बदलती कार्य संस्कृति में अपने को नहीं ढालेंगे तो पिछड़ जाएंगे

By कौशलेंद्र प्रपन्न | May 04, 2018

आज एक ऐसी कहानी सुनाना चाहता हूं जो बेहद मौजू है। वह इस तरह कि हमारा वर्क कल्चर, वर्क नेचर, वर्क प्लेस आदि सब बहुत तेजी से बदल रहे हैं बल्कि बदल चुके हैं। इसे बदलते वर्क कल्चर में स्वयं को समायोजित करना बेहद ज़रूरी हो चुका है। जो खुद को बदलते व्यावसायिक नेचर में बदल नहीं पाता वह अप्रासंगिक हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को रिफ्रेशर कोर्स में भेजा जाता है ताकि अपने प्रोफेशन में होने वाले बदलाव को समझें और उस बदलते परिवेश के साथ एडजस्ट करना सीख पाएं। तकनीक उन बदलावों में सबसे आगे है। तकनीक ने जिस प्रकार वर्क कल्चर और प्लेस को परिवर्तित किया है उतना शायद कोई और तत्व नहीं हो सकते हैं। लेकिन तमाम परिवर्तनों के बावजूद कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पुराने ढर्रे पर ही काम करते हैं। उन्हें पुरानी शैली ही पसंद आती है। ऐसे ही लोगों की कैपसिटी डेवलप्मेंट के लिए कंपनी, संस्था वर्कशॉप की प्लानिंग करती है। कोई भी संस्था व कंपनी अपने काबिल प्रोफेशनल को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती। यदि उस व्यक्ति को कुछ प्रोफेशनल कोर्स कराने का खर्च भी उठाना पड़े तो वह करती है। ऐसे में काफी हद तक व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह बदलते परिवेश, जॉब की डिमांड, बदलती सांस्थानिक अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए तत्पर है।

शिक्षा, लाइफ साइंस, पत्रकारिता, सीएसआर, हेल्थ सेक्टर आदि जिस भी प्रोफेशन पर नज़र डालें हर तरफ बदलाव बहुत तेजी से रेखांकित किए जा सकते हैं। एक दिन मेरी बहन ने देर रात फोन किया, भईया मुझे कल स्कूल में डेकोरेशन करना है। थीम इनवायरमेंट और चाइल्ड सेफ्टी है। कैसे करूं? यह कोई टीचर का काम है? हम तो टीचिंग के लिए हैं। हमसे क्लास में पढ़वाने का काम लेना चाहिए आदि आदि। आवाज़ में बेचैनी, कोफ्त, चिंता आदि साफ सुन रहा था। कुछ देर उसकी बात सुन लेने के बाद टीचिंग और टीचर के बदलते वर्क कल्चर, डिमांड के बारे में बात की। बात की कि कैसे एक टीचर आज सिर्फ पढ़ाने के लिए नहीं बल्कि स्कूल की ब्रांडिंग के लिए भी काम करता है। पेरेंट्स को लुभाएंगे नहीं तो बच्चे कहां से बढ़ेंगे? बच्चे नहीं होंगे तो क्या तुम्हारी नौकरी बची होगी? आदि। आज कौन सा प्रोफेशन रिस्क फ्री है। कोई भी नहीं। बल्कि हर प्रोफेशन में अब रोज दिन खुद की सार्थकता सिद्ध करनी होती है। आप ही क्यों? इसका जवाब हमें रोजदिन देने होते हैं। कई बार यह रिस्क फैक्टर आपको चौकन्ना रखने, काम के प्रति सचेत रहने के प्रति प्रेरित करता है। अंत में बहन मानसिक तौर पर यह मानने को तैयार हो गई कि हां यह काम भी तो प्रकारांतर से उसके काम को बेहतर ही बनाता है।

 

ऊपर जिस कहानी को आपने सुना वह व्यक्तिगत तजुर्बा है लेकिन इसको सार्वजनिक अनुभव से जोड़कर देखने समझने की आवश्यकता है। न केवल स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, मीडिया घराने इस प्रकार के अतिरिक्त कामों के दबाव में आ चुके हैं बल्कि हर प्रोफेशन अब जिसे पहले प्यार माना जाता था नहीं रहे। कसौली के डाक वितरक से बातचीत का एक अंश रखना चाहता हूं। वह व्यक्ति पचास के आस पास का रहा होगा उसने बताया अब तो हमें मोबाइल रखना होता है। केवल पत्र, डाक बांटने का काम ही नहीं रहा बल्कि हम अब अन्य काम भी किया करते हैं। इश्योरेंश, कार्ड, आदि सेल करना भी हमारे हिस्से में आ चुका है। वहीं एक बैक मैनेजर रात के आठ बजे अपनी सीट पर मिला। लगभग घिघियाते हुए कहा आप हमारे बैक से लोन ले लीजिए। एकाउंट में फलां एमाउंट रखिए आदि आदि। ताज्जुब हुआ। लेकिन बातचीत के दौरान बताया कि उस पर किस प्रकार के कामों के दबाव भी होते हैं। जो बैंक मैनेजर बेहतर टारगेट हासिल करता है उसका प्रमोशन और इंक्रीमेंट सब समय पर और बेहतर होता है। वहीं मेरे कई दोस्त पत्रकारिता में भी अच्छा कर रहे हैं। कोई समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में हैं तो कोई न्यूज चैनल में। कभी साथ काम किया करते थे सो कुछ तो अनुमान था वर्क कल्चर का। लेकिन इधर के पंद्रह सालों में जिस तेजी से पत्रकारिता जगत भी बदला है उसके देखते−सुनते हुए एहसास पुख्ता होता है कि काश! प्रभाष जी, राजेंद्र माथुर, दीनानाथ मिश्र, सुरेंद्र प्रताप सिंह होते तो उन्हें कैसे लगता। कैसे वे खबरों की जगह स्पेस बेच रहे होते। कैसे संपादकीय, खबर विभाग खबर कम विज्ञापन के अनुसार खबरें बड़ी और छोटी किया करते। कैसे पन्नों को विचार, विज़न निर्माण की बजाए बाजार के अनुसार पन्नों को रंगा करते आदि।

