चेहरा मिलान उत्सव (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Jun 10, 2025

इतने दिन जननी ने उसे अपनी कोख में पाला। मां होने के नाते उसका नैसर्गिक कर्तव्य रहा कि अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभाए। उसने खुद को भी चुस्त दरुस्त और स्वस्थ रखना था। नौकरी भी जारी रखनी थी ताकि उसे छ महीने का मातृत्व अवकाश मिले और अन्य सेवा लाभ भी। शुक्र है वर्क फ्रॉम होम चल रहा था। वह जान नहीं सकती थी कि उसके गर्भ में लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती का प्रतिरूप पल रहा है या हर सासू ही नहीं हर महिला का इच्छा स्वरूप पुत्र रत्न। वह मज़ाक में भी नहीं कह सकती थी कि पुत्र होगा क्यूंकि कितने ही मामलों में ज्योतिषीय घोषणाएं औंधे मुंह गिर चुकी होती हैं। यह अधिकार तो सिर्फ सृष्टि रचयिता के पास सुरक्षित है कि गर्भ में किस जेंडर की रचना करनी है। 


शिशु का संसार प्रवेश हो गया। कुछ घंटे बीते, मां अभी भी नहीं कहती या कहना नहीं चाहती कि उसके बेटे की शक्ल किससे मिलती है। वह उसका चेहरा खुद से भी नहीं मिलाती लेकिन दूसरों को यह नया काम मिल गया है। उनके लिए यह ज़रूरी काम है। कहा जाता रहा है कि लड़कों की प्रवृति मां जैसी होती है और लड़कियों की पिता जैसी लेकिन शिशु जन्म लेते ही अपनी प्रवृति, बुद्धि और शौर्य का प्रदर्शन नहीं कर पाता। इसके लिए दुनिया वाले तैयार रहते हैं। सबसे पहले परिवार के लोग शक्ल मिलाने का कर्तव्य निभाना शुरू कर देते हैं, एक कहेगा इसकी शक्ल तो बड़ी बहन जैसी है। कोई महिला कहेगी, यह तो अपने पापा जैसा है। कोई नहीं कहता कि मम्मी जैसा है।

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अगली सुबह बच्चे की शक्ल बदली लगेगी तो कोई कह देगा यह तो अपनी नानी जैसा है। फिर अनुशासित मज़ाक में बच्चे के नाना कहेंगे, नहीं नहीं इसकी शक्ल तो इसकी दादी जैसी है। यह सुनकर पास बैठी दादी गर्व का अनुभव करेगी कि उसका पोता उसके जैसा ही दिख रहा है। फिर कोई कहेगा कि बीच बीच में अपनी मम्मी जैसा भी लगता है। बच्चे के दादा कहेंगे कोई मेरे साथ भी मिला दो मेरे पोते की शक्ल। चेहरा मिलान उत्सव में महिलाएं ज्यादा भाग लेती हैं। भगवान् का लाख लाख शुक्रिया कर रही होती हैं कि हमारे परिवार में आपने एक और लडकी नहीं दी बल्कि पुत्र रत्न भेजा। 


वह हमेशा की तरह आज भी इस तथ्य को नकारती हैं कि जिसने पुत्र रत्न को जन्म दिया वह भी महिला है। पुरुष के शुक्राणु के कारण गर्भ में लड़का या लड़की का भ्रूण अंकुरित होता है वह भी एक महिला का पुत्र है। पुरुष ने अनेक परिवारों में पुत्र से पहले कई कई पुत्रियां पैदा की हैं लेकिन समाज में देवी का सिर्फ शाब्दिक दर्जा पाने वाली बच्ची के जन्म की दोषी उसकी मां यानी देवी ही मानी जाती है।


ऐसे मामले में शक्ल मिलान जारी रहता है लेकिन अक्ल का प्रयोग कोई नहीं करना चाहता। लकीर के फकीर बने रहना बहुत आसान है। इस बहाने हम पौराणिक, सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक संस्कृति का पोषण भी तो कर लेते हैं। शिशु अपना चेहरा हरदम बदलता रहता है। 


- संतोष उत्सुक

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