वन्दे मातरम के सम्मान संबंधी नियम बनाकर इतिहास रच सकता था न्यायालय

By अनुतोष पाण्डेय | Nov 03, 2017

पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के दो जजों की खंडपीठ ने एक जागरूक भारतीय नागरिक द्वारा दायर की हुई जनहित याचिका (public interest litigation) को उच्चतम न्यायालय के एक आदेश का हवाला देते हुए खारिज कर दिया। भारतीय संविधान सभा की 24 जनवरी 1950 की सभा में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा दिए गए वक्तव्य, जिसमें उन्होंने हमारे राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् की महत्ता को बताते हुए कहा था कि “वन्दे मातरम् गीत ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इसलिए इसे हमारे राष्ट्रगान जन गण मन के बराबर सम्मान और महत्ता मिलनी चाहिए” को उद्धृत करते हुए जनहित याचिका में माननीय कोर्ट से ये प्रार्थना की गयी थी कि जिस प्रकार केंद्र सरकार ने राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज के सम्मान के लिए नियमों का निर्माण किया है उसी प्रकार राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् के सम्मान के लिए नियम बनाए जाएं।

यह जनहित याचिका भारतीय संविधान सभा के अभिलेखों के अलावा तमाम ऐतिहासिक तथ्यों और सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों को आधार बनाते हुए इस दलील को आगे रख रही थी कि जब राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् को राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज के बराबर सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त है तो वन्दे मातरम के सम्मान के लिए नियम क्यों नहीं बनाया गए हैं। ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे को दिल्ली हाई कोर्ट ने 17 अक्टूबर के अपने फैसले में सिर्फ कुछ पन्नों में निपटा दिया। माननीय कोर्ट ने साफ़ शब्दों में सुप्रीम कोर्ट के 17 फरवरी के एक अंतरिम आदेश का पालन करते हुए कहा कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रगीत वन्दे मातरम के मुद्दे को छूने से मना कर दिया है इसलिए हम इस याचिका को रद्द करते हैं। 

 

दिल्ली उच्च न्यायालय का यह रवैया बहुत चिंताजनक है, क़ानूनी तौर पर अगर देखा जाए तो कोर्ट ने इस बात पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया कि दिल्ली हाई कोर्ट के सामने प्रस्तुत जनहित याचिका और सुप्रीम कोर्ट के सामने पड़ी याचिका (जिस में सुप्रीम कोर्ट ने 17 फरवरी 2017 को अंतरिम आदेश दिये हैं) दोनों के तर्क और दलील एक दूसरे से अलग हैं और दिल्ली हाई कोर्ट ने मशीनी तौर से सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश को लागू कर दिया है। यहाँ एक गौर करने वाली बात यह है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सुप्रीम कोर्ट के सभी आदेश निचली अदालतों पर बाध्यकारी होते हैं पर यह बात सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेशों पर भी लागू होगी या नहीं यह बहस का विषय है 

 

कानूनी तर्कों को अगर दरकिनार भी कर दिया जाए तो इस जनहित याचिका में हाई कोर्ट के सामने एक अवसर था कि राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् की महत्ता, इसके सम्मान और इसके संरक्षण के लिए नए विचार आगे लाये। हमें इस बात को समझना होगा कि भारत जैसे संवैधानिक लोकतंत्र में न्यायालय को संविधान के अभिवाहक का दर्जा प्राप्त है और भारतीय जनमानस पर न्यायालय के विचारों, राय और टिप्पणी का बहुत प्रभाव पड़ता है और इस वजह से भारतीय न्यायालयों में फैसले देते समय न्यायाधीश सिर्फ क़ानूनी राय ही नहीं बनाते हैं बल्कि जनमानस में एक नए विचार का निर्माण भी करते हैं। हमारी न्यायपालिका सदा से सामाजिक मूल्यों, लोकतांत्रिक आदर्शों को ध्यान में रखते हुए लीक से हट कर कानूनों की नई व्याख्या करते हुए जन हितकारी फैसले देती रही है। जिसे एक तरह से भारतीय न्यायपालिका का रचनात्मक न्यायशास्त्र (Creative Jurisprudence) भी कहा जा सकता है पर अफ़सोस कि इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने इस परम्परा को तोड़ दिया।

 

आज के समय में जब भारत आतंकवाद और अलगाववाद जैसी मुश्किलों से घिरा हुआ है, आईएसआईएस, नक्सल इत्यादि आतंकवादी विचारधाराएँ भारत की मूल अवधारणा को ही चुनौती दे रही हैं, ऐसे वक्त में वन्दे मातरम जैसे प्रतीक देशवासियों में देशप्रेम और एकता का प्रसार कर सकते हैं। बेहतर होता कि दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला इस जरूरी बात पर भी कुछ प्रकाश डालता।

 

अभी कुछ दिनों पहले मद्रास हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में टिप्पणी करते हुए वन्दे मातरम् की महत्ता को बताया और साथ ही साथ वन्दे मातरम से जुड़े कुछ नियम भी बनाए। अगर दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसी टिप्पणी और राय वन्दे मातरम से जुड़ी जनहित याचिका के फैसले में की होती तो यह एक बेहतरीन मिसाल होती।

 

 

अनुतोष पाण्डेय

(लेखक पेशे से वकील हैं एवँ प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं।)

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