 

कभी आप अपने आस−पास नज़र दौड़ाएं तो कई लोग दिखाई देंगे जो अपने अपने प्रोफेशन को लेकर जूझ रहे हैं। वो कैसे अपनी प्रोफेशन को जिंदा रख पाएं इसके लिए रोज़दिन संघर्ष कर रहे हैं। घड़ीसाज़ को इन दिनों देखा है। धीरे धीरे हमारे परिवेश से एक एक कर गायब होते जा रहे हैं। एक दिन मुझे अपनी घड़ी के बेल्ट बदलवाने थे। आस−पास दुकानें तलाशते हुए मुझे कम से कम आधा घंटा खराब हो गया तभी एक सरदार जी मिले जो घर में बैठे थे। घर के बाहर एक खोमचानुमा घड़ीसाज़ की दुकान भी खोल कर काम चला रहे थे। बातों बातों में उन्होंने ऐसी ऐसी बातें बताईं जिसे किसी और लेख व कहानी में हिस्सा बनाना होगा। लेकिन वे साहब बेहद दुखी थे। उन्होंने बताया कि कभी वे इसी दुकान से घर चलाया करते थे। अब स्थितियां बदल चुकी हैं। अब घड़ी खरीदते ही कम लोग हैं। मोबाईल में समय देख लेने वाली पीढ़ी को देख देख कर कुढ़ते मिले सरदार जी।

 

सिर्फ एक ही प्रोफेशन नहीं बल्कि समाज में और भी कई व्यवसाय हैं जिन्हें जिंदा रहना मुहाल हो रहा है। नाई की दुकान ही ले लें। यदि वह सिर्फ बाल कटाने, दाढ़ी बनाने का काम ही करता है तो वह आज की तारीख़ में बाजार में खड़ा नहीं हो सकता। उसे स्पा, ब्यूटी सामग्री आदि के काम भी करने होंगे। वरना ग्राहकों को जहां ये तमाम चीजें मिलेंगी वह वहीं चला जाएगा। एक छत के नीचें सारी सुविधाओं की उम्मीद पाल बैठा ग्राहक बहुत तेजी में है। उसकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए प्रोफेशनल को अपनी कार्यशैली और काम के समय को भी लचीला बनाने की आवश्यकता है। दर्जी की दुकान पर कभी कपड़े सिलवाने के लिए हमें सप्ताह भर लगा करते थे। एक शर्ट या पैंट बनाने में वह कम से कम एक सप्ताह तो मांगता ही था। अब हमारे पास न तो एक सप्ताह का इंतज़ार है और न दर्ज़ी की कलाकारी पर भरोसा ही। तुरत फुरत में सब कुछ चाहिए। आज दर्ज़ी या तो दूसरे कामों में लग चुके हैं या फिर अपनी दुकान बढ़ाकर किसी मॉल या शोरूम के बाहर ऑल्टर करते पाए जाते हैं। ऐसे ही और भी प्रोफेशनल हैं जो धीरे धीरे समाज से लुप्त होते जा रहे हैं। या फिर मर्जिंग के दौर से गुजर रहे हैं।

 

समग्रता में देखें तो एक व्यक्ति आज जिसके लिए दक्ष था उसे अब अपनी दक्षता की परिधि को फैलाना पड़ रहा है। कैसे एक टीचर वह चाहे स्कूल का हो या कॉलेज का उसे पढ़ाने के अलावा अन्य काम भी करने के लिए तैयार रहना होगा जिसकी उन्होंने उम्मीद व अनुमान नहीं किया था। उसी प्रकार पत्रकारिता, हेल्थ सेक्टर आदि भी हैं जहां अब वर्क कल्चर, वर्क प्लेस आदि बदल चुके हैं। आज बदले हुए परिवेश और प्रोफेशनल डिमांड को पूरा करना हर व्यक्ति की स्वयं की दक्षता और प्रोफेशनल चुनौतियों को स्वीकार कर अपने आप को तैयार करना होगा।

 

-कौशलेन्द्र प्रपन्न

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