तमिलनाडु की राजनीति में रजनीकांत पर इसलिए भारी पड़ रहे हैं कमल हासन

By नीरज कुमार दुबे | Jul 03, 2018

तमिलनाडु की आज की राजनीति में वो बात नहीं दिखती जो एम. करुणानिधि और जे. जयललिता के जमाने में दिखती थी। जयललिता तो अब इस दुनिया में ही नहीं हैं जबकि करुणानिधि वृद्धावस्था संबंधी दिक्कतों के चलते राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं हैं और उनकी पार्टी की कमान उनके बेटे एम.के. स्टालिन संभाल रहे हैं। दूसरी तरफ जयललिता के जाने के बाद उनकी विरासत पर हक को लेकर शशिकला और ओ. पनीरसेल्वम के बीच संघर्ष चला और आखिरकार शशिकला के सहयोग से ई. पलानीसामी मुख्यमंत्री तो बन गये लेकिन जल्द ही पाला बदल कर पनीरसेल्वम के साथ दोस्ती कर ली। अब दक्षिण भारतीय सिनेमा के सुपरस्टार रजनीकांत और कमल हासन तमिलनाडु की राजनीति में अपना स्थान बनाने के प्रयास में लगे हुए हैं। तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव में हालांकि अभी समय है लेकिन अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर वहां की राजनीति गर्माने लगी है। प्रभासाक्षी ने वहां की ग्राउंड रिपोर्ट जाननी चाही तो कई ऐसी बातें पता लगीं जिनका आकलन हम दिल्ली में बैठे-बैठे नहीं लगा सकते थे।

अन्नाद्रमुक का जाना तय है

 

 

भले ई. पलानीसामी ने ओ. पनीरसेल्वम के साथ दोस्ती कर पार्टी में बिखराव को रोक दिया और विधायकों को एकजुट कर अपनी सरकार बचा ली लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मुख्यमंत्री के रूप में पलानीसामी की यह अंतिम पारी ही है। उनका भाग्य अच्छा कह लीजिये या राजनीतिक प्रबंधन सशक्त कह लीजिये कि टीटीवी दिनाकरण के पक्षधर 18 विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष ने सदन की सदस्यता से अयोग्य करार दे दिया। इन विधायकों ने न्यायालय की शरण ली है लेकिन अभी तक कोई राहत नहीं मिल पायी है। पलानीसामी को जिन शशिकला ने मुख्यमंत्री बनवाया वह भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद हैं। पलानीसामी और पनीरसेल्वम ने मिल कर पार्टी में अम्मा की जगह कब्जाने वाली शशिकला को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया है। इस तरह पलानीसामी की राह फिलहाल आसान है लेकिन जब यहां के लोगों से बात की गयी तो यही निकल कर आया कि पूरी सरकार भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। ट्रांसफर, पोस्टिंग आदि हर काम के रेट तय हैं। पार्टी नेताओं को पता है कि दोबारा सत्ता में आने का कोई चांस नहीं है इसलिए जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है। हालांकि लोग यह जरूर मानते हैं कि अम्मा सरकार द्वारा शुरू की गयी जनहितकारी योजनाओं को जरूर यह सरकार जारी रखने में सफल रही है जिससे गरीबों का कुछ भला भी हो रहा है।

 

अब कौन जीतेगा ?

 

 

यहां फिलहाल जो राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं वह द्रमुक और कांग्रेस के पक्ष में हैं। राज्य के लोगों का मानना है कि इस बार द्रमुक के सत्ता में आने के आसार ज्यादा हैं और अगर कांग्रेस के साथ मिल कर द्रमुक चुनाव लड़ती है तो उसकी जीत पक्की है। लोगों से बात करने पर पता चला कि द्रमुक और कांग्रेस के 'अच्छे दिनों के आसार' दरअसल इसलिए हैं क्योंकि अन्नाद्रमुक विफल साबित हो रही है, भाजपा का यहां कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है, वामपंथी दल सिर्फ कागजों पर रह गये हैं। ऐसा नहीं है कि लोग स्टालिन को पसंद करते हैं या कांग्रेस के स्थानीय नेता ज्यादा अच्छे हैं। बातचीत में स्थानीय जनता बताती है कि करुणानिधि के शासन के दौरान स्टालिन के कथित भ्रष्टाचार को लोग भूले नहीं हैं साथ ही पी. चिदम्बरम सहित अन्य कांग्रेस नेताओं की भी छवि कोई ज्यादा अच्छी नहीं है। स्टालिन से ज्यादा तो लोग उनके बड़े भाई एम.के. अलागिरी और स्टालिन की बहन कनिमोझी को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं लेकिन उन्हें पता है कि स्टालिन पार्टी पर पूरी तरह कब्जा जमा चुके हैं और 'बड़ी कुर्सी' को लेकर कोई समझौता नहीं करेंगे। 

 

