भारी छूट के खेल में पिस रहा है ग्राहक, हाथ पर हाथ धरे बैठी है सरकार

By संतोष उत्सुक | Sep 26, 2018

हम पत्नीपति शिमला के मॉल रोड़ पर टहल रहे थे। अचानक एक प्रसिद्ध ब्रांड की दुकान पर नज़र गई जहां लटकी पीले रंग की जैकेट अच्छी लगी। मैं उस दुकान की तरफ बढ़ने लगा तो पत्नी बोली दो चार दिन में ऑफ लगने वाला है यही जैकेट चालीस परसेंट डिस्काउंट पर मिलेगी। हुआ भी यही कुछ दिन बाद मैंने वह जैकेट रिबेट के मौसम में खरीद ली। ब्रांडेड जीरे का सौ ग्राम का पैकेट तीस रूपए का मिला जिस पर प्रिंट छियालीस रूपए है। प्लास्टिक वेयर पर छपा तीन सौ अस्सी रूपए है दो सौ चालीस में बेच रहे हैं। बिस्कुट के पैकेट पर पच्छतर रूपए प्रिंट है साठ रूपए में उपलब्ध है। यह तो कुछ चीजें हैं सैंकड़ों और भी हैं। जितना मर्ज़ी छापो और जितना मर्ज़ी में बेचो। दशकों से यह फार्मूला हर तरफ हिट है ‘ग्राहक को प्यारी सी भेड़ बनाकर रखो और ऊन निरंतर उतारते रहो’।

 

हमारे बाज़ारों में यह फार्मूला विदेश से आया है। यह डिस्कांउट फार्मेट अनेक प्रॉडक्टस के साथ चिपका हुआ है। मौसम बदलता है तो रेडीमेड्स के प्रिंट रेट पर पचास से अस्सी प्रतिशत तक महाहैवी रिबेट घोषित कर ग्राहकों पर प्रैशर बनाया जाता है। एक के साथ दो यहां तक कि तीन स्वैटर फ्री दिए जा रहे होते हैं। पचास जमा पचास परसेंट शर्तें लागू वाली सेल चालू हो जाती है। एक हज़ार रूपए का स्वैटर ढाई सौ में मिलता है। ब्रैंडिड कम्पनियां 2900 की शर्ट सात सौ सत्तर रुपए में लुटाती हैं। ब्रांडेड जूतों पर बीस से चालीस प्रतिशत तक छूट मिलती ही है। कितने जूतों पर रेट प्रिंट नहीं होता चाहे जितने में मार दो, यह ग्राहक की मोलभाव क्षमता है कि कितने में खा सकता है।

 

प्लास्टिक वेयर, कापियां, किताबें, पेस्टीसाइडस, खिलौने, शैम्पू, टाइलें वगैरा कितनी ही आइटम्स हैं जिनके रेट ग्राहक की शक्ल व अक्ल देखकर तय होते हैं। कपड़े के थान पर रेट प्रिंट नहीं होता मर्ज़ी मीटर के हिसाब से बिकता है। कपड़ों को प्रिंट रेट से सरकार ने बख्शा हुआ है। मगर अब जबकि रेडीमेड वस्त्रों ने बाजार पर कब्जा कर लिया है यह ज़रूरत महसूस होती है कि कपड़े के थान पर भी रेट प्रिंट होना चाहिए  ताकि डिस्कांउट के मौसम में इस पर भी छूट मिले। कपड़े पर रेट प्रिंट न करवा कर सरकार ने कपड़ा उद्योग व कपड़ा विक्रेताओं को ही फायदा पहुंचाया है। दवाइयों का मामला बेहद संजीदा रहा है। एलर्जी की दवाई चौबीस रूपए कुछ पैसे प्रिंट रेट की भी है और पांच रूपए में भी उपलब्ध रही है। सम्मानित कम्पनियों की यही दवाई पच्चीस से तीस रूपए में बिकती रही है। यदि दोनों दवाइयों की क्वालिटी और साल्ट एक जैसा है तो रेट भी एक जैसा होना चाहिए। पांच रूपए व पच्चीस रूपए का तो अन्तर पांच गुणा है जो कतई न्याय संगत नहीं है। अब जेनेरिक दवाइयां लिखी जा रही हैं मगर समझ में अभी तो आया नहीं कि आम लोगों को कितना फायदा हुआ।

 

सरकार विज्ञापित करती है कि छपी हुई दरों से कम भुगतान करने के लिए आप मोल भाव कर सकते हैं मगर इस अनुरोध को कितने दुकानदार स्वीकारते हैं। एक तरफ तो स्थानीय प्रशासन कितनी बार सुनिशचित करता है कि छोटे मोटे ढाबे वाले रेट लिस्ट लगांए, डबल रोटी का रेट तय हो, वज़न सही हो। इस बारे कितनी बार हंगामा, प्रदर्शन होता रहा है। छापे मारे जाते हैं खबरें व फोटोज़ छपती हैं, चालान जुर्माना होता है। दूसरी तरफ संबंधित सरकारी विभाग का किसी भी स्तर का कारिंदा चीज़ों पर चिपकाई मर्जी दाम के सम्बन्ध में चौकन्ना तो क्या जागरूक भी नहीं दिखता और कहीं नज़र नहीं आता। इस मामले में कोई र्कारवाई होना तो कोसों दूर की बात है। यह सीधे, सरे बाज़ार व्यवसायिक ठगी है। जो चाहे रेट लगा लो और जितना मर्जी या जैसा अवसर बने माल बना लो। क्यूंकि व्यापारी, सरकार व प्रशासन पैसा कमाने में जुटे रहना चाहते हैं। आम जनता नचैया गायक बनने, आईटम सौंग या सीरियल देखने, कहीं से भी किसी भी चीज़ के लिए लोन लेने या कम मेहनत कर ज्यादा माल बनाने में व्यस्त कर दी गई है। ब्रांडेड इंडियन्स अपनी लाइफ की स्टॉयलगिरी बनाए रखने में मस्त हैं। ब्रांड का दीवाना हो चुका भारतीय ग्राहक खुद ही ठगा जा रहा है। वास्तव में उसके विकल्प भी धीरे धीरे खत्म किए जा रहे हैं।

 

‘हमें क्या लेना……’ के मौसम में अब यह जिम्मेवारी सरकार व प्रशासन की बनती है। होना यह चाहिए कि सरकार हर वस्तु की प्रोडक्शन कॉस्ट को आधार मानकर निर्माता, होलसेलर और विक्रेता के लाभांश सहित सब्ज़ी इत्यादि को छोड़कर हर चीज़ पर रेट प्रिंट करवाए और उसी पर बिकवाए। यह सुनिश्चित हो कि दाम हर वस्तु पर छपे हों और दाम सही और वही हों जिन पर चीज़ वास्तव में बिकनी है ताकि क्रय विक्रय में पारदर्शिता आए और ग्राहकों का आत्मविश्वास स्थापित हो।

 

-संतोष उत्सुक

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