बेहतर प्रदर्शन से विधानसभा चुनावों में खुलेगी राह!

By उमेश चतुर्वेदी | Dec 18, 2025

केंद्रीय सत्ता पर ग्यारह वर्षों से लगातार काबिज भारतीय जनता पार्टी के लिए दक्षिण भारत के चार राज्य प्रश्न प्रदेश रहे हैं। कर्नाटक में उसकी सत्ता आती-जाती रही है। आंध्र प्रदेश में अकेलेदम उसके सांसद और विधायक जीतते भी रहे हैं। तमिलनाडु में डीएमके और अन्नाद्रमुक के साथ दो बार चार सांसद लोकसभा पहुंचाने में भी कामयाब रही। लेकिन उसके लिए सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण केरल रहा है। लेकिन लगता है कि अब दक्षिण के इस दुर्ग में भी अहम सेंध लगाने में राष्ट्रवादी पार्टी कामयाब हो चुकी है। वामपंथ के गढ़ राज्य की राजधानी तिरुअनंतपुरम् नगर निगम पर कब्जे के साथ भाजपा ने ना सिर्फ इतिहास रच दिया है, बल्कि खुद की उम्मीदें भी बढ़ा दी हैं।


सुरम्य वादियों और साफ-सफ्फाक समुद्री तटों के साथ हरियाली के चलते केरल को ‘भगवान का अपना देश’ भी कहा जाता है। इस केरल की 54 प्रतिशत जनसंख्या हिंदू है, जबकि करीब साढ़े फीसद आबादी मुसलमान है। बाकी करीब 19 प्रतिशत ईसाई हैं। भगवान के अपने देश और जनसांख्यिकी आंकड़ों के लिहाज से केरल भारतीय जनता पार्टी के लिए मुफीद भूमि रहा है। लेकिन यहां भारतीय जनता पार्टी अब तक बड़ी करामात नहीं दिखा पाई है। बेशकर राष्ट्रीयय स्वयंसेवक संघ यहां काफी सक्रिय है। फिर भी यहां की राजनीति दो ध्रुवीय रही है। एक तरह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी-सीपीएम की अगुआई वाला वाम लोकतांत्रिक मोर्चा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस की अगुआई वाला संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा। भाजपा यहां तीसरा कोण बनाने की कोशिश अरसे से करती रही है। लेकिन उसे पहली बार सफलता साल 2016 के विधानसभा चुनावों में मिली। तब पार्टी के वरिष्ठ नेता ओ राजगोपाल तिरुअनंतपुरम् सीट से चुने गए। तब पार्टी को करीब दस फीसद वोट मिला, लेकिन अगले यानी 2021 के चुनावों में पार्टी को मायूसी हाथ लगी। लेकिन वोट बढ़कर करीब बारह फीसद हो गए। 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की उम्मीद जगी, जब लोकप्रिय मलयाली अभिनेता सुरेश गोपी त्रिशूर सीट से पार्टी के टिकट पर विजयी हुए। गोपी इन दिनों केंद्र सरकार में राज्य मंत्री का दायित्व निभा रहे हैं। बेशक पार्टी को केरल में  लोकसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट मिली, लेकिन पार्टी की वोट हिस्सेदारी बढ़कर 16 हो गई। लोकतांत्रिक राजनीति में सोलह प्रतिशत वोट मामूली बात नहीं होती। कह सकते हैं कि इसके बाद ही पार्टी की उम्मीदों को परवान चढ़ना शुरू हुआ। 

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राज्य में बीजेपी की कमान राजीव चंद्रशेखर के हाथ है। केरल में हुए स्थानीय निकाय चुनावों के लिए उनकी अगुआई में पार्टी ने जमकर पसीना बहाया। इसका नतीजा राजधानी तिरुअनंतपुरम् नगर निगम पर पार्टी का तकरीबन कब्जे के रूप में सामने आया है। तिरुअनंतपुरम् नगर निगम में 101 वार्ड हैं, जिनमें से 50 पर पार्टी के पार्षद जीते हैं। पैंतालिस सालों से इस निगम पर जिस वाममोर्चे का कब्जा रहा, उसे महज 29 सीटें मिलीं हैं, जबकि कांग्रेस की अगुआई वाले मोर्चे को 19 सीटें मिली हैं। बाकी दो सीटों पर निर्दलीयों ने बाजी मारी है। केरल की राजनीति की जिसे समझ है, उन्हें पता है कि यहां वाममोर्चा और कांग्रेस साथ नहीं आ सकते। ऐसे में निर्दलीयों के समर्थन से बीजेपी का मेयर चुना जाना तकरीबन तय है। पार्टी ने कोझिकोड और कन्नूर जैसे वामपंथी गढ़ों में भी सेंध लगाने में कामयाब हुई है। यहां पार्टी ने क्रमशः 13 और 4 सीटें जीतीं हैं। पिछली बार पलक्कड़ नगर पालिका पर उसका कब्जा हुआ था और उस पर उसने अपना नियंत्रण बरकरार रखा है। साथ ही उसने त्रिपुनिथुरा नगर पालिका को भी वाममोर्चे से छीन लिया है। हालांकि पिछली बार जीती पंडालम नगर पालिका को वाममोर्चा ने उससे छीन लिया है। बीजेपी को इस बार कुल पंद्रह फीसद से ज्यादा मत मिले हैं, जबकि उसके साथी दलों का मत प्रतिशत मिला दिया जाए तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बीस फीसद वोट हासिल हुआ है। राज्य में 941 ग्राम पंचायतें हैं, जिनमें से पिछली पार पार्टी को 19 पर जीत मिली थी, इस बार पार्टी ने इसमें सात सीटों पर बढ़त मिली है। 


