धर्म बदलना दलितों का अधिकार, लेकिन क्या इससे हालात बदल जाएंगे?

By योगेन्द्र योगी | May 02, 2018

गुजरात के उना में चार दलितों को प्रताड़ित करने का आक्रोश दलित समाज के 350 परिवारों ने बौद्ध धर्म अपना कर जताया है। जुलाई 2016 में चार दलितों को गोरक्षकों ने प्रताड़ित किया था। इससे पहले भी ऐसे मौके आए हैं, जब दलितों ने नाराजगी का इजहार धर्म परिवर्तन कर जताया है। बसपा प्रमुख मायावती ने भी राजनीतिक कारणों से पूर्व में ऐसी ही धमकी दी थी। मायावती उत्तर प्रदेश में कई बार सत्ता में रहीं पर दलितों की हालत दयनीय ही बनी रही। मायावती ने उनकी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक हालत में सुधार करने के गंभीर प्रयास नहीं किए।

संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में अंकित है कि कोई किसी भी धर्म को अपना कर प्रचार−प्रसार कर सकता है। दलितों का धर्म परिवर्तन करना महज एक कानूनी प्रक्रिया नहीं है। इसके मायने गहरे हैं। सवाल यही है कि क्या बौद्ध धर्म अपनाने से दलितों के प्रति व्याप्त मानसिकता बदल जाएगी। क्या इससे उनकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों में परिवर्तन आ जाएगा? धर्म परिवर्तन करना एक तरह से पलायन करना है। ऐसा करना उन समस्याओं से मुंह फेरना है, जिनके कारण दलितों की हालत दयनीय बनी हुई है।

 

दलितों के साथ होने वाली प्रताड़नाएं केवल धर्म परिवर्तन से नहीं थमेंगी। इसका कारण भी है परिवर्तन धर्म में किया गया है, परिस्थितियां इसके बाद भी पहले जैसी ही बनी रहेंगी। मसलन रोजगार, जमीन−जायदाद और स्थानीय स्तर पर व्यवसाय में कोई अंतर नहीं आएगा। इन परिवारों के बच्चे भी उन्हीं स्कूलों−कॉलेजों में पढ़ेंगे, जहां पहले से पढ़ते आए रहे हैं। इससे जाहिर है कि केवल मात्र धर्म परिवर्तन से हालात बहुत बेहतर होने वाले नहीं हैं, सिवाय इसके कि यह आक्रोष जताने का एक तरीका है।

 

आजादी से पूर्व डॉ. भीमराव अंबेडकर के भी ऐसे प्रयास सिरे नहीं चढ़ सके। डॉ. अंबेडकर ने सन 1935 में दलितों को दूसरे धर्म अपनाने के प्रयासों पर बल दिया। उनकी इस उद्घोषणा के बाद इस्लाम, ईसाई और सिख धर्म के प्रतिनिधियों ने अपने−अपने धर्म की तरफ उन्हें जोड़ने का प्रयास किया। इसके करीब दो दशक बाद बौद्ध धर्म की तरफ आकर्षित होकर अम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में लाखों अनुयायियों के साथ इसे स्वीकार किया। अम्बेडकर ने मूल बौद्ध धर्म की दोनों शाखाओं से अलग एक नई शाखा बनाकर अनुयायियों को दीक्षा दिलाई। जिसे नवयाना नाम दिया गया। अंबेडकर इसका प्रचार−प्रसार करके देश के शेष दलितों को दीक्षित करते, इससे पहले ही उनका निधन हो गया। नवयाना की दीक्षा के दो महीने बाद ही अंबेडकर का इंतकाल हो गया।

 

यह संभव है कि यदि अंबेडकर एक−दो दशक और जीते तो शायद बड़ी संख्या में दलितों को बौद्ध धर्म की नई शाखा में शामिल कराने में कामयाब हो जाते। अंबेडकर ने भी तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालात से क्रुद्ध होकर बौद्ध धर्म अपनाया था। अंबेडकर के निधन के बाद ही दलितों को बौद्ध बनाने का प्रयास कमजोर पड़ गया। उनका स्थान कोई दूसरा बड़ा दलित नेता नहीं ले सका। हालांकि आजादी से पूर्व उत्तर प्रदेश और पंजाब में भी ऐसे प्रयास किए गए। डॉ. अंबेडकर की तरह इन प्रयासों को भी सफलता नहीं मिली। पंजाब में अच्युतानंद हरिहर ने सन 1905 से 1912 तक आर्य समाज शुद्धि सुधार आंदोलन में हिस्सा लिया। फिर इससे मतभेद होने के कारण अलग होकर भारतीय अछूत महासभा का गठन किया। इसे सामाजिक−राजनीतिक आंदोलन बनाने का प्रयास किया।

