नाई चाचा की दुकान (व्यंग्य)

दुकान के ठीक बगल में एक चाय की दुकान थी, जो प्रतीक्षालय का काम करती थी। वहाँ बैठे लोगों के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हुए दो-चार कप चाय पीना अनिवार्य जैसा हो जाता था। चाय के खाली कपों पर मंडराती मक्खियाँ, और चाय के दाग अखबारों के टुकड़ों पर अपनी स्मृतियाँ छोड़ जाते।
ओपीडी में बैठा, प्लास्टर रूम से एक अधेड़ उम्र की महिला की चीख सुन रहा था। दरअसल उसका प्लास्टर काटा जा रहा था। प्लास्टर कटाई मशीन की धरधाराती आवाज़ और महिला की चीख, दोनों ने माहौल को बेहद डरावना बना रखा था। मैं सोच रहा था कि क्या मेरे जीवन में इससे भी बुरा और डरावना दृश्य हो सकता है। तभी मुझे याद आया कि हां, बिल्कुल है, और शायद उससे भी ज्यादा डरावना अनुभव था बचपन में नाई चाचा के सैलून में हेयर कटिंग का। किसी रामसे ब्रदर्स की डरावनी फिल्म की स्क्रीनिंग से भी डरावना वह दृश्य होता, जब हम लगभग घिसटते हुए पिताजी के हाथों नाई चाचा की दुकान तक पहुंचाए जाते।
नाई चाचा की दुकान गाँव के हिसाब से सबसे आकर्षक, रहस्यमयी, डरावनी और रोमांच भरी होती थी। दुकान में एक पुरानी, टूटी-फूटी मेज थी, जिसकी एक टूटी हुई टांग को पत्थरों से संतुलित किया गया था। मेज की लकड़ी की ऊपरी सतह जगह-जगह से उखड़ी हुई थी, और बीच-बीच में निकली कीलें कभी-कभी किसी के कुर्ते में फंसकर अपना अस्तित्व जता देती थीं। वहीं कुछ अखबार के टुकड़े बैठे हुए लोगों के हाथों में उल्टे-सीधे पकड़े होते, और कुछ फर्श पर बिखरे पड़े रहते। फर्श पर कटे हुए बालों के ढेर इधर-उधर फैले होते, नीचे पड़े अखवारों के टुकड़ों के साथ गलबहियां करते हुए।
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दुकान के ठीक बगल में एक चाय की दुकान थी, जो प्रतीक्षालय का काम करती थी। वहाँ बैठे लोगों के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हुए दो-चार कप चाय पीना अनिवार्य जैसा हो जाता था। चाय के खाली कपों पर मंडराती मक्खियाँ, और चाय के दाग अखबारों के टुकड़ों पर अपनी स्मृतियाँ छोड़ जाते। चाय के कप से चाय खाली होने के साथ ही गाँव वालों द्वारा संग्रहित असीमित परम ज्ञान का आदान-प्रदान भी खाली होता रहता। चर्चाएँ जो गाँव की गलियों, मोहल्लों, चौबारों, अटारियों से होकर, गाँव में आई नई बहू का विश्लेषण, गाँव में किसी युवक की नौकरी का विश्लेषण, पिता-पुत्र की लड़ाई में आज किसका सिर फूटा, ये सब चर्चाएँ... फिर चर्चाएँ गाँव की गलियों से गुजरकर शहर, देश और विदेश तक के रणनीतिक, सामाजिक, आर्थिक हर मुद्दे पर गर्मागर्म बहस। बीच-बीच में, केश विन्यास में व्यस्त नाई चाचा की विशेषज्ञ टिप्पणियाँ माहौल को और जीवंत बना देती थीं। दुकान में एक बड़ा आदमकद आईना लगा था, ऐसा आईना जो सिर्फ नाई चाचा के यहाँ ही मिलता था। यह हमें नख से शिख तक निहारने में मदद करता। वहीं आईने के सामने रखी लंबी सी तख्तीनुमा मेज, जो कि नाई चाचा के हथियारों के जखीरा रखने का स्थान। हथियारों में कुछ कैंचियाँ जिनमें ताजा बालों के गुच्छे फंसे होते हैं, उस्तरा जो अभी तक हमारे द्वारा देखा गया सबसे भयानक हथियार है, और अभी तक पढ़े हुए कुछ उधारी के हथियाए हुए थिलर मर्डर मिस्ट्री के उपन्यासों से इस उस्तरे के प्रति हमारा डर और बढ़ गया है, कुछ आधे घिसे हुए साबुन जिन पर भी कुछ पुराणी शहादत के बाल चिपके होते हैं, एक टेलकम पाउडर का डिब्बा, तेल से भरी शीशी, फिटकरी, और एक हालतों की मारी हुई आधे पेट को पिच्कायी पडी हुई शेविंग क्रीम, ये सभी मिलकर एक अजीब सा डरावना वातावरण बना देते। फिल्म स्क्रीनिंग शुरू होती जब नाई चाचा की आवाज़ कानों में पड़ती, "आ जा बेटा," मानो कह रहे हों, "आ जा बेटा, चढ़ जा सूली पर।"
