By नीरज कुमार दुबे | Jul 31, 2025
डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25% टैरिफ लगाकर न केवल द्विपक्षीय संबंधों में खटास पैदा की है, बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था को “dead economy” कह कर अमेरिकी राष्ट्रपति पद की गरिमा को भी ठेस पहुंचाई है। यह बयान स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि ट्रंप व्यापार और भू-राजनीतिक मुद्दों को दबाव की राजनीति के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। लेकिन भारत का रुख इस बार बिल्कुल अलग रहा– उसने न केवल व्यापार समझौते को लेकर अमेरिकी शर्तों के आगे झुकने से इंकार कर दिया, बल्कि रूस से संबंधों को लेकर अमेरिकी दबाव को भी ठुकरा दिया। इससे ट्रंप का यह दावा भी कमजोर हो गया कि भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर केवल अमेरिकी दबाव और संभावित व्यापार समझौते के लालच में रोका था।
भारत के इस रुख के पीछे कई ठोस कारण हैं। दरअसल रूस भारत का दशकों पुराना रणनीतिक साझेदार है, जिसने परमाणु ऊर्जा, रक्षा और ऊर्जा सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में भारत को लगातार सहयोग दिया है। आज भी भारत के 60% से अधिक रक्षा उपकरण रूसी मूल के हैं और सस्ते रूसी तेल ने भारत को वैश्विक ऊर्जा संकट के समय राहत दी है। अमेरिका की पैनल्टी झेलने और राष्ट्रपति की नाराजगी का जोखिम उठाकर भी भारत रूस के साथ संबंध बचाने को तैयार है, क्योंकि यह भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का मूलभूत हिस्सा है।
देखा जाये तो वैश्विक राजनीति पर इसका बड़ा असर पड़ेगा क्योंकि भारत का यह संदेश स्पष्ट है कि वह किसी भी महाशक्ति के दबाव में अपनी विदेश नीति नहीं बदलेगा। इस कदम से न केवल भारत की कूटनीतिक साख बढ़ी है, बल्कि दुनिया के अन्य मध्यम और छोटे देशों को भी यह विश्वास मिला है कि बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में दबाव की राजनीति को चुनौती दी जा सकती है। दूसरी ओर, अमेरिका के लिए यह स्थिति असहज है। भारत उसके लिए Indo-Pacific रणनीति का प्रमुख साझेदार है और ट्रंप की बयानबाजी व टैरिफ की नीति इस भरोसे को कमजोर कर सकती है। यदि अमेरिका भारत जैसे लोकतांत्रिक साझेदार को अपमानित करता है, तो वह चीन और रूस के खिलाफ बने गठबंधनों में अपनी स्थिति कमजोर कर लेगा। ट्रंप की यह टिप्पणी उनके उस लंबे इतिहास से मेल खाती है जिसमें वे अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों को केवल व्यापार और अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के नजरिए से देखते हैं। भारत के टैरिफ और रूस के साथ उसके संबंधों पर सवाल उठाना एक अलग विषय है, लेकिन इन मुद्दों को हल करने का रास्ता अपमानजनक भाषा नहीं, बल्कि परिपक्व वार्ता है। भारत सरकार ने सही कहा है कि वह राष्ट्रीय हित से समझौता नहीं करेगी।
भारत ने यह दिखा दिया है कि वह वैश्विक शक्ति-संतुलन में किसी का मोहरा नहीं बनेगा। रूस के साथ संबंध बचाने के लिए अमेरिकी दबाव को ठुकराना केवल कूटनीतिक कदम नहीं, बल्कि यह संदेश है कि भारत अपने दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों से समझौता नहीं करेगा– चाहे कीमत कुछ भी हो। ट्रंप की ओर से टैरिफ लगाये जाने की चेतावनियों के बावजूद भारत ने न तो रूस से ऊर्जा खरीद कम की है और न ही रक्षा सहयोग में कोई कटौती की है। यह रुख बताता है कि भारत अपनी विदेश नीति में रणनीतिक स्वायत्तता को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहा है। ट्रंप का अतिरिक्त शुल्क भारत को रूस से दूर करने की कोशिश है। लेकिन यह रणनीति अब तक विफल रही है। दरअसल अमेरिका यह दिखाना चाहता है कि जो देश रूस के साथ व्यापार करेंगे, उन्हें दंडात्मक कार्रवाई झेलनी पड़ेगी। यह संदेश चीन जैसे देशों के लिए भी है, जो रूसी तेल के बड़े खरीददार हैं। भारत का रूस के साथ संबंध मजबूत रखना अमेरिका के लिए चिंता का विषय है इसलिए वह चाहता है कि भारत Quad में मजबूत हो मगर Indo-Pacific रणनीति के तहत रूस से दूरी बनाए।
मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह साफ कर दिया है कि भारत किसी के दबाव में अपने रणनीतिक निर्णय नहीं बदलेगा। अमेरिका के साथ व्यापार समझौता नहीं हो पाने का बड़ा कारण यही है कि भारत ने कृषि, डेयरी और टैरिफ में अपनी शर्तों से समझौता करने से इंकार कर दिया है। साथ ही भारत ने दिखा दिया है कि रूस के साथ ऊर्जा और रक्षा संबंध केवल आर्थिक नहीं बल्कि रणनीतिक महत्व रखते हैं। देखा जाये तो अमेरिका के आगे नहीं झुक कर भारत की वैश्विक स्थिति तेजी से मजबूत हो रही है। अमेरिका की पेनल्टी के बावजूद भारत पर दबाव काम नहीं कर रहा, जो यह दिखाता है कि भारत अब वैश्विक मंच पर एक स्वतंत्र शक्ति है।
साथ ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डोनाल्ड ट्रंप के दबाव और अपमानजनक बयानों के आगे न झुककर विश्व राजनीति को एक स्पष्ट और मजबूत संदेश दिया है– भारत अब किसी का जूनियर पार्टनर नहीं है, बल्कि वैश्विक मंच पर एक आत्मनिर्भर और आत्मसम्मानी शक्ति है। मोदी सरकार ने साफ शब्दों में कहा है कि वह राष्ट्रीय हित से समझौता नहीं करेगी और किसी भी व्यापारिक समझौते में किसानों, उद्यमियों और MSMEs के हित सर्वोपरि रहेंगे। यह रुख बताता है कि भारत अब केवल आर्थिक या कूटनीतिक दबावों के आधार पर निर्णय नहीं लेता।
यह कदम केवल अमेरिका को नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को यह संदेश देता है कि भारत अपनी शर्तों पर साझेदारी करता है। चाहे ऊर्जा सुरक्षा के लिए रूस के साथ संबंध हों या पश्चिमी देशों के साथ व्यापार समझौते– भारत संतुलन बनाए रखने में सक्षम है और दबाव के आगे झुकने वाला देश नहीं है। इसका सबसे बड़ा महत्व यह है कि भारत ने यह दिखा दिया है कि वैश्विक शक्ति संतुलन में उसका स्थान स्थायी और स्वतंत्र है। अमेरिका, चीन, रूस या कोई अन्य महाशक्ति अब भारत को केवल एक "निर्भर सहयोगी" की तरह नहीं देख सकती। यह आत्मविश्वास भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत, सामरिक क्षमताओं और वैश्विक कूटनीतिक साख का प्रमाण है।
जहां तक यह सवाल है कि भारत-रूस संबंधों पर क्यों खफा हैं ट्रंप? तो आपको बता दें कि यूक्रेन युद्ध से पहले भारत का रूस से तेल आयात कुल आयात का 2% से भी कम था, जो जून 2024 तक 40% से अधिक हो गया है। इसके अलावा, रूस भारत का सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता है और कम कीमत, लचीली शर्तों व संवेदनशील तकनीक उपलब्ध कराने के कारण यह संबंध भारत के लिए रणनीतिक हैं। साथ ही रूस लंबे समय से भारत का परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में साझेदार रहा है। इन संबंधों ने अमेरिका को असहज कर दिया है, खासकर तब जब पश्चिमी देश रूस को आर्थिक रूप से अलग-थलग करने की कोशिश कर रहे हैं।
हम आपको यह भी बता दें कि ट्रंप ने टैरिफ को लेकर भारत पर जिस तरह हमला बोला है उससे उनका ही पुराना दावा कमजोर पड़ गया है। हम आपको बता दें कि ट्रंप लगातार यह कह रहे हैं कि 10 मई को मोदी सरकार ने उनके दबाव में पाकिस्तान के खिलाफ “ऑपरेशन सिंदूर” को रोक दिया था, क्योंकि उन्होंने धमकी दी थी कि यदि भारत ने कार्रवाई नहीं रोकी तो अमेरिका भारत के साथ व्यापार बंद कर देगा। लेकिन भारत पर टैरिफ लगा कर ट्रंप ने अप्रत्यक्ष रूप से अपने दावे का सच उजागर कर दिया है। हम आपको बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को लोकसभा में स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत पर किसी वैश्विक नेता ने हमले रोकने का दबाव नहीं डाला था। उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान के हवाई ठिकानों पर भारतीय वायुसेना की भीषण बमबारी ने इस्लामाबाद को 10 मई को शांति के लिए मजबूर किया था। इससे पहले भी भारत ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि व्यापार समझौते या टैरिफ का पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई रोकने से कोई संबंध नहीं था। भारत ने यह भी बार-बार कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यापार को जोड़ना अनुचित है।
