अस्तित्व बचाने के संकट से जूझती कम्युनिस्ट पार्टियां

By डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा | May 06, 2024

देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। साल 2004 कम्युनिस्ट पार्टियों के उम्थान का काल कहा जाए तो उसके बाद वाम दलों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व लगातार कम ही होता जा रहा है। अब 18 वीं लोकसभा के चुनावों में वामदलों के सामने अपने अस्तित्व को बचायें रखने का संकट खड़ा हो गया है। आजादी से पहले और उसके बाद के दौर में एक समय था जब वामदलों की पूरे देष में तूती बोलती थी। सरकार भले ही कम ही राज्यों में रही हो पर वामदल और उसके अनुसंघी संगठन चाहे वह स्टूडेंट फैडरेशन हो या मजदूर संगठन या लेखक संघ सभी की अपनी पहचान और फोलोवर्स रहे हैं। पर समय का बदलाव देखिये कि आज वामदलों के सामने पहचान बनाये रखने का संकट खड़ा हो गया है। प. बंगाल में तो वामदलों तीन दशक से भी अधिक समय तक एक सत्र राज किया, वहीं त्रिपुरा, केरल में भी वामदलों की सरकार रही है। पर 2019 के लोकसभा के चुनाव आते-आते तो हालात यह हो गई कि वामदलों के गढ़ प. बंगाल में तो वामदलों को एक भी सीट नहीं मिली, वहीं त्रिपुरा में भी खाता खोलने में विफल रही। दरअसल समय की मांग को समझना और उसके अनुसार समयानुकूल बदलाव करना अपने आप में बड़ी बात होती है। जनभावना को भी समझना जरुरी हो जाता है। केवल विचारधारा और एग्रेसिव होने से काम नहीं चल सकता। फिर अपने अपने अहम् के चलते समय पर सही निर्णय नहीं लेने का परिणाम देर सबेर भुगतना पड़ता है। ज्योति बसु के पास तीन बार प्रधानमंत्री बनने के अवसर आये पर पोलिट ब्यूरों ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर सहमति नहीं दी। कल्पना कीजिए कि ज्योति बसु तीन में से किसी एक अवसर पर प्रधानमंत्री बनते तो उसका लाभ अंततोगत्वा वामदलों को ही मिलता पर आपसी मतभेदों या मनभेदों के चलते सही विकल्प नहीं चुनने का परिणाम आज सामने हैं।


गत 2019 के लोकसभा चुनावों की ही बात की जाएं तो वामदलों को लोकसभा के लिए छह सीटे मिली हैं। इसमें भी एक समय कम्युनिस्टों के गढ़ रहे प. बंगाल और त्रिपुरा में तो वामदलों का खाता भी नहीं खुल सका। तमिलनाडु में गठबंधन के सहारे माकपा और भाकपा को दो-दो सीटे मिल गई वहीं केरल में माकपा और आरएसपी एक-एक सीटें जीतने में सफल हो सकी। जैसे तैसे केवल माकपा राष्ट्रीय दल के रुप में अपनी पहचान बनाने में सफल रही है। यह भी कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं है कि लोकसभा के इससे पहले के तीन चुनावों के पहले 2004 के चुनावों में वामदलों के पास 59 सीटें थी। हालात यह थे कि कांग्रेस-भाजपा के बाद लोकसभा की तीसरी बड़ी ताकत वामदल थे। कांग्रेस के साथ गठबंधन कर वामदल सरकार में भी शामिल हुए। लोकसभा स्पीकर का पद भी वामदलों के पास ही गया। देखा जाए तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार भी ठीक ही चली पर परमाणु समझौते के चलते बाद में वामदल सरकार से बाहर हो गए। ममता के चलते प. बंगाल में वामदल लगभग अप्रासंगिक होता जा रहा है और प. बंगाल में वामदल के स्थान पर भारतीय जनता पार्टी उभर रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि वायनाड़ से राहुल गांधी का चुनाव लडना भी वामदल को हानि पहुंचाने वाला ही रहा है। खैर यह अलग विचारणीय प्रश्न हो जाता है। एक समय था जब ज्योति बसु को केन्द्र की राजनीति में लाने के प्रयास हुए पर आपसी मतभेदों के चलते वामदलों ने इसे सिरे से चढ़ने ही नहीं दिया। वामदलों की अस्तित्व के संकट को यों भी समझा जा सकता है कि किसी समय विपक्षी दलों में वामदलों की तूती बोलती थी आज कोई बड़ा नाम सामने नहीं आ पा रहा है। प्रकाश करात या सीताराम येचुरी आदि के नाम यदा कदा ही सामने आ पाते हैं। एक समय था जब सोम दा, इन्द्र जीत गुप्त, एबी वर्द्धन, ज्योति बसु और उससे पहले की भारतीय राजनीति पर दृष्टिगोचर किया जाए तो पी. सुन्दरैया, सी. राजेश्वर राव, ईएमएस नंबुदरीपाद, एके गोपालन, बीटी रणदीव जैसे अनेक नाम थे जिनका भारतीय राजनीति में अपनी अलग हैसियत और पहचान रही।

