राष्ट्रवादी की नजर में जीएसटी (व्यंग्य)

By अरुण अर्णव खरे | Jul 17, 2017

जीएसटी को लेकर लोग ट्विट कर रहे हैं कि इसने डकवर्थ-लुइस को जटिलता की स्केल पर पहली पायदान से अपदस्थ कर दिया है। क्रिकेट के बड़े से बड़े धुरंधर भक्तों तक को आज तक समझ में नहीं आया कि ये डकवर्थ-लुइस मेथड आख़िरकार है क्या बला.. तो आप सहजता से अनुमान लगा सकते हैं कि जीएसटी को समझना कितना मुश्किल काम है.. सच मानिए इसे समझने के लिए आपमें विद्यापीठ वाला नहीं हॉवर्ड वाला टेलेंट होना जरूरी है.. इसलिए मैं तो इसे समझने-समझाने वाले पचड़े में ही पड़ना नहीं चाहता। सरकार समझाने के लिए क्लास लगा रही है और जिनकी समझ में ज़रा सा भी आ गया वे हड़ताल कर रहे हैं। 

 

मेरी पुरानी आदत है जब सरकार समझाती है तो मैं सरेण्डर होकर उसकी बात मान लेता हूं इसलिए मैं कभी अप्रसांगिक नहीं हुआ.. सरकार किसी की रहे, मेरी हैसियत हमेशा पासवान वाली रही आई। 

 

अर्थशास्त्र कभी भी मेरा विषय नहीं रहा और न ही कभी ठीक से पल्ले पड़ा। मुझे तो अर्थशास्त्रियों द्वारा बताया गया वह मूल सिद्धान्त भी कभी ठीक से समझ में नहीं आया कि ख़राब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। यदि ऐसा होता तो नोटबंदी काल में हमारी गाढ़ी कमाई की सौ फीसदी टंच मुद्रा इतनी बेशर्मी से चलन से बाहर नहीं हुई होती। 

 

मेरी फेसबुक वाल पर जीएसटी के परम विरोधी मुरारी जी ने एक पोस्ट डाल कर मुझे भरमाने की कौशिश की.. कि माँस पर सरकार ने ज़ीरो प्रतिशत टैक्स लगाया है और अगरबत्ती पर बारह प्रतिशत यानि कि धार्मिक सरकार पूजा पर अंकुश लगाने की तैयारी में है। कोई दोयम दर्जे का राष्ट्रवादी नागरिक होता तो उनकी पोस्ट से प्रभावित होकर तुरंत पाला बदल लेता। उस पगले को कौन समझाता कि इस पाले से दूसरे पाले में जाने की सभी लाइनें पहले से ही सीबीआई और इन्कम टैक्स वालों ने बंद कर रखी हैं। अब कोई मरने पर उतारू हो तो क्या किया जा सकता है। पर मैं ठहरा सर्टीफाइड राष्ट्रवादी.. मुरारी जी की बातों में कहाँ फँसने वाला था.. मैंने भी उनकी बात के उत्तर में करारा जबाब ठोंक दिया.. "भाई साब जब सारे बूचड़खाने बंद करा दिए तो माँस का उत्पादन भी तो ठप्प हो गया कि नहीं.. ऐसे में माँस पर ज़ीरो टेक्स लगे या अट्ठाईस प्रतिशत.. सरकार को क्या फ़ायदा.. सरकार की उदारता देखिए कि उसने इस उद्योग को मरने से बचाने के लिए कितनी बड़ी राहत दी है।" 

 

अब मुरारी जी मेरे चरण छूने के लिए बेताब होकर घर के चक्कर लगा रहे हैं और मैं उनसे बचता फिर रहा हूँ कि कहीं उन्होंने कोई और प्रश्न जड़ दिया जिसका उत्तर मुझे नहीं सूझ पड़ा तो बिना बात के ही कहीं उनका समर्थक ना समझ लिया जाऊं।

 

अरुण अर्णव खरे

भोपाल 

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