विचारों में कोरोना (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Apr 18, 2020

दुनिया के व्यवसायिक महागुरु ने अपने नए खतरनाक ड्रैगन की हरकतों को भी पचा लिया है। उनके स्वाद के बाज़ार में नए चमगादड़ों, कुत्ते और खरगोशों के फिर से बुरे दिन आ गए हैं। वायरस की दुनिया का पुराना खिलाड़ी अपनी सफलता पर डरते डरते खुश है। विकासजी की दूसरी फैक्ट्रियों में मौत का उत्पादन रुक नहीं रहा हालांकि इंसान अपनी हरकतों पर शर्मिंदा होने लगा है। ज़िन्दगी जब बाज़ार हो चुकी हो तो उत्पादन का व्यवसाय कौन खत्म का कर सकता है। शुक्र है कोरोना अभी तक भारत में वो नहीं कर पाया जिसकी उम्मीद में कई विचारक दिन रात एक किए हुए हैं। हमने भूख को देर से पटाया और समझाया लेकिन धर्म ने हमेशा की तरह फिर से नैतिकता का साथ छोड़ दिया। झूठ की कोख से समय के सच निकल रहे हैं। लगता है विद्रोही कवि सच कहा करता था, ‘मज़हब ही है सिखाता आपस में बैर रखना'। एक बार फिर दुश्मन को कमजोर समझा जा रहा है तभी उसकी परीक्षा नहीं ली जा रही और उसे फेल करने के लिए इम्तहान दिया जा रहा है। 

 

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आम जनता अपनी सहनशक्ति की परीक्षा में हमेशा की तरह पास हो गई लगती है। उसका जीने का उत्साह परवान पर है। लापरवाही की दीवार पर चढ़कर, सभी अपनी अपनी परीक्षाएं पास करने की उम्मीद पाल रहे हैं। असामाजिक नायक, अपनी नींद पूरी कर आवश्यक व्यायाम कर रहे हैं और खुद को अगली भूमिका के लिए तैयार कर रहे हैं। ज़रा सी बात पर दुनिया को हवन कर डालने वाले फिलहाल तो आवश्यक सामग्री इक्कठी कर रहे है। हमारा घर से बाहर जाने, घूमने, नाचने, बतियाने व मनोरंजन का शौक छूट नहीं रहा है। विकट अस्वस्थ समय में सीने में जलन, आंखों मे तूफ़ान और हर शख्स के परेशान होने की बातें के बीच एक दूसरे से बड़ा भारी प्यार होने की मिसालें दी जा रही हैं। 

 

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दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई जैसे व्यंग्यात्मक गीत अब भजन की तरह गुनगुनाए जा रहे हैं। वैसे हम व्रत रख रहे हैं, भजन भी कर रहे हैं, धार्मिक सीरियल देख रहे हैं बिना पानी हाथ धोए महसूस कर रहे हैं कि हाथ धो लिए हैं। घर के अन्दर खुश हैं, सोच रहे हैं काश हमारे देश में भूख न लगने वाली गोली विकसित होती तो परेशानी कम होती। असली दिक्कत तो भूख लगना है वैसे तो लोग पूरियां छोले और गुलाब जामुन भी खा रहे हैं। धार्मिक युग होते हुए भी ईश्वर से कुछ मांगने पूजास्थल जाना अभी संभव नहीं है। कुदरत खुश है लेकिन सृष्टि रचयिता पहली बार इतना उदास दिख रहा है, ज़िंदगी रुदाली होना चाहती है। कभी लगता है दुनिया में समाजवाद आने वाला है और बहुत कुछ उसके इशारों पर होना शुरू हो गया है।


- संतोष उत्सुक

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