राज्य में कांग्रेस को पता है कि वह अपने बलबूते सत्ता में नहीं आ सकती इसलिए उसकी ज्यादा दिलचस्पी लोकसभा सीटें जीतने में है। बहुत से लोगों ने बातचीत में कहा कि भाजपा जबसे केंद्र में है तबसे उत्तर भारत और अन्य जगहों पर अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े हैं और तमिलनाडु में आरएसएस पहले की अपेक्षा ज्यादा सक्रिय हुआ है, यह सब रोकने के लिए भाजपा को रोकना जरूरी है। लोग कहते हैं कि अन्नाद्रमुक भाजपा के साथ है इसलिए द्रमुक और कांग्रेस ही विकल्प बचते हैं। दूसरा कई लोगों ने यह भी बताया कि केंद्र में कांग्रेस के रहते आरएसएस अपनी गतिविधियां तमिलनाडु में नहीं चला पाता था। हालांकि यह लोग यह बताने में नाकाम रहे कि आरएसएस ऐसी क्या गतिविधियां चलाता है जो असंवैधानिक हैं।

 

भाजपा का भविष्य अधर में ?

 

 

तमिलनाडु में कई मुस्लिमों से बात हुई उनमें से लगभग सभी भाजपा के खिलाफ रुख अपनाए हुए थे। उनका कहना था कि राज्य में भाजपा का कुछ नहीं हो सकता क्योंकि यहां मुस्लिम और ईसाई आबादी कुल मिलाकर 15 प्रतिशत से ज्यादा है और हिंदुओं की पूरी आबादी बंटी हुई है। जबकि मुस्लिम और ईसाई एकतरफा वोटिंग करते हैं और वह कभी भी भाजपा को वोट नहीं देते। अमित शाह यहां लगातार दौरे कर रहे हैं लेकिन इन सबसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है, ऐसा स्थानीय लोगों का मानना है। यहां भाजपा अपने बलबूते कोई ताकत नहीं है और उसे द्रमुक या अन्नाद्रमुक का सहारा लेना ही पड़ेगा। द्रमुक फिलहाल कांग्रेस के साथ है और अन्नाद्रमुक की छवि खराब हो रही है। राज्य में यह भी माना जा रहा है कि पलानीसामी और पनीरसेल्वम की लड़ाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुलझवाई है और केंद्र के समर्थन की बदौलत ही यह सरकार टिकी हुई है। भाजपा की रणनीति है कि रजनीकांत को आगे रख कर चुनाव मैदान में उतरा जाये लेकिन स्थानीय लोगों के मुताबिक इससे भी कोई बड़ा फायदा होने वाला नहीं है।


रजनीकांत भारी या कमल हासन ?

 

 

लोगों से बातचीत में यह जानकर हैरत में पड़ गया कि फिल्मी दुनिया में सब पर भारी रजनीकांत राजनीति में कमल हासन के सामने काफी बौने हैं। आप भी चौंक गये ना! दरअसल दिल्ली में बैठकर हम लोग जो अनुमान लगा लेते हैं या विश्लेषण कर लेते हैं कई बार जमीनी हकीकत उससे काफी अलग होती है। कमल हासन क्यों रजनीकांत पर भारी पड़ रहे हैं, इसकी वजह है- लोगों का तमिल भाषा से गहरा लगाव है। उनका मानना है कि एक तो रजनीकांत तमिल नहीं हैं और तमिल भाषा भी अच्छे से नहीं बोल पाते दूसरा हाल ही में तूतीकोरिन में हुई पुलिस गोलीबारी की घटना के बाद जो उन्होंने विवादित ट्वीट किया था उससे भी लोगों में काफी नाराजगी है। दूसरी ओर कमल हासन तमिल पर अच्छी पकड़ रखते हैं। लोगों का कहना था कि भले रजनीकांत बड़े पर्दे पर स्टाइल में संवाद बोलते हों लेकिन जब राजनीतिक भाषण देने की बात आती है तो उसमें कमल हासन सिद्धहस्त हैं।

 

दोनों के राजनीतिक भविष्य को लेकर कोई ज्यादा आशावान नहीं दिखा क्योंकि लोग फिल्मी दुनिया से अब उकता चुके हैं और कहते हैं कि यह लोग सिर्फ पर्दे के लिए ही ठीक हैं। शरथकुमार जैसे अभिनेता से नेता बने लोगों को भी जनता नहीं पूछ रही है। यह कहे जाने पर कि पूर्व में भी तो करुणानिधि और जयललिता जैसे फिल्मी सितारों का जनता ने राजनीति में स्वागत किया तो लोगों का कहना था कि करुणानिधि और जयललिता को एमजी रामाचंद्रन जैसे कद्दावर नेता राजनीति में स्थापित कर के गये थे जबकि रजनीकांत और कमल हासन को अभी अपनी चुनावी पारी शुरू करनी है।

 

जीत का फॉर्मूला क्या है ?