राज्य में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं। विधानसभा चुनावों के ठीक पहले राज्य के स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजों ने पार्टी को भारी जीत भले ही न दिलाई हो, लेकिन उत्साहजनक जरूर हैं। ये नतीजे पार्टी के लिए आने वाले दिनों की सफलताओं की बुनियाद हो सकते हैं। हालांकि कांग्रेस समर्थकों की ओर से तिरुअनंतपुरम् की जीत के लिए बीजेपी की बजाय कांग्रेस के नाराज चल रहे सांसद शशि थरूर को दिया जा रहा है। सोशल मीडिया पर तो इसे शशि थरूर की बीजेपी की कृपा भी बताया जा रहा है। हो सकता है कि शशि थरूर की कांग्रेस नेतृत्व से मायूसी के संदेश ने बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने की मदद की हो, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि आखिर शशि थरूर को मनाने की कोशिश क्यों नहीं हुई। वैसे जीत के चाहे जो भी कारण रहे हों, अंतत: सम्मान विजेता का ही होता है। कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल तो बीजेपी पर तंज भी कस रहे हैं। इस तंज में कांग्रेस की खीझ देखी जा रही है। माना जा रहा है कि बीजेपी की बढ़त से कांग्रेस की चिंता बढ़ रही है। 


केरल के मौजूदा स्थानीय निकाय चुनाव नतीजों के दो स्पष्ट संकेत हैं। पहला यह है कि नगरीय इलाकों में दबदबा रखने वाले वाममोर्चे के दुर्ग में बीजेपी ने सेंध लगा दी है। दूसरा संदेश यह है कि ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस की अगुआई वाले मोर्चे ने अपना दबदबा बढ़ा दिया है। वैसे भी राज्य के ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस का पहले से ही ज्यादा असर रहा है, जबकि शहरी इलाकों में सीपीएम की अगुआई वाले मोर्चे का। केरल के ग्रामीण और शहरी इलाके को देश के दूसरे हिस्सों की तरह कम पढ़ी-लिखी और पढ़ी-लिखी आबादी के आधार पर नहीं बांट सकते। केरल में शत-प्रतिशत साक्षरता है। इसका मतलब यह है कि वहां ग्रामीण और शहरी आबादी में पढ़ाई को लेकर कोई अंतर नहीं है। फिर भी राजनीतिक समर्थक आधार को लेकर दोनों आबादी की सोच में अंतर रहा है। इसके बुनियादी कारणों में से एक कारण शहरी स्वशासन भी रहा होगा। शहरी आबादी प्रगतिशील सोच वाली रही होगी, लेकिन जिस तरह शहरों में बीजेपी ने सेंध लगाई है, उससे साफ है कि प्रगतिशील सोच वाले वर्ग में उसकी पैठ बढ़ रही है। ऐसे में बीजेपी के विस्तार से बड़ी चिंता कांग्रेस की बजाय वाममोर्चे की होनी चाहिए। वैसे भी बीजेपी के पूरे विकास को देखें तो जहां समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियां रहीं हैं, वहां बीजेपी ने उनके ही आधार वोट बैंक पर कब्जा किया है। मध्य प्रदेश, उड़ीसा, दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्यों में बीजेपी ने समाजवादी आधार वोट बैंक को खत्म कर दिया है। लेकिन इन राज्यों में उसकी बड़ी विरोधी कांग्रेस ही है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि केरल में भी भाजपा के विस्तार की कीमत वाममोर्चे का वजूद हो सकता है। 


अगले विधानसभा चुनावों में केरल में भाजपा भले ही बड़ी जीत ना हासिल कर सके, लेकिन वह महत्वपूर्ण उपस्थिति जरूर दर्ज कराएगी। इसका संकेत केरल के लोगों ने स्थानीय निकाय चुनावों में दे दिया है।  बीजेपी इस बीच अगर नामदार चेहरे को अपने पाले में खींचने में कामयाब रहती है तो हो सकता है कि नतीजे और भी ज्यादा चौंकाऊ हों। निकाय चुनावों में चौंकाऊ कामयाबी ने भाजपा कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा दिया है। कार्यकर्ता अगर उत्साह में रहते हैं तो अपने पक्ष में मतदाताओं को मोड़ने की ज्यादा दम लगाकर कोशिश करते हैं। इसका असर मतदान केंद्र पर पहुंचे उन मतदाताओं का मन अपने पक्ष में बदलने में दिखता है, जो आखिरी क्षणों तक किसी खास दल या उम्मीदवार के पक्ष में अपना मन नहीं बना पाए होते हैं। जिन्हें चुनाव विज्ञान की शब्दावली में फ्लोटिंग वोटर कहा जाता है। कई बार ये बदलाव एक सौ अस्सी डिग्री का होता है। 2014 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में मिली बीजेपी की बड़ी जीत इसका उदाहरण है। तो क्या केरल में बीजेपी भी उसी राह पर चल पड़ी है? इसका जवाब हां में है। विधानसभा चुनावों में नतीजे कैसे होंगे, यह तब देखने की बात होगी।       


-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

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