पिताजी मुझे कुर्सी पर बिठाकर, दुकान के बाहर ग्रामीण प्रायोजित 'चाय पे चर्चा' समारोह में शामिल हो जाते।
क्योंकि कुर्सी बहुत ऊँची होती है, उस पर हम बच्चों के बैठने के लिए एक पट्टा एक्स्ट्रा कुर्सी के हाथों पर लगा दिया जाता है ताकि हमारी मुंडी पर पूरा कब्जा नाई चाचा का हो सके। नाई चाचा बड़े प्यार से मुंडी के बालों को पकड़कर, पहले बोतल में भरे मुर्गा छाप से मुँह की पिचकारी से छींटा मारते। फिर एक चौड़ा, गंदा-सा लबादा नुमा कपड़ा, जिसमें जगह-जगह बाल चिपके रहते हैं, जो हर हेयर कटिंग के बाद भी अच्छे से झटकने पर नहीं निकलते, शायद पिछले हेयर कटिंग की स्मृतियों को समेटे हुए, उसे गले में बाँध देते। उसकी गाँठ को पूरी हेयर कटिंग के दौरान हम एक हाथ से, नाई चाचा से नज़रें छुपाते हुए, ढीला करने की कोशिश करते रहते।
मुंडी पर कैंची और कंघी का अघोषित युद्ध शुरू हो जाता, और हमारी आँखों के सामने हमारे बाल रूपी सैनिक शहीद होकर जंग के मैदान में गिरते रहते। उन्हें उस लबादे पर गिरते हुए देखकर उदासी और झल्लाहट के साथ भावभीनी श्रद्धांजलि देते रहते। कभी-कभार बीच में उछलते छोटे-छोटे जीव, जिन्हें लीख और जुएं कहते हैं, भी दिख जातीं। हम चुपचाप उन्हें देखते रहते क्योंकि अगर मम्मी को पता चल जाता कि सर में लीख और जुएं हैं, तो घर पर जो लीख-जुएं का खोजी अभियान शुरू होता, वह और भी खतरनाक मंजर होता।
नाई चाचा पूछते, "कितने छोटे करने हैं?"
मैं कहता, "इतना कि मम्मी की पकड़ में नहीं आयें ...या फिर स्थाई रूप से हटा दो चाचा ताकि दोबारा आपकी दुकान पर न आना पड़े।"
काश, यह संभव होता।
चाचा भी एक उद्दंड सी मुस्कान के साथ निर्लज्जता से अपने कर्तव्य-पथ पर लगे रहते। इस दृश्य का जो क्लाइमेक्स होता, वह सबसे ज्यादा रोमांचक होता, जब चाचा के हाथ में उस्तरा आता। अब फाइनल टच देने की बारी होती, खासकर कानों के पीछे और आगे कलमें बनाने की। उस समय चाचा का उस्तरे में धार देना और फिर उसे कानों के पीछे लगाना, मतलब था कि अब पूरी जान चाचा के हवाले। उस समय चाचा के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रहता और हम इस तरह स्थिर हो जाते, जैसे कोई पत्थर, क्योंकि जरा सा हिलने पर भी चाचा का उस्तरा ऑफट्रैक हो जाने का डर बना रहता।
खैर, जब चाचा की मिशन सफल होने की सूचना कानों में सुनाई देती, तो हम तुरंत उछल पड़ते, लेकिन चाचा फिर हमें अपने मजबूत हाथों से बिठा देते। "अरे रुक, कंघी कर दूँ।"
चाचा कंघी के नाम पर अपने बरसों से अभ्यस्त हाथों से थोड़ी-सी मालिश, चम्पी और बालों में तेल लगाना कभी नहीं भूलते। फिर एक कपड़े नुमा डस्टर से हमें झाड़-पोंछकर उतार देते।
हम अपनी शक्ल को अपने आप से भी छुपाए मायूस-से घर लौटते, और इस नियति को पूर्वजन्मों का पाप समझकर थोड़ी सांत्वना देते रहते।
मम्मी आते ही सिर का मुआयना करती.. ’अरे और छोटे क्यों नहीं करवाए ..आने दे इस नाइ के बच्चे को खबर लूंगी..”
इधर पिताजी का स्वर गूंजता-: अरे आपके साहबजादे ने ही बताया होगा,किसी हीरो वीरो की स्टाइल में काटने को,फेशन में पड गया लाल तुम्हारा!
अन्दर प्लास्टर रूम में भी शायद, मेरा स्टाफ हाथ में लिए प्लास्टर कटाई ड्रिल बिलकुल नाइ चचा के अवतार में ही है।
– डॉ. मुकेश असीमित
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