हाथ, राजनीति और कोरोना (व्यंग्य)

By अरुण अर्णव खरे | Apr 10, 2020

हाथ हमारे शरीर का उपयोगी अंग है। शोले याद है न आपको-- फिल्म "ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर" से शुरु होती है और "गब्बर! ये हाथ मुझे दे दे" पर खत्म। इन दो डायलाग के बीच में तीन घंटे से ज्यादा की कहानी फिट कर दी गई। ये सब बताने का आशय केवल हाथ की महत्ता भर बताना है। इस समय देश कोरोना संकट से गुजर रहा है और हाथ का महत्व एक बार फिर सबकी जुबान पर है। टीवी चैनल्स और अखबारों से लेकर सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म पर हाथ छाया हुआ है। देश के तमाम घोषित, अघोषित, स्वघोषित, स्वपोषित विशेषज्ञ लोगों को तीन हाथ दूर रहने की सीख दे रहे हैं... हाथ जोड़कर नमस्ते करने और हाथ न मिलाने की सलाह दे रहे हैं... बार-बार हाथ धोते रहने की नसीहत दे रहे हैं।

 

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इस देश की राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। नेता हर कानून और व्यवस्था से ऊपर हैं। नेताओं पर इन नसीहतों का कोई असर नहीं है। पचास से ज्यादा लोगों के एक स्थान पर एकत्र होने पर रोक के बावजूद एक मुख्यमंत्री दो हजार लोगों के बीच एक शादी में पहुंच जाते हैं। एक पूर्व मुख्यमंत्री कुछ सांसदों और विधायकों को अपनी जनता के बीच जाने के कर्तव्य से बड़ा दायित्व एक कोरोना पोजीटिव गायिका की पार्टी में उपस्थिति देना लगता है। कोरोना की चेन तोड़ने की बात करते हैं और खुद उस चेन का हिस्सा बन जाते हैं पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती जबकि आम आदमी पर कार्यवाही करने में रत्ती भर देर नहीं की जाती।


इस देश की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी का प्रतीक चिन्ह हाथ होने के बावजूद जनता उसके सिर पर आशीर्वाद-स्वरूप अपना हाथ नहीं रख रही है। जहां जनता ने सकुचाते हुए हाथ रखा भी तो वहां भी विरोधी हाथ धोकर उनके पीछे पड़े हुए थे और किसी तरह कुर्सी पर काबिज होने के लिए पहले दिन से ही हाथ-पाँव मार रहे थे। कोरोना काल में उन्हें ये मौका मिल गया। नमस्तेमय हो चुके देश में, संसद में प्रसिद्ध आंखमार कांड के जोड़ीदार की ठीक से जनसेवा न कर पाने की कसक जनता और उनकी पार्टी से पहले उनके विरोधी ने देख ली और उनकी इसी कसक से पसीज कर उन्हें हाथों हाथ लपक लिया।

 

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फिर क्या था-- उनके वफादार मंत्रियों, विधायकों ने दनादन सरकार से अपने हाथ खींचने शुरु कर दिए और विरोधियों के गले में हाथ डालकर इस रिसोर्ट से उस रिसोर्ट में घूमने लगे। सरकार के हाथ से तोते उड़ गए और हाथ-पाँव फूल गए वह अलग। हाथ फैलाने और हाथ जोड़ने से लेकर तमाम तरह के उपक्रम हुए। समझौते के लिए गए लोग हाथ मलते लौट आए और जिनसे समझौते की चाह में गए थे वे सभी आश्वस्त नजर आए कि सरकार भले गिर जाए पर वे खाली हाथ नहीं रहेंगे। जब हाथ में संख्या बल ही नहीं रहा तो सरकार का घर में हाथ पर हाथ धर कर बैठना सुनिश्चित हो गया। अब लोग कह रहे हैं ये दुनिया की पहली सरकार है जो कोरोना की चपेट में आकर धराशायी हुई। कोरोना के चलते प्रतिपक्षी नेताओं को, जो चुनाव में दो-दो हाथ करते हुए पिछड़ गए थे, हाथ साफ करने की ऐसी लत लगी कि हाथ वाली सरकार को भी साफ कर दिया।


अरुण अर्णव खरे

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