By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Dec 04, 2025
पहली बार जिला मुख्यालय में “ईमानदारों का राष्ट्रीय सम्मेलन” आयोजित हुआ। स्वागत द्वार पर बड़े अक्षरों में लिखा था—“सच्चाई ही हमारी पहचान है।” नीचे छोटा अक्षर में लिखा था—“प्रायोजक: यूनिवर्सल कंस्ट्रक्शन कंपनी (जिस पर सीबीआई की जांच जारी है)।” मुख्य अतिथि, माननीय मंत्री जी, जिन्होंने हाल ही में अपनी तीसरी पत्नी के नाम पर पाँच एकड़ ज़मीन रजिस्टर कराई थी, मंच पर पहुँचे तो तालियाँ गूँज उठीं। भीड़ में से किसी ने कहा—“यही सच्चे ईमानदार हैं, सब कुछ खुलेआम करते हैं!” मंत्री जी मुस्कुराए। उन्होंने भाषण में कहा—“देश को अब ईमानदारी की कमी नहीं, बस पहचानने की ताकत चाहिए।” भाषण समाप्त होते ही मंच संचालक ने घोषणा की—“अब ईमानदारी सम्मान समारोह होगा।” पुरस्कार स्वरूप मंत्री जी ने हर प्रतिनिधि को घड़ी भेंट की, जिस पर उनका चुनाव चिन्ह खुदा था। पत्रकारों ने पूछा—“घड़ी असली है या नकली?” आयोजक बोला—“घड़ी असली है, बस समय नकली बताती है।”
दूसरा सत्र ‘नैतिकता के नए मानदंड’ पर था। एक वक्ता, सरकारी बाबू, बोले—“पहले रिश्वत को अपराध माना जाता था, अब यह सहयोग शुल्क कहलाने लगी है। समाज विकासशील है, शब्दावली भी होनी चाहिए।” दूसरे वक्ता, प्राइवेट स्कूल के संचालक, बोले—“हम बच्चों में नैतिकता लाने के लिए जीना कठिन बना देते हैं। फिर जब बच्चा नियम तोड़ने लगे, तो वही असली नागरिक कहलाता है।” सभागार तालियों से गूंज उठा। तभी मंच के पीछे से आवाज़ आई—“कृपया चोरी गई कुर्सियाँ वापस करें।” प्रतिनिधि मुस्कुराए—“ईमानदारी का सम्मेलन है, कुर्सियाँ कहाँ जाएँगी?” कुछ देर बाद पाया गया कि दर्जनभर कुर्सियाँ पार्किंग में बिक्रय हेतु रखी थीं। आयोजक ने घोषणा की—“यह व्यवस्था शुल्क है।” बाबू जी बोले—“वाह, देश आगे बढ़ रहा है!”
तीसरे सत्र में “डिजिटल ईमानदारी” पर चर्चा हुई। एक युवा अफ़सर ने कहा—“अब सब ऑनलाइन है। भ्रष्टाचार भी पारदर्शी हो गया है। ट्रांजैक्शन सीधे खाते में आती है, दलालों की ज़रूरत नहीं रही। यह डिजिटल इंडिया की सफलता है।” एक और विद्वान बोले—“ईमानदारी अब ऐप में मिलती है, वेरिफाई करके डाउनलोड करनी पड़ती है।” तभी मंच के सामने एक गरीब व्यक्ति अपनी फ़ाइल लेकर आया—“बाबू जी, दो महीने से आवेदन लंबित है।” बाबू ने मुस्कुरा कर कहा—“भाई, यह ईमानदारी का सम्मेलन है, सुविधा केंद्र नहीं। यहाँ सिर्फ भाषणों की अनुमति है, काम की नहीं।” वह आदमी चुप हो गया, लेकिन पौधे के पास खड़ा एक बच्चा बोला—“अगर यह ईमानदार हैं, तो हमारे गाँव में झूठे कौन रहते हैं?” सभा मौन हो गई। पंखे की आवाज़ में ईमानदारी की झिल्ली सी फड़फड़ाने लगी।
सम्मेलन के अंत में अध्यक्षीय वक्तव्य हुआ। अध्यक्ष महोदय बोले—“हम सब अपने-अपने क्षेत्र के ईमानदार लोग हैं। मैं डॉक्टर के नाम पर दवा बेचता हूँ, शिक्षक नकली प्रमाणपत्र देता है, अफ़सर काम न करके फ़ाइल दबाता है, नेता जनता को भरोसा देता है—और यही राष्ट्रीय एकता का आधार है।” सभागार ठहाकों से भर गया। उन्होंने कहा—“अगले वर्ष हम ‘सच्चाई दिवस’ मनाएँगे, बशर्ते प्रायोजक मिल जाए।” बाहर निकलते हुए किसी ने पूछा—“क्या सम्मेलन सफल रहा?” आयोजक हँसा—“पूरा बजट खर्च हो गया, अब तो ईमानदारी साबित है!” रात को शहर लौटने वाले प्रतिनिधियों की बसें चलीं। सड़क किनारे एक ठेला वाला बैठा था, धीरे से बुदबुदाया—“साहब लोग ईमानदार हैं, इसलिए गरीब अब भी ज़िंदा है।” सड़क की बत्तियाँ झिलमिलाईं—शायद वे भी इस नई ईमानदारी पर मुस्कुरा रही थीं।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)