By नीरज कुमार दुबे | Nov 17, 2025
भारतीय रक्षा उद्योग के सामने खड़े सबसे असहज प्रश्न कभी राजनीतिक नेताओं ने तो नहीं पूछे लेकिन यह काम सेना के सबसे ऊँचे अधिकारी यानि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, जनरल अनिल चौहान ने कर दिखाया है। जनरल अनिल चौहान की टिप्पणी कठोर है, सीधी है और उतनी ही असुविधाजनक भी, क्योंकि इससे वह वास्तविकता उजागर होती है जिसे अक्सर आत्मनिर्भरता के शोर में दबा दिया जाता है। दरअसल आपातकालीन रक्षा खरीद (EP) के पाँचवें और छठे चरण के विफल अनुभवों ने सेना को स्पष्ट रूप से निराश किया है क्योंकि तमाम घोषणाओं और “अतिस्वदेशी” दावों के बावजूद समय पर आवश्यक उपकरण नहीं मिले। जब सीडीएस कहते हैं कि “उद्योग को अपने लाभ केंद्रित प्रयासों में थोड़ा राष्ट्रवाद और देशभक्ति भी दिखानी चाहिए”, तो यह सिर्फ भावनात्मक अपील नहीं होती बल्कि यह सुरक्षा-स्वाभिमान के मूल प्रश्न को छूती है।
उल्लेखनीय है कि EP व्यवस्था का जन्म संकटकालीन जरूरतों को देखते हुए हुआ था। उद्देश्य यह कि सेना को लंबी प्रक्रियाओं से अलग हटकर तत्काल हथियार, मिसाइलें और आवश्यक प्रणालियाँ मिल सकें। मोदी सरकार ने आपातकालीन खरीद प्रावधान के तहत हर अनुबंध की सीमा करीब 300 करोड़ रुपए तक निर्धारित की है और इन्हें एक वर्ष के भीतर निष्पादित करने का प्रावधान है ताकि लंबी सामान्य प्रक्रियाओं की जगह तेजी से आवश्यक उपकरण जुटाए जा सकें। इस व्यवस्था के पाँचवे चरण के बाद रक्षा मंत्रालय ने EP-6 को भी मंज़ूर किया था। लेकिन घरेलू रक्षा कंपनियाँ अनुबंध पर हस्ताक्षर तो कर देती हैं मगर एक वर्ष की समयसीमा में उपकरणों की आपूर्ति नहीं कर पातीं। यह सिर्फ देरी नहीं, सामरिक क्षमता का नुकसान है। आपातकालीन खरीद नीति की असफलता सीधे मोर्चों पर सैनिकों की तैयारी को प्रभावित करती है। अगर EP-5 व EP-6 में “ओवर-प्रॉमिस, अंडर-डिलिवर” का चलन बढ़ रहा है तो यह अच्छा संकेत नहीं है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि रक्षा उपकरणों के निर्माण में “70% स्वदेशी” या “80% स्थानीय सामग्री” का उपयोग जैसी घोषणाएँ गर्व तो पैदा करती हैं लेकिन जब सीडीएस स्वयं यह कहें कि वास्तविकता इससे बहुत कम है, तो यह न केवल उद्योग की विश्वसनीयता पर प्रहार है, बल्कि पूरे आत्मनिर्भरता-वृत्तांत को भी चुनौती है। विदेशी मशीनों को सिर्फ देसी पेंच से जोड़कर किसी प्रणाली को “स्वदेशी” कहना आत्मनिर्भरता की परिभाषा से खिलवाड़ है। युद्ध जैसी घड़ी में आयात पर निर्भर घटक नहीं आयें तो पूरी प्रणाली ठप हो सकती है। इसलिए भारत के घरेलू रक्षा उद्योग को और जिम्मेदारी के साथ काम करना होगा।
साथ ही सीडीएस की यह टिप्पणी कि भारतीय कंपनियाँ अंतरराष्ट्रीय बाजार का सामना करने लायक मूल्य-प्रतिस्पर्धा नहीं रखतीं, एक और कठोर सच्चाई उजागर करती है। सरकारी खरीद का प्रतिस्पर्धी होना बहुत जरूरी है क्योंकि महँगे हथियारों की कीमत अंततः करदाताओं से ही चुकाई जाती है। साथ ही सीडीएस का “थोड़ा राष्ट्रीयवाद” वाला कथन मूल रूप से उद्योग की नैतिक जिम्मेदारी पर भी प्रकाश डालता है। राष्ट्र की सुरक्षा केवल सरकार और सेना की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि रक्षा उद्योग भी उतना ही साझेदार है। पर यह साझेदारी तभी सार्थक बनेगी जब लाभ कमाने के साथ कंपनियाँ सुरक्षा की संवेदनशीलता और समयसीमा की गंभीरता को समझें। यह भी समझना होगा कि रक्षा उद्योग केवल एक कारोबारी क्षेत्र नहीं, बल्कि रणनीतिक परिसंपत्ति है। इस क्षेत्र में अतिशयोक्ति, देरी या गैर-पारदर्शिता, किसी अन्य उद्योग की तुलना में कई गुना अधिक खतरनाक हो सकती है।
यदि रक्षा उद्योग सचमुच आत्मनिर्भर भारत का स्तंभ बनना चाहता है, तो उसे कुछ बुनियादी बदलावों को स्वीकार करना होगा। जैसे EP अनुबंधों पर कठोर दंडात्मक प्रावधान करने होंगे और इसके तहत समयसीमा तोड़ने पर आर्थिक जुर्माने या ब्लैकलिस्टिंग जैसे कदम उठाने होंगे। साथ ही स्वदेशीकरण का स्वतंत्र ऑडिट कराना चाहिए। इसके अलावा, माइलस्टोन आधारित अनुबंध होने चाहिए, अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप मूल्य निर्धारण होना चाहिए और R&D आधारित उद्योग मॉडल होना चाहिए क्योंकि केवल असेंबली पर आधारित उद्योग टिकाऊ नहीं होते।
देखा जाये तो जनरल चौहान का बयान वास्तविक अनुभव से निकला है। उनके शब्द उद्योग को कटघरे में नहीं, बल्कि दायित्व के दायरे में लाते हैं। भारत आज ऐसे मोड़ पर है जहाँ आधुनिक युद्ध केवल सीमा पर नहीं, अंतरिक्ष से लेकर साइबर और ड्रोन-तकनीक के नए क्षेत्रों में लड़ा जा रहा है। इस नए युद्धक्षेत्र में देरी, अनिश्चितता या गलत दावे की कोई जगह नहीं है। रक्षा उद्योग यदि वही पुरानी असेंबली आधारित सोच, ऊँचे दाम और ढीली समयसीमा पर चलता रहा, तो आत्मनिर्भरता का सपना एक आकर्षक नारा तो रहेगा, पर वास्तविकता नहीं बनेगा।
-नीरज कुमार दुबे