैसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं। चिकन टिक्का खाते हुए कोई यह नहीं सोचता कि किस तरह कोई मासूम चूजा उसकी जीभ की बलिवेदी पर बलिदान हुआ होगा। फर व खालों से बने कोट, जैकेट, बूट, बैल्ट डालते हुए शायद ही कोई सोचता होगा कि इस चमड़े के लिए किस तरह बिलबिलाते हुए जिंदा जानवरों की चमड़ी उधेड़ी गई होगी। शर्म की बात तो यह है कि इंसान अपनी सुंदरता बढ़ाने, मर्दानगी को चार चांद लगाने तक के लिए जानवरों पर अत्याचार करता है। और तो और कई बिगड़े हुए परिवारों के अमीरजादे अपने शोक के लिए मूक पशुओं को शिकार के नाम पर बिना कारण उनकी हत्या करते हैं। 

 

जानवर कोई बहुत बड़े बड़े अधिकार नहीं मानते वो सिर्फ जीने का अधिकार और अत्याचारों से आजादी चाहते हैं। जानवरों को ये अधिकार नहीं देने वालों की सोच बहुत ही छोटी होगी। जैसे हमने गुलामी, जातिवाद और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है वैसे ही आजादी की हर लड़ाई भेदभाव के खिलाफ होती है। ये हमारी नैतिकता का दायरा बढ़ाती है, जो लोग जानवरों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसमें उनका कोई निजी हित नहीं है। ये सिर्फ नैतिकता की लड़ाई है। महात्मा गांधी, आइंस्टाइन और लियोनार्डो दा विंची सबने जानवरों से अच्छे बर्ताव की वकालत की थी। जानवरों को अधिकार देने से सिर्फ जानवरों की सुरक्षा नहीं होती बल्कि पूरे चराचर जगत की सुरक्षा इससे जुड़ी है। 

 

अपने ऋषि-मुनियों ने कोई भावना में बह कर पूरी सृष्टि को एक परिवार नहीं कहा, बल्कि इसका वैज्ञानिक आधार है। आज वैज्ञानिक भी मानते हैं कि भोजन श्रृंखला के चलते एक जीव का जीवन दूसरे पर और वनस्पती व जीवों का जीवन परस्पर अस्तित्व पर टिका है। अप्राकृतिक रूप से कोई एक जीव मरता है तो उससे पूरी श्रृंखला प्रभावित होती है। आशा की जाना चाहिए कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय का जीवों को लेकर दिया गया ताजा फैसला एक उदाहरण बनेगा और हमें हर छोटे-बड़े जीवों, पेड़-पौधों के प्रति अपने दायित्वों के प्रति सोचने को विवश करेगा।

 

-राकेश सैन

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