Brihaspati Dev: इस स्त्रोत का पाठ करने से प्राप्त होती बृहस्पति देव की कृपा, संवर जाएगा भाग्य

By अनन्या मिश्रा | Aug 17, 2024

हिंदू धर्म में बृहस्पति देव की पूजा करना शुभ माना जाता है। गुरु बृहस्पति ज्ञान, बुद्धि और संतान के कारण ग्रह माने जाते हैं। बृहस्पति देव की पूजा-अर्चना के लिए गुरुवार का दिन शुभ माना जाता है। जो भी जातक गुरुवार के दिन बृहस्पति देव की विधि-विधान से पूजा-अर्चना करता है, उसके जीवन की सभी समस्याओं का अंत होता है और उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। जिन जातकों के विवाह में देरी होती हैं, उन्हें भी देव गुरु बृहस्पति की पूजा करनी चाहिए। गुरुवार के दिन व्रत करने के साथ केले के पेड़ की पूजा करनी चाहिए।


इसके बाद 'बृहस्पति कवच और स्तोत्र' का पाठ करना चाहिए। आखिरी में आरती करें और पूजा में हुई भूलचूक के लिए क्षमा मांगे। गरीबों व जरूरतमंदों को भोजन कराएं और यथासंभव दान करें। ऐसा करने से कुंडली में बृहस्पति की स्थिति शुभ और मजबूत होती है। साथ ही व्यक्ति को भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

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बृहस्पति कवच

अभीष्टफलदं देवं सर्वज्ञम् सुर पूजितम् ।

अक्षमालाधरं शांतं प्रणमामि बृहस्पतिम् ॥


बृहस्पतिः शिरः पातु ललाटं पातु मे गुरुः ।

कर्णौ सुरगुरुः पातु नेत्रे मे अभीष्ठदायकः ॥


जिह्वां पातु सुराचार्यो नासां मे वेदपारगः ।

मुखं मे पातु सर्वज्ञो कंठं मे देवतागुरुः ॥


भुजावांगिरसः पातु करौ पातु शुभप्रदः ।

स्तनौ मे पातु वागीशः कुक्षिं मे शुभलक्षणः ॥


नाभिं केवगुरुः पातु मध्यं पातु सुखप्रदः ।

कटिं पातु जगवंद्य ऊरू मे पातु वाक्पतिः ॥


जानुजंघे सुराचार्यो पादौ विश्वात्मकस्तथा ।

अन्यानि यानि चांगानि रक्षेन्मे सर्वतो गुरुः ॥


इत्येतत्कवचं दिव्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।

सर्वान्कामानवाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥


।। गुरु स्तोत्र ।।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुस्साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥


अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥


अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥


अनेकजन्मसंप्राप्तकर्मबन्धविदाहिने ।

आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥


मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः।

ममात्मासर्वभूतात्मा तस्मै श्री गुरवे नमः ॥


बर्ह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्।

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्॥


एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।

भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥

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