By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | May 06, 2025
शहर के बीचों-बीच, एक ऐतिहासिक इमारत थी—ज़माने भर के ‘फाइल-काण्डों’ की साक्षी। नाम था "नगर निगम भवन", लेकिन जनता इसे प्यार से 'नागर निकम्मा भवन' कहती थी। वहां काम करने वाले बाबूओं का मानना था कि कुर्सी पर बैठते ही आत्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, और फिर शरीर स्थिर, और आत्मा चाय में विलीन हो जाती है। जैसे ही कोई फरियादी आता, सबसे पहला प्रश्न होता, "किस विभाग से हैं?" और अगर बेचारा सीधा नागरिक होता तो फिर—“तो फिर पहले साहब से मिलिए, वो नीचे नहीं आते।” और साहब? वो एकांत साधना में व्यस्त होते, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की पीएचडी में।
एक दिन एक बुजुर्ग महिला आईं—सत्तर के पार होंगी। काँपती उंगलियों से एक पिटारा सा कागज निकाला और कहा, “बेटा, ये नल का बिल गलत आ गया है।” बाबू ने नजरें उठाईं, मुस्कराए, और बोले—“अम्मा जी, मशीन ही गड़बड़ करती है, हम तो बस छपवा देते हैं।” फिर कुछ पल बाद बोले, “और हाँ, कंप्यूटर आज डाउन है, कल आइए।” अम्मा जी का चेहरा झूलती बिजली की तरह बुझ गया। वो बड़बड़ाईं—“बेटा, मैंने 1971 में भारत-पाक युद्ध में कैंटीन चलाई थी, और अब...अब मेरे लिए एक पेंशन फॉर्म भरवाने वाला भी नहीं।” बाबू मुस्कराया, “देशभक्ति को सलाम, लेकिन फॉर्म भरने के लिए एजेंट से मिलिए।”
वहां की कैंटीन भी इतिहास में दर्ज होनी चाहिए। चाय ऐसी बनती थी कि दो घूंट में वादा खिलाफी की तरह कड़वाहट छोड़ जाए। और समोसे में आलू खोजने का रोमांच वैसा ही था जैसे ‘मनोज कुमार’ की फिल्म में देश ढूंढ़ना। वहाँ के कर्मचारी एक-दूसरे को ‘श्रीमान जी’ कहकर संबोधित करते थे, लेकिन पीठ पीछे “वो घूसखोर” से कम कुछ नहीं। साहब लोग जब बैठक करते, तो विषय होते—“फाइल कैसे दबाएं”, “काम करने का भ्रम कैसे फैलाएं”, और “RTI वालों से कैसे बचें”।
एक बार एक युवा RTI एक्टिविस्ट घुस आया। जेब में संविधान, आंखों में आग। सीधा पूछा—“जनाब, ये सड़क तीन बार बजट में पास हुई, बनी क्यों नहीं?” जवाब मिला—“भाई साहब, बन तो गई थी...बाढ़ में बह गई।” लड़के ने पूछा—“बाढ़ तो पांच साल पहले आई थी।” साहब बोले—“तो आपने पांच साल क्यों गंवाए? कानून की भी समय-सीमा होती है।” फिर उसे एक 48 पन्नों की फाइल दी गई जिसमें हर दूसरा पन्ना लिखा था—“संदर्भ हेतु देखें पृष्ठ 13।” और 13वें पन्ने पर लिखा था—“फाइल निर्माणाधीन है।”
वहीं एक स्थायी चरित्र था—रामलाल चपरासी। जिसे लोग “रैफरेंस रावण” कहते थे। किसी भी अधिकारी तक पहुंचने के लिए उसके पांव छूने पड़ते थे। फाइलें उसकी टेबल पर पहुंचकर समाधि में चली जाती थीं, और जब तक “प्रसाद” न चढ़े, पुनर्जन्म संभव नहीं था। उसने तीन बार ट्रांसफर रोका था, चार बार प्रमोशन टाल दिए, और पांच बार छुट्टी की अर्जी बिना पढ़े ‘फाइल गुम’ बता दी। उसे भी दुख था, पर सिर्फ इतना कि कैंटीन वाले अब दूध पतला देने लगे थे। वो कहता, “देश में सब चलता है, लेकिन बिना मलाई की चाय नहीं।”
फिर आई वह घड़ी, जब एक 85 वर्षीय वृद्ध ठेकेदार, लाठी के सहारे आया और बोला, “बेटा, 1964 में मैंने सरकारी स्कूल की नींव डाली थी, उसका भुगतान बाकी है।” बाबू चौंका—“साहब, तब तो हम पैदा भी नहीं हुए थे।” बूढ़ा मुस्कराया—“पर स्कूल अब भी चल रहा है।” बाबू ने हँसते हुए फाइल को झाड़ा और बोला—“ये तो इतिहास में दर्ज होनी चाहिए। वैसे RTI लगाओ, हम भी कुछ नया पढ़ेंगे।”
दोपहर के तीन बजे थे। टेबलों पर फाइलें थीं, और मन में "आख़िर कब तक" का चुप सा प्रश्न। अचानक बिजली चली गई, और UPS ने भी त्यागपत्र दे दिया। एक बाबू बोला—“लो, अब काम नहीं होगा।” दूसरे ने तुरंत जोड़ा—“और जब बिजली थी, तब क्या हो रहा था?” पूरा विभाग मंद मुस्कराहट में लीन हो गया, जैसे मोदी जी के मन की बात चल रही हो। फिर सबने चाय पी, बिस्कुट तोड़े, और कहा—“देश बदल रहा है।”
शाम को अम्मा जी फिर लौटीं। वही बिल, वही दर्द। बाबू ने फिर मुस्कराकर कहा, “आज साहब मीटिंग में हैं, कल पक्का कर देंगे।” अम्मा के चेहरे पर आंसू थे, और आंखों में वो चमक जो 1971 में टेंट में जली स्टोव की याद दिला दे। उन्होंने बस इतना कहा—“बेटा, तू मेरी जगह बैठ, और मैं तुझसे कहूं—कल आना। तब समझेगा।” बाबू सन्न। चाय का घूंट कसैला हो गया।
और फिर आई वो सुबह, जब नगर निगम का एक कर्मचारी हृदयाघात से गया। किसी को नाम याद नहीं था। बस इतना कहा गया—“वो जो 35 साल से छुट्टी पर नहीं गया, आज स्थायी अवकाश पर गया।” ऑफिस में दो मिनट का मौन रखा गया, और फिर चाय आई, फाइल खुली, और सिस्टम चालू हो गया। सिस्टम नहीं रुका...कभी नहीं रुकता।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)