 

 

एक समीकरण जो भविष्य के लिए लोग मुफीद मान रहे हैं वह है द्रमुक + कांग्रेस + कमल हासन का गठजोड़। कमल हासन ने हाल ही में दिल्ली में सोनिया गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात भी की थी जिससे इन अटकलों को बल मिला है कि वह कांग्रेस के साथ जा सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो कांग्रेस को भी इससे लाभ ही होगा। द्रमुक यह मान कर चल रही है कि सत्ता उसके ही हाथ आने वाली है इसलिए स्टालिन इन दिनों जिला और मंडल स्तर पर पार्टी को मजबूत करने में लगे हुए हैं। कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के तो नहीं लेकिन राहुल गांधी के यहां कुछ फैन जरूर दिखे।


निचले स्तर पर अफवाहें बहुत रहती हैं

 

 

हमारी राजनीति का यह सबसे निचला स्तर है कि नेता कम पढ़े लिखे समाज के बीच तरह तरह की अफवाहें फैलाते हैं और उन्हें भ्रमित कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं। कई लोग ऐसे मिले जिनकी शिकायत थी कि भाजपा देश का संविधान बदलने वाली है। उनका कहना था कि यदि हाल ही में दलितों ने आंदोलन नहीं किया होता तो भाजपा ने संविधान बदल दिया होता। मैं यह बात सुनकर हैरान था और उन्हें समझाया कि संविधान बदलना आसान नहीं है। भाजपा को तो राज्यसभा में बहुमत भी नहीं है फिर वह ऐसा कैसे कर सकती है। जब उनसे दलितों के भारत बंद के मुद्दे पर और पूछा तो असल कारण उन्हें पता ही नहीं था। उन्हें यह पता ही नहीं था कि एससी/एसटी एक्ट संबंधी फैसला उच्चतम न्यायालय का था ना कि केंद्र सरकार का। उन्हें यह पता ही नहीं था कि उच्चतम न्यायालय ने आखिर यह फैसला क्यों दिया था। यह सब देखकर पता चला कि कैसे अफवाहों के आधार पर समाज में वैमनस्य फैलता है।

 

राष्ट्रीय मीडिया से नाराजगी

 

 

दक्षिण में चाहे तमिलनाडु हो या कर्नाटक, दोनों ही राज्यों के लोगों से जब बात करने की कोशिश की गयी तो यही अहसास हुआ कि राष्ट्रीय मीडिया से उनकी नाराजगी है और वह इसलिए कि राष्ट्रीय मीडिया में होने वाली प्राइम टाइम की टीवी चर्चाओं में दक्षिण के मुद्दों को कभी स्थान नहीं मिलता। किसी का कहना था कि तूतीकोरीन में पुलिस फायरिंग में लोग मारे जा रहे थे तब राष्ट्रीय मीडिया में एक चर्च के फादर की ओर से लिखे गये पत्र को लेकर चर्चा हो रही थी। बातचीत में उत्तर की बजाय सीधा प्रश्न दागे जा रहे थे कि आप ही बताइए कि कब दक्षिण के मुद्दों को राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का समय मिलता है? लोगों का कहना था कि तमिलनाडु या कर्नाटक के विधायकों का रिसॉर्ट में रहना ही राष्ट्रीय मीडिया के लिए खबर है, सामाजिक मुद्दों से उसे कोई सरोकार नहीं रह गया है।

 

जन नेता का अभाव

 

 

पूरे दौरे में यह बात उभर कर आई कि तमिलनाडु में सशक्त जन नेता का इस समय अभाव है। लोगों का कहना था कि करुणानिधि और जयललिता धाकड़ नेता थे और यह दिल्ली से अपनी बात मनवाने की क्षमता रखते थे। आज के मुख्यमंत्री तो कोई मांग लेकर दिल्ली जाते हैं जहां से उन्हें समझा बुझा कर वापस भेज दिया जाता है। पलानीसामी को मुख्यमंत्री बनने से पहले राज्य भर में हर कोई नहीं जानता था। स्टालिन का कद भी लोग मुख्यमंत्री लायक नहीं मानते और आज भी करुणानिधि और जयललिता के दौर को याद करते हैं। राज्य में वाइको की छवि 'पैसा' लेकर दूसरों का खेल बिगाड़ने वाले नेता की है तो अंबुमणि रामदास की छवि कुछ ज्यादा ही अच्छी होने की वजह से लोग उन्हें आज की राजनीति में फिट नहीं मानते। मारन बंधुओं की छवि नेता से ज्यादा बिजनेसमैन की बनी हुई है। दिनाकरण और शशिकला के परिवार की छवि दबंग की है और दिनाकरण पर भ्रष्टाचार के कई दाग हैं। वह भले विधानसभा चुनाव जीत गये हों लेकिन यह सभी जानते हैं कि वह यह चुनाव कैसे जीते थे।

 

-नीरज कुमार दुबे

 

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