मुंबई के शायर समूह गुलज़ारियत की ओर से लिखी गयी यह नज़्म पाठकों को पसंद आयेगी। इसमें बड़े ही अलग अंदाज में जिंदगी से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर नजर डाली गयी है।
एक ख्वाब
इक ख्वाब मुकम्मल हो गया
इक ख्वाब सिरहाने टूट गया
गैरों को मनाने चला था तू
इक अपना था जो रूठ गया
जो नक्ष मेरा था कभी
आज उसे थमाया है तुमने
क्या रकीब को भी अहल-ए-वफा
सबक सिखाया है तुमने?
मुझ सा ही अपनी किस्मत पर
क्या इतराता है वो भी?
खो देने के डर से तुझको
क्या घबराता है वो भी?
क्या वो भी होठों से ज़्यादा
आँखों पर नज़र जमाता है?
क्या वो भी तेरे चेहरे को
उस चाँद से बेहतर बताता है?
वो बेहतर है ये पता नहीं
इक सच्चा दिल था टूट गया
तू भीड़ को पाने निकल पड़ी
इक अपना पीछे छूट गया।
- गुलज़ारियत