जहां तक यह सवाल है कि अमेरिका के साथ समझौते को लेकर भारत क्यों नहीं झुका? तो आपको बता दें कि अमेरिका ने पिछले कुछ महीनों में यूरोपीय संघ, जापान, ब्रिटेन और वियतनाम को अमेरिकी वस्तुओं के लिए अपने बाजार खोलने पर मजबूर किया, जिसके बदले टैरिफ कम किए गए। लेकिन भारत इस समझौते के लिए तैयार नहीं हुआ। इसके पीछे कई कारण थे। दरअसल भारत अमेरिकी मांगों के अनुरूप कृषि और डेयरी उत्पादों में रियायत देने को तैयार नहीं था। इसके अलावा, भारत चाहता है कि अमेरिका कपड़ा, चमड़ा, फुटवियर और ऑटो पार्ट्स पर पर्याप्त टैरिफ कटौती करे, लेकिन अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं था। साथ ही भारत ने अमेरिकी LNG, उर्वरक और रक्षा उपकरण की अधिक खरीदारी के लिए संकेत दिए, लेकिन अमेरिकी मांगें लगातार बढ़ती गईं। इसलिए मोदी सरकार का स्पष्ट रुख था कि वह किसी भी “औसत दर्जे के समझौते” के लिए तैयार नहीं होगी।
हम आपको यह भी बता दें कि अमेरिका चाहता है कि भारत अमेरिकी वस्तुओं के लिए अपने बाजार खोले और रूस से रक्षा व ऊर्जा खरीद में कटौती करे। लेकिन भारत अपने राष्ट्रीय हित और बाजार क्षमता का इस्तेमाल कर अमेरिका को झुकाने की कोशिश कर रहा है। यह टकराव दीर्घकालिक व्यापार युद्ध का रूप भी ले सकता है, जिससे दोनों देशों के रिश्ते तनावपूर्ण हो सकते हैं। भारत को अब अपनी निर्यात रणनीति और विकल्प बाजारों को मजबूत करना होगा।
वैसे ऐसा नहीं है कि अमेरिका सिर्फ भारत को ही धमकी दे रहा है। अमेरिका ने चीन के प्रति भी आंखें लाल कर रखी हैं। अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने कहा है कि उन्होंने चीनी अधिकारियों को सख्त चेतावनी दी है कि प्रतिबंधित रूसी तेल की निरंतर खरीदारी चीन के लिए भारी टैरिफ का कारण बन सकती है। यह बयान स्टॉकहोम में दो दिन की व्यापार वार्ताओं के समापन पर आया। बेसेंट ने स्पष्ट किया कि अमेरिकी कांग्रेस में प्रस्तावित विधेयक के तहत रूसी तेल खरीदने वाले देशों पर 500% तक टैरिफ लगाया जा सकता है और अमेरिका अपने सहयोगी देशों को भी इसी दिशा में कदम उठाने के लिए प्रेरित करेगा। लेकिन चीन ने संकेत दिया है कि वह अमेरिकी दबाव में अपनी ऊर्जा आपूर्ति संबंधी नीतियों में बदलाव नहीं करेगा। देखा जाये तो अमेरिका की यह चेतावनी न केवल चीन पर आर्थिक दबाव बढ़ाने की रणनीति है, बल्कि यह रूस-चीन संबंधों को कमजोर करने का प्रयास भी है। लेकिन चीन का स्पष्ट रुख यह संकेत देता है कि वह अमेरिकी दबाव में झुकने के लिए तैयार नहीं है। हालांकि यह भी सत्य है कि यदि अमेरिकी कांग्रेस 500% टैरिफ का कानून पास कर देती है तो वैश्विक व्यापार समीकरणों पर बड़ा असर पड़ेगा। यह टकराव यूरोप, एशिया और वैश्विक ऊर्जा बाजारों में नई अस्थिरता ला सकता है।
बहरहाल, भारत-रूस संबंधों पर सवाल उठा रहे ट्रंप को पता होना चाहिए कि रूस भारत के लिए ऊर्जा सुरक्षा का महत्वपूर्ण स्रोत है। इसके अलावा, रूस दशकों से भारत का प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता रहा है। मिसाइल तकनीक से लेकर परमाणु ऊर्जा तक कई क्षेत्रों में रूस भारत को ऐसी तकनीक और सहायता देता रहा है जो अन्य देश उपलब्ध नहीं कराते। भारत-रूस रिश्तों में गहरा विश्वास है, जो शीत युद्ध के समय से विकसित हुआ है। यह भरोसा भारत को कठिन अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में सहारा देता है। वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरा-भला कह रहे ट्रंप को पता होना चाहिए कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए "dead economy" जैसी टिप्पणी न केवल द्विपक्षीय संबंधों को नुकसान पहुंचा सकती है बल्कि भारतीय समाज में अमेरिका विरोधी भावनाओं को भी जन्म दे सकती है।