By पवन शुक्ला | Sep 14, 2025
हिन्दी दिवस केवल एक स्मरण दिवस नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना और आत्मगौरव का उत्सव है। महात्मा गांधी ने कहा था—“मातृभाषा में शिक्षा ही सच्चे अर्थों में मनुष्य की क्षमता को विकसित करती है।” यह विचार हमें बताता है कि जब समाज अपनी मातृभाषा से जुड़ा रहता है, तभी उसकी संस्कृति जीवंत और प्रखर बनी रहती है। भारत इस दृष्टि से समृद्ध है, जहाँ 22 संवैधानिक भाषाएँ, 121 प्रमुख भाषाएँ और लगभग 19500 बोलियाँ एक ही राष्ट्र की धारा में प्रवाहित होती हैं। यही विविधता हमारी राष्ट्रीय एकता को गहराई देती है और हमें वैश्विक पटल पर विशिष्ट बनाती है।
आज के समय में आवश्यक है कि मातृभाषा को केवल शिक्षा का साधन न मानकर जीवन का आधार समझा जाए। वैश्वीकरण और अंग्रेज़ी के आकर्षण ने नई पीढ़ी को अवसर दिए हैं, लेकिन यदि अपनी भाषा से दूरी बढ़ती रही तो संस्कृति का रंग फीका पड़ जाएगा। भाषा और संस्कृति का रिश्ता शरीर और आत्मा की तरह है—भाषा सुदृढ़ रहेगी तो संस्कृति भी समृद्ध बनी रहेगी।
हिन्दी की सहजता उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। यही सरलता बच्चों के भीतर आत्मविश्वास जगाती है। शोध बताते हैं कि मातृभाषा आधारित शिक्षा बच्चों की स्मृति, पठन और गणितीय क्षमता को कई गुना बढ़ा देती है। ओडिशा का “नुआ अरुणिमा” कार्यक्रम इसका जीवंत उदाहरण है, जहाँ इक्कीस भाषाओं में शिक्षा देकर बच्चों को सहज और आनंदपूर्ण वातावरण मिला। संविधान का अनुच्छेद 350 (क) भी यही दायित्व राज्यों पर डालता है कि भाषाई अल्पसंख्यकों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने भी इस दिशा को और सशक्त किया है। यह सब बताता है कि मातृभाषा आत्मविश्वास, गुणवत्ता और समानता की आधारशिला है।
मातृभाषा का महत्व केवल कक्षा तक सीमित नहीं। दादी की कहानियाँ, माँ की लोरी, लोकगीत और त्योहार तब जीवंत होते हैं जब उन्हें अपनी भाषा में सुना और समझा जाए। यही भाषा पीढ़ियों को जोड़ने वाला सेतु है और जीवन को आत्मीयता से भर देती है। इसे ही संस्कृति की जड़ों को सींचने वाली अमिट धारा कहा जाता है।
साहित्य मातृभाषा का सबसे उज्ज्वल रूप है। हिन्दी और भारतीय साहित्य की अनेक कृतियाँ समाज और राष्ट्र की चेतना को गढ़ती रही हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र की “भारत दुर्दशा” राष्ट्रीय स्वाभिमान जगाती है, मैथिलीशरण गुप्त की “साकेत” त्याग और आदर्श का संदेश देती है, महादेवी वर्मा की “यामा” करुणा और संवेदनशीलता को प्रकट करती है, और सुभद्राकुमारी चौहान की कविताएँ आज भी राष्ट्रभक्ति की ज्वाला प्रज्वलित करती हैं। बच्चन की “मधुशाला” जीवन के दर्शन को सहजता से सामने रखती है, तो दिनकर की “रश्मिरथी” संघर्ष और वीरता की प्रेरणा देती है। ये कृतियाँ केवल शब्द नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक स्मृति और आत्मगौरव की धरोहर हैं।
आज की पीढ़ी तकनीक और तेज़ जीवनशैली में उलझी हुई है। इंटरनेट और मोबाइल ने सुविधा तो दी है, लेकिन संवेदनशीलता और संस्कृति से जुड़ाव कहीं न कहीं कम हुआ है। ऐसे समय में मातृभाषा और साहित्य ही वह ज्योति हैं, जो आत्मा को ऊष्मा और जीवन को दिशा देती हैं। मातृभाषा आत्मविश्वास का बीज बोती है, साहित्य नैतिकता और राष्ट्रप्रेम का वृक्ष उगाता है, और कहानियाँ करुणा की धारा बहाती हैं। यही हमारी सुदृढ़ शरण है, जो हमें भविष्य की चुनौतियों में भी संतुलित रखती है।
हिन्दी दिवस का संदेश यही है कि मातृभाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान और आत्मगौरव की धड़कन है। यही वह स्रोत है जिससे सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ऊर्जा प्रवाहित होती है। आज आवश्यकता केवल स्मरण की नहीं, बल्कि संकल्प की है—कि मातृभाषा को शिक्षा, साहित्य और जीवन की धारा में उचित स्थान मिले। यदि हम इसे अगली पीढ़ियों तक संजोकर पहुँचाएँगे, तो हमारी संस्कृति न केवल जीवित रहेगी, बल्कि और भी संपन्न और पुष्पित होगी। मातृभाषा आत्मविश्वास की जड़ है और संस्कृति की सबसे मज़बूत नींव।
- पवन शुक्ला
(लेखक उच्च न्यायालय, लखनऊ में राज्य विधि अधिकारी हैं और शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य से जुड़े विषयों पर नियमित लेखन करते हैं)