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वामदलों की चुनावों में सूखा 2009 के चुनावों से लगातार बढ़ता गया है। 2004 में जहां 59 सीटे थी जो 2009 में कम होकर 24 रह गई, 2014 के चुनावों में उसकी भी आधी यानी 12 और 2019 के चुनावों में उसकी आधी यानी कि 6 रह गई। अब 2024 के लोकसभा के चुनावों में वामदलों के सामने अपनी पहचान बनाये रखने का संकट आ गया है। प. बंगाल, त्रिपुरा से कोई खास लगता नहीं हैं, केरल में भी हालात ज्यादा नहीं बदले हैं।


दरअसल वामदलों के हाशिये में जाने के अन्य कारणों के साथ ही ममता का प. बंगाल में पकड़ बनाये रखना है तो बीजेपी वहां अपनी पैठ लगातार बढ़ाने के प्रयास कर रही है। दूसरी और कहने को कुछ भी कहा जाएं पर भाजपा या मोदी को सत्ता से हटाने के लिए विपक्षी दलों द्वारा आपसी सहमति या यों कहें कि इंडी का कंसेप्ट भी चल नहीं पाया है। तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि वामदल जिसे अपना वोट बैंक मान कर चलता रहा है उस वोट बैंक पर सैंध भी उन्हीं के साथ समझौता कर रही कांग्रेस पार्टी है। केरल में अल्पसंख्यकों के साथ ही हिन्दुओं के वामदलों के वोट कांग्रेस अपनी और करने में सफल रही है। फिर वामदलों के नेताओं की जो यूएसपी अच्छे वक्ता के रुप में होती थी वह आज दिखाई नहीं देती। समय के साथ बदलाव को आत्मसात् नहीं करने के कारण ही सोशल मीडिया जो आज प्रमुख माध्यम बन गया है, उस क्षेत्र में वामदल कहीं पिछड़ गए हैं। दरअसल गठबंधन की राजनीति के अपनी लाभ हानि है और एक कारण यह भी है कि यह गठबंधन एक चुनाव के लिए होता है तो राज्य स्तर पर होने वाले चुनाव में प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं। इससे जनता में भी मैसेज अलग तरह का जाता है।


ऐसे में वामदलों को 18 वीं लोकसभा में अपनी पहचान बनाये रखने के लिए कठोर परिश्रम करना होगा। वामदलों के सामने दरअसल अभी विकल्प कम ही है। वामदल के कमिटेड वोटर्स छिटक गए हैं तो नेतृत्व द्वारा ना तो दूसरी लाईन के नेता तैयार किये गया हैं और ना ही केडर को मजबूत करने के प्रयास किये गये हैं। जन आंदोलन जो कभी वामदल की पहचान होती थी वह कहीं नेपथ्य में चली गई है। एक समय था जब छोटी सी छोटी जगह भी कोई ना कोई कामरेड मिल जाता था जिसकी अपनी पहचान होती थी, उस तरह के नाम आज तलाशने पड़ते हैं। 2024 के चुनावों के नतीजें जो भी हो पर आगे के लिए वामदलों को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए ठोस रणनीति बनाकर एग्रेसिव रुप से आगे आना होगा। 


- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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