वैचारिक विमर्श की समसामयिक कृति है “अति सर्वत्र विराजिते” (पुस्तक समीक्षा)

By दीपक गिरकर | Jun 11, 2020

“वैश्विक मंदी के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था को अक्षुण्ण रखने में सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस पृष्ठभूमि के बावजूद निजी क्षेत्र के बैंकिंग को प्रोत्साहन क्यों दिया जा रहा है? जब विश्व में 1930 से गहरी मंदी की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं निजी क्षेत्र के बजाय सार्वजनिक बैंकिंग प्रणाली को विस्तारित व प्रोत्साहित करना ही जनहित व राष्ट्रहित में उचित है।'' संदर्भित पंक्तियाँ कवि, लेखक और विभिन्न प्रतिबद्ध संगठनों से जुड़े सक्रिय कार्यकर्त्ता श्री सुरेश उपाध्याय के आलेख संकलन “अति सर्वत्र विराजिते” के एक आलेख "पेमेंट बैंक किसके हित में ?" के अंतिम अनुच्छेद की हैं। उक्त पंक्तियाँ निजीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय पर लेखक के गहरे विश्लेषण के साथ व्यावहारिक और ठोस चिंतन की ओर इंगित करती है। “अति सर्वत्र विराजिते” लेखक के वैचारिक आलेखों का दूसरा संकलन है। इसके पूर्व लेखक का "हाशिये की आवाज" (आलेख संकलन) और एक कविता संग्रह "शब्दों की बाजीगरी नहीं" प्रकाशित हो चुके हैं। इस पुस्तक के लेखक ट्रेड यूनियन आंदोलन, जनांदोलन, साहित्यिक व सांस्कृतिक आंदोलन में काफी सक्रिय हैं। इस पुस्तक “अति सर्वत्र विराजिते” में श्री सुरेश उपाध्याय के लोकहित के ज्वलंत मुद्दों पर 82 आलेख संकलित हैं जो कि वर्ष 2015 से 2017 के बीच दैनिक जनसत्ता, नई दिल्ली व दैनिक सुबह सवेरे, भोपाल में प्रकाशित हुए थे। इस पुस्तक का शीर्षक “अति सर्वत्र विराजिते” अत्यंत सार्थक है। लेखक की भी यही सोच है कि अति हर जगज रोकनी चाहिए। 

 

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इस पुस्तक के आलेखों में लेखक ने सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के विषयों जैसे आरक्षण, स्वास्थ्य, शिक्षा, मुक्त अर्थव्यवस्था, कथित वैश्वीकरण, बाजारवाद, संरक्षणवाद और भूमंडलीकरण, बैंकिंग, न्याय व्यवस्था, भाषा, रंग आन्दोलन, साम्प्रदायिकता, विस्थापन, अन्धविश्वास, चुनाव सुधार, गरीबी, घोटाले, असहिष्णुता, आर्थिक नीतियाँ, आतंकवाद, विश्व शान्ति, कालाधन, आवास समस्या, स्त्री स्वतंत्रता, किसान आंदोलन, पर्यावरण, जलसंकट, नदी पुनर्जीवन, धर्म और अपराध इत्यादि पर तर्कसम्मत, सार्थक आलेखों को बहुत ही मुखर ढंग से प्रस्तुत किए है। पुस्तक के सभी आलेख सटीक, समसामयिक होने के साथ स्थाई महत्व के हैं। 

 

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इस पुस्तक की भूमिका सुविख्यात कथाकार, विचारक डॉ. प्रकाशकांत ने लिखी है। उन्होंने लिखा हैं “श्री सुरेश उपाध्याय का लेखन बुनियादी सरोकारों का लेखन है। आम आदमी के जानलेवा जीवन-संघर्ष और चिन्ताओं से सीधे-सीधे जुड़ा लेखन!! कथेतर लेखन में "कमिटमेंट" के प्रश्न का अपना महत्व रहा है। क्योंकि उसमें सब कुछ खुला और साफ़ हुआ करता है। इस पुस्तक के लेखों में इस बात को देखा जा सकता है।“

 

इस कृति द्वारा श्री सुरेश उपाध्याय का बहुआयामी चिन्तन मुखर हुआ है। वे समसामयिक विषयों पर गहरी समझ रखते हैं। लेखक ने सभी आलेखों में सन्दर्भ के साथ उदाहरण भी दिए हैं और तथ्यों के साथ गहरा विश्लेषण भी किया है। कुल मिलाकर यह कृति मानवीय चेतना एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों की गहन पड़ताल करती है। पुस्तक पठनीय ही नहीं, चिन्तन मनन करने योग्य, देश के कर्णधारों को दिशा देती हुई और क्रियान्वयन का आह्वान करती वैचारिक विमर्श की समसामयिक कृति है।


पुस्तक: अति सर्वत विराजिते

लेखक: सुरेश उपाध्याय

प्रकाशक: कविता उपाध्याय, 133, गीतानगर, लालाराम नगर के पास, इंदौर (म.प्र.)

मूल्य: 150 रूपए

पेज : 233

समीक्षकः दीपक गिरकर


- दीपक गिरकर

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