 

अच्युतानंद ने दलितों से आदि धर्म की ओर लौटने का आह्वान किया। इसमें भी उन्हें ज्यादा कामयाबी नहीं मिली। इसी तरह पंजाब में सन 1925 में बाबू मंगूराम ने भी दलितों का मुद्दा उठाया। तेईस साल की आयु में अमरीका चले गए मंगूराम ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत की गदर पार्टी को हथियारों की आपूर्ति की। अच्युतानंद की तरह मंगूराम को भी दलितों को अलग धर्म अपनाने में ज्यादा सफलता नहीं मिली। बाद में वे अंबेडकर आंदोलन में शामिल हो गए। अंबेडकर दलितों के एकछत्र नेता होने के बाद भी देश के सभी दलितों को बौद्ध धर्म की नई शाखा में धर्म परिवर्तन नहीं करा सके।

 

अमेरिकन समाजशास्त्री रैन्डल कौलिंस ने लिखा है कि 12वीं शताब्दी के आखिर में बौद्ध धर्म का सूरज अस्तांचल की और था। 13वीं शताब्दी में विदेशी मुस्लिम आक्रान्ताओं के आक्रमण के बाद तो इस धर्म का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया। इसके बाद से यह धर्म भारत के प्रमुख धर्मों में स्थान नहीं बना पाया। भारत की आजादी से पूर्व और बाद में किए गए छुटपुट धर्म परिवर्तन के प्रयासों को ज्यादातर दलितों ने स्वीकार नहीं किया। दलितों को अंदाजा है कि उनके हालात केवल मात्र धर्म बदलने से सुधरने वाले नहीं हैं।

 

दलितों के हालातों में सुधार हुआ भी है तो शिक्षा, सामाजिक−राजनीतिक चेतना, आर्थिक प्रगति और विशेष कानूनी संरक्षण की बदौलत हुआ है। इसके विपरीत राजनीतिक दलों ने इस वर्ग का इस्तेमाल वोट बैंक की तरह ही किया है। दलितों की झंडाबरदार बसपा भी इसमें पीछे नहीं रही। मायावती पर भ्रष्टाचार और अपने महिमामंडन के आरोप लगे। किसी भी तरह की प्रताड़ना और भेदभाव के प्रति आवाज बुलंद करना सभी का अधिकार है, किन्तु अन्याय से लड़ने की बजाए पलायन करने समस्या का समाधान नहीं होगा। इतिहास इसका गवाह भी है।

 

देश में अनुसूचित जाति−जनजाति की तरक्की के लिए सरकारी योजनाओं की कमी नहीं है। इन योजनाओं का फायदा हर दलित और आदिवासी परिवार को मिल रहा है या नहीं, इसकी निगरानी किए जाने की आवश्यकता है। इन योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिगुल बजाए जाने की जरूरत है। इसके लिए धर्म परिवर्तन नहीं बल्कि मानसिकता में बदलाव होना चाहिए। जनजागृति अभियान चलाए जाने की जरूरत है। इसके लिए सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दलितों को मुक्ति के लिए अपनी कुरीतियों की बेड़ियों को भी तोड़ना होगा। परंपरागत सामाजिक बुराईयां उनकी प्रगति में प्रमुख बाधा हैं। परंपरागत व्यवसायों को छोड़कर नए तौर−तरीके अपनाने होंगे। राजनीतिक दलों का वोट बैंक बनने के बजाए उन्हें रोजगार, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसी योजनाओं को राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में शामिल कराने का दबाव बनाना होगा। धर्म परिवर्तन के जरिए रोष जताना अभिव्यक्ति का अधिकार जरूर है, किन्तु इससे बुनियादी परिवर्तन नहीं आ सकेगा।

 

-योगेन्द्र योगी

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