RSS की धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के मिशन में जुटे हैं भागवत, मंदिर समर्थकों और करोड़ों हिंदुओं को कैसे समझा पाएंगे संघ प्रमुख?

By संतोष पाठक | Dec 23, 2024

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया जिन्हें आमतौर पर सरसंघचालक के रूप में संबोधित किया जाता है,मोहन भागवत क्या धर्मनिरपेक्षता के फेर में फंस गए हैं ? क्या आरएसएस के मुखिया संघ की धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के मिशन में जुटे हुए हैं ? यह सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं क्योंकि मोहन भागवत लगातार और बार-बार मंदिर-मस्जिद को लेकर बयान दे रहे हैं। 

 

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राम मंदिर आंदोलन को पूरी तरह से समर्थन देने वाला वो संगठन ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) जिसने अयोध्या में राम मंदिर के आंदोलन को घर घर का आंदोलन बनाने के लिए अपने अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद को पूरी ताकत से मैदान में उतार दिया था और अपने राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को इसे देश की राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बनाने में भरपूर मदद की थी। उसी संघ के मुखिया, सरसंघचालक मोहन भागवत आज कह रहे हैं कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर को तलाशने की मुहिम बंद होनी चाहिए। कुछ नेता मंदिर-मस्जिद का मसला उठा कर हिंदुओं का बड़ा नेता बनना चाहते हैं। संघ प्रमुख के इस तरह के कई बयान पिछले कुछ महीनों से लगातार सुर्खियां बनते नजर आ रहे हैं। 


यही वजह है कि अब यह सवाल उठने लगा है कि क्या मोहन भागवत संघ की छवि धर्मनिरपेक्ष बनाने के अभियान में जुटे हुए हैं ? क्या संघ प्रमुख  यानी सरसंघचालक का पद छोड़ने से पहले मोहन भागवत संघ को एक ऐसी संस्था का स्वरूप देना चाहते हैं, जिसे हिंदुओं के साथ-साथ भारत में रहने वाला हर मुसलमान और ईसाई भी अपना संगठन माने ? 


कुछ लोगों के लिए मोहन भागवत का यह स्टैंड जरूर अनोखा और नया होगा ? भाजपा से पिछले कुछ वर्षों के दौरान जुड़े नए लोग खासतौर से सोशल मीडिया पर सक्रिय भाजपा के नए कैडर के लोग इसे लेकर मोहन भागवत की आलोचना करते भी नजर आने लगे हैं। 


हालांकि संघ की राजनीति और कार्यकलाप को लंबे समय से देखने वाले समझदार विश्लेषक यह बात अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि संघ के अंदर आखिर चल क्या रहा है ? वे इस बात को भी बखूबी समझ रहे हैं कि यह कोई पहला मौका नहीं है,जब संघ अपनी छवि को बदलने का प्रयास कर रहा है।


दरअसल, 90 के दशक में लालकृष्ण आडवाणी के पीछे होने और अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर स्वीकार्यता बढ़ने के साथ ही संघ के अंदर के एक बड़े खेमे को यह समझ आ गया था कि भारत में अगर भाजपा को कांग्रेस की तरह लंबे समय तक शासन करना है तो उसे सभी धर्मों को साथ लेकर चलना ही होगा। 


संघ के चौथे सरसंघचालक राजेन्द्र सिंह, जो रज्जू भैया के नाम से प्रसिद्ध हैं के कार्यकाल में ही संघ के अंदर बदलाव को लेकर विचार विमर्श शुरू हो गया था। हालांकि इसे अमलीजामा पहनाया संघ के पांचवे सरसंघचालक केएस सुदर्शन ने। केएस सुदर्शन ने अपने कार्यकाल में संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार के नेतृत्व में वर्ष 2002 में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का गठन किया। इस मंच को देश के मुस्लिम समाज को संघ के साथ जोड़ने का टास्क सौंपा गया। इंद्रेश कुमार पिछले 22 वर्षों से देशभर में घूम-घूमकर मुस्लिम समाज को साधने के मिशन में जुटे हुए हैं। 


लेकिन ऐसा लग रहा है कि इंद्रेश कुमार को बहुत ज्यादा कामयाबी नहीं मिल पाने की वजह से अब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्वयं ही मैदान में उतरने का फैसला कर लिया है। वर्ष 2009 में संघ की कमान संभालने वाले मोहन भागवत को अब यह लगने लगा है कि संघ की छवि को बदलने का अनुकूल समय आ चुका है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो चुका है। काशी में बाबा विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को लेकर भी अब मुस्लिम समुदाय के अंदर उस तरह का हठ नजर नहीं आ रहा है, जैसा कि एक जमाने में अयोध्या को लेकर नजर आया करता था। यही वजह है कि संघ प्रमुख लगातार इस तरह का बयान दे रहे हैं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि भाजपा के साथ जुड़े नए लोगों को यह समझ नहीं आ पा रहा है। 

 

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ऐसे में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को दो मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा है। पहली लड़ाई तो भाजपा के उन लोगों, नेताओं, कार्यकर्ताओं और सोशल मीडिया के पोस्ट बहादुरों से लड़ना पड़ रहा है जो मंदिर के एकसूत्री एजेंडे के कारण ही भाजपा से जुड़े थे । वहीं आने वाले दिनों में संघ प्रमुख और संघ के स्वयंसेवकों को दूसरी लड़ाई, देश के उन करोडों हिंदुओं से भी लड़नी पड़ेगी,जो संघ के मुस्लिम और मस्जिद राग को हजम नहीं कर पा रहे हैं।


संतोष पाठक

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