By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त' | Oct 22, 2025
घर के पुराने आँगन में, जहाँ चौके की तवे पर रोटियाँ केवल घी-संस्कार से फूला करती थीं, आजकल वहाँ गैजेटों की खटर–पटर सुनाई देती है, जैसे रिश्ते अब मोबाइल के नोटिफिकेशन की तरह वक़्त–वक़्त पर केवल बजते हैं और फिर चुप्पी साध लेते हैं। बेटे और बहू की दुनिया ही कुछ ऐसी है कि लगता है, वो दोनों किसी अदृश्य "एप्लिकेशन" में लॉगिन हो गए हैं और घर का वाई-फ़ाई उनका निजी रोमांस बनाए रखने के लिए ही चल रहा है। बहू बेटे से सटी रहती है जैसे पुराने ज़माने का बंधन नहीं, बल्कि आज का 'कॉम्पैक्ट चार्जिंग वायर', जो हमेशा सॉकेट से जुड़ा रहे तो ही काम करता है। भोजन अब थाली में नहीं, बल्कि कैमरे पर सर्व होता है—पहले फोटो, फिर बाइट, और फिर थोड़ी–सी मुस्कान—बाकी पेट भरे या न भरे, भगवान जाने! माँ जब पूछती है कि "कुछ चाहिए?" तो जवाब आता है, "मम्मी, हमने स्विगी कर दिया!" जैसे अब माँ "अर्ज़ी" लेने वाली कोई पुरानी चौकीदार हो और बेटे-बहू की इच्छाएँ ऑनलाइन शॉपिंग कार्ट में बंद हों। सास को याद आता है कि जब उसके ज़माने में पति तम्बाकू पीते थे तो वह बिना कहे पानी का गिलास रख देती थी, और सच पूछो तो वही "सेवा" कहलाती थी, मगर आजकल तो सेवा केवल "नेटवर्क कवरेज" है—जहाँ दिल मिलते हों, वहीं से कॉल क्लियर हो जाते हैं। माँ सोचती है कि क्या वक़्त भी एक ऐप है, जिसे बच्चे 'अपडेट' कर चुके हैं और वह अभी भी उसके पुराने वर्ज़न पर फँसी हुई है, जहाँ सास–बहू की रसोई की परिभाषा आलू-भरता और खिचड़ी से लिखी जाती थी, न कि पिज़्ज़ा और पास्ता से।
रिश्तों पर भी 'सेल' लग चुकी है—एक के साथ, एक फ्री—लव के साथ फ्री कैजुअलनेस, और मर्यादा की बोलियों को जैसे नीलाम कर दिया गया हो किसी मॉल की उद्घोषणा में। उसकी आँखों में जलन नहीं, धुंध है—वह धुंध जो तब बनती है जब चूल्हे के धुएँ को कोई चिमनी चूस ले, पर देह की गंध और आत्मा की पीड़ा वहीँ पड़ी रह जाए। घर अब घर नहीं, किसी शो-रूम की तरह हो गया है जहाँ 'लिविंग रिलेशन' नाम की कुर्सी रखी हुई है, जिस पर उसका बेटा और बहू हाथों संभालकर बैठे रहते हैं, और वह खुद... खुद तो बस कोने में वही पुरानी झूला-कुर्सी लिये एक सजीव मूर्ति बन चुकी है। उसे लगता है, वह अब चाह कर भी अपने ही घर की मेहमान रह गई है—जैसे विरासत कोई टूटा हुआ संदूक है, जिसे बच्चे अपने नए फ्लैट में रखने की जगह भी नहीं बनाना चाहते। उसके कानों में "बेबी… जान… स्वीट… हनी…" बार–बार गूँजता है और उसके होंठों पर फिसलता है वही भूला-बिसरा प्रश्न—"मुझे क्या कहोगे?" लेकिन जवाब कहीं आता नहीं। वक़्त ने उसकी भाषा ही डिलीट कर दी है। वही भाषा, जिसमें रिश्ते गंभीरता से बोलते थे और हँसी में भी आँसू छिपे रहते थे।
अब सिर्फ खनक है—मोबाइल की टोन, हँसी का ट्रेलर, और बेपरवाह आलिंगन की पब्लिक स्क्रीनिंग। माँ सोचना चाहती है कि यह सब जीवन का नया संस्करण है, जिसे उसे 'स्वीकार' कर लेना चाहिए, मगर हर स्वीकृति के साथ उसके भीतर का कोना ऐसा टूटता है जैसे कोई मंदिर का घंटा केवल शो-पीस बनकर दूकान की खिड़की में टाँग दिया गया हो। झूला-कुर्सी पर सिर टिकाए वह सोचती है कि कौन-सा दिन होगा जब उसकी भी ज़रूरत पड़ेगी, शायद तब जब 'माँ' को 'पासवर्ड' के रूप में डालना होगा—किसी एटीएम कार्ड या किसी वसीयतनामे में। उसकी आँखें झुकती जाती हैं, साँसें लंबी होती जाती हैं, और झूला शांति से डोलता रहता है। आह! रिश्तों का यह नया फैशन कितना चमकदार है, मगर इस फैशन की रैंप-वॉक पर सबसे पीछे वही खड़ी है—बिना मेकअप, बिना दर्शक, तन्हा, जैसे किसी पुराने फोटो-फ़्रेम की धूल भरी तस्वीर—जिसे कोई उतार ले तो दीवार और भी "मॉडर्न" दिखेगी।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)