आर्थिक आरक्षण अच्छा और जातीय आरक्षण से आगे का कदम है

By विजय कुमार | Jan 22, 2019

लोकसभा के पिछले सत्र में अचानक मोदी सरकार ने गरीब सवर्णों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव रख दिया। अपवाद में दो-चार वोटों को यदि छोड़ दें, तो लगभग सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित हुआ। लोकसभा के बाद यह राज्यसभा में भी पारित हो गया। राष्ट्रपति महोदय के हस्ताक्षर से यह कानून बन गया और कई राज्यों में इस पर काम भी शुरू हो गया। यद्यपि इससे पहले जब भी आरक्षण संबंधी बात चली, तो दोनों सदनों में खूब तीखी चर्चा, बहस, वाद-विवाद आदि हुए। सड़कों पर हिंसक हंगामे और आंदोलन भी हुए। 

 

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पर इस बार सब शांति से हो गया। बाल की खाल खींचने वाले विपक्ष और स.पा., ब.स.पा., लो.ज.पा. जैसे जातीय दलों ने भी इसका समर्थन किया। अर्थात् इसके पक्ष में बड़ी अंतर्धारा विद्यमान थी। पर अब कुछ लोग न्यायालय में चले गये हैं। वे इसे आरक्षण की मूल भावना के विरुद्ध बता रहे हैं। क्योंकि संविधान में आरक्षण के लिए आधार जाति को बनाया गया था, गरीबी या अमीरी को नहीं। सवर्ण हिन्दुओं के साथ गरीब मुसलमान और ईसाइयों को भी इसका लाभ मिलेगा।  

 

आरक्षण को लाते समय यह बात उठी थी कि इससे निर्धन जातियों का आर्थिक और सामाजिक स्तर ऊंचा उठेगा। डॉ. अम्बेडकर जब बड़ोदरा राज्य में एक बड़े पद पर काम करते थे, तो चपरासी उन्हें फाइलें फेंक कर देता था। चपरासी और डॉ. अम्बेडकर की शिक्षा और वेतन में जमीन-आसमान का अंतर था। फिर भी ऐसा होता था। चूंकि डॉ. अम्बेडकर महार जाति के थे। इसलिए आरक्षण में जाति को मुख्य आधार माना गया। आगे चलकर कई अन्य जातियों को भी इसमें शामिल किया गया। इसे लेकर समय-समय पर कई आंदोलन हुए हैं। 

 

असल में आरक्षण का विषय रोजगार से जुड़ा है। आरक्षण के चलते सरकारी नौकरी मिलने से लोगों के रहन-सहन में कुछ सालों में ही भारी अंतर दिखता है। अतः कई जातियों की मांग है कि उन्हें भी इस श्रेणी में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिया जाए। काफी समय से आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग भी जोर पकड़ रही थी। सवर्ण जातियों में भी गरीबी तो है; पर इससे उनकी सामाजिक स्थिति पर अंतर प्रायः नहीं आता। जैसे गरीब होने पर भी डॉ. अम्बेडकर के चपरासी की सामाजिक स्थिति ऊंची थी; पर अब सरकारी नौकरियां और शहरीकरण के कारण खेती की जमीन घटी है। फिर शिक्षित युवा खेती करना भी नहीं चाहते।

 

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व्यापार की बात कहना तो आसान है; पर जिन परिवारों में इसकी परम्परा नहीं है, उन्हें यह कठिन लगता है। ऐसे में सरकारी नौकरी ही बचती है; और नौकरियां हैं नहीं। क्योंकि हर जगह कम्प्यूटर और मशीन आ गयी है। पहले बहुत कम लड़कियां नौकरी करती थीं; पर शिक्षा के विस्तार और महंगी जीवन शैली के चलते वे भी नौकरी में आ रही हैं। सरकारी नौकरी में स्थायित्व के साथ अधिक वेतन, कम काम और भरपूर छुट्टियां होती हैं। इसीलिए सौ स्थानों के लिए एक लाख लोग आवेदन करते हैं। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है ?

 

 

इसलिए आर्थिक आरक्षण देने से भी समस्या हल नहीं होगी, चूंकि मुख्य चीज रोजगार है। युवाओं को यह समझना होगा कि रोजगार का अर्थ केवल नौकरी नहीं है। यद्यपि आर्थिक आरक्षण अच्छा और जातीय आरक्षण से आगे का कदम है। यह पुराने आरक्षण को छेड़े बिना हुआ है, इसलिए स्वागत योग्य भी है; पर समस्या का पूरा समाधान तो निजी काम ही है। उससे पूरे परिवार को रोजगार मिलता है और वर्तमान ही नहीं, अगली पीढ़ी भी आर्थिक रूप से सुरक्षित रहती है। अतः युवाओं को इस दिशा में सोचना चाहिए। 

 

-विजय कुमार

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