सच का साथ देने का पाठ पढ़ाने वाले शिक्षक यदि सच बोलें तो हो जाती है कार्यवाही

By कौशलेंद्र प्रपन्न | Sep 05, 2019

तकरीबन बीस सालों में उसने कई नौकरियां कीं। शिक्षण, पत्रकारिता, लेखन आदि इत्यादि। सरकारी शिक्षक बन भी सीखने−सिखाने की प्रक्रिया को रोचक बनाने में जान डाल दी। उसके साथ के उम्रदराज़ शिक्षक मित्रों ने ख़ूब कहा भी ''क्या इन बच्चों को कलक्टर बना दोगे?'' ''ये तो रोड़ पर रेडी लगाएंगे।'' ''अभी नए नए हो फिर देखने कुछ साल बाद हम जैसे ही हो जाओगे।'' शायद यही कबूलनामा था उन शिक्षकों का जिसने उसे सरकारी शिक्षक बने रहने से बाहर किया। उसने तय किया कि अब और नहीं ऐसे शिक्षकीय सोच के साथ जी सकता। शायद उसकी जगह कहीं और है। जहां कुछ करने और जिंदा रहने की ताज़ी हवा आती होगी। वह शायद उसका सपना था या फिर एक कल्पना। जब साल दर साल नौकरियां बदलता नई ताज़ी हवा की उम्मीद करता किन्तु आखिरकार कहीं तो रूकना था। कहीं तो बटोही को ठहरना था। सो रूका भी और अपनी पूरी ताकत और ऊर्जा भी लगाया। एक नहीं सौ नहीं बल्कि हज़ारों बच्चों के बीच पहुंच बनाने लगा। अकेला स्कूल में शायद पूरी जिंदगी में इतनी संख्या में बच्चों तक नहीं पहुंच पाता किन्तु जब शिक्षक−प्रशिक्षक बना तो उन हज़ारों शिक्षकों के ज़रिए हज़ारों बच्चों से संवाद करने लगा।

 

शिक्षक था सो लिखने−पढ़ने, कहने−सुनने की ताकत से अच्छी तरह से वाकिफ था। जानता था कि शब्द की सत्ता क्या होती है। शब्द की साधना क्या होती है। एक शब्द भी ग़लत इस्तमाल हो गए तो पूरी कायनात उसे नेस्तनाबूत करने में जुट जाती है। शिक्षकीय धर्म और कर्म को पूरी तरह जीने वाला वह शिक्षक एक दिन अपने ही शब्दों के हत्थे चढ़ गया। उसके शब्द उसके खिलाफ खड़े हो गए। उसके आस−पास सारी स्थितियां विपरीत हो गईं। शब्द ही थे जिसने उसे बाहर का रास्ता दिखाया। कोई और नहीं था समाज का एक ऐसा धड़ा था जो ताकत को अपनी मुट्ठी में दबा कर बैठा था। ऐसी ताकतों की ज़द में आ गया जिसे यह स्वीकारना गवारा नहीं था कि किसी ने सच के सामने ला खड़ा किया। उसकी ग़लती इतनी भर थी कि उसने वही सच लिखा जिसे विश्व और देश के तमाम रिपोर्ट पिछले कम से कम पंद्रह बीस सालों से लिख लिख कर छाप रहे हैं और हर साल वे रिपोर्ट किसी आलमारी में दब जाती हैं। लेकिन निज़ाम को स्वीकार नहीं हुआ कि यह कैसे लिख सकता है। इसकी इतनी हिमाकत कि हमारी रोटी खाता है और हमें ही आईना दिखाए। एक अदना-सा प्यादा और ख्वाब तो देखें निज़ाम बनने की रखता है। आदि इत्यादि।

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यह एक कहानी की शुरुआत हो सकती है। शायद आपको पढ़ते हुए आनंद भी आ रहा हो। आपको लग रहा हो कि यह भी कोई कबूलनामा हुआ? वो भी एक शिक्षक का? क्या शिक्षक भी कबूल सकता है कि वो पढ़ा नहीं पाता। वह पढ़ाने के लिए ही प्रशिक्षित है लेकिन हालात उसे उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी से ही महरूम रखने में लगे हैं। जो भी हो शिक्षक एक ऐसा जीव होता है जो बेहद कोमल और नरम होता है जैसे पानी कह लें। जैसे सुबह की ओस की कल्पना कर लें। उस ओस की बूंद के सौंदर्य को बचा पाना ज़रा मुश्किल होता है। हालांकि शिक्षक अपनी दुनिया का वह इकलौता जीव होता है जिसे अपने बच्चों, पढ़ने−पढ़ाने में आनंद आता है। वह स्कूल के बाहर कभी झांकता भी है तो उसे पूरी दुनिया विद्यालय-सा ही नज़र आती है। जहां अनुशासन है। सीखने−सिखाने की पूरी छूट है। जहां बच्चे उसकी बात को मानते हैं। आदर करते हैं आदि आदि।

 

लेकिन वह भूल जाता है कि स्कूल के बाहर एक ऐसी दुनिया है जहां झूठ, दिखावा, एक ओढ़ा हुआ सच, सच का द्वाभा की छटाएं होती हैं। सच होता नहीं है किन्तु सच का आभास भर होता है। इस आभासीय दुनिया में कई बार वह शिक्षक ठोकर खाता है। कई बार ठोकर मारी जाती है ताकि उसे एहसास हो कि वह एक शिक्षक है और उससे ज़्यादा उसकी ताकत नहीं है। उस शिक्षक को दुबारा गढ़ने में किसी शिक्षक−प्रशिक्षण संस्थान की कोई भूमिका नहीं होती। जो उसे सीखना था वह तो उसने सेवापूर्व और सेवाकालीन संस्थानों में सीखा किन्तु जो पाठ उसे समाज सिखाता है उसमें कई सारे मास्टर होते हैं। क्या अर्थशास्त्री और क्या राजनीति के गुरु, सब के सब उसे समय-समय पर इसका एहसास पुख़्ता करते रहते हैं कि तू चीज क्या है? जब चाहें तुम्हें तुम्हारी औकात और स्थान दिखा सकते हैं। जहां चाहें स्थानांतरण कर सकते हैं और तो और इस्तीफ़ा देने पर मजबूर भी कर सकते हैं। और इस तरह से एक कोमल मना शिक्षक एक भय के माहौल में जीना सीखने लगता है। दीगर बात है कि वही शिक्षक जब कक्षा में उन्हीं के बच्चों को पढ़ा रहा होता है कि सत्य की विजय होती है। सच हमेशा जीतता है। झूठ नहीं बोलना चाहिए। अगर तुम सही हो तो किसी से भी डरना नहीं चाहिए। आदि आदि वह अपनी कक्षाओं में पढ़ाता है किन्तु यही समाज है जो उसे उसके पाठ को धत्ता बताते हुए उसे इस पाठ को पुनर्निर्माण करने को मजबूर करता है कि यदि तुम सत्ता और ताकत के खि़लाफ बोले या लिखे तो उसका कठोर अंज़ाम भुगतना होगा। ऐसे द्वंद्व में जीता शिक्षक फिर भी उम्मीद और आशा की डोर से बंधा अपनी शैक्षणिक डगर पर ढिलमिलाता रहता है।

 

शिक्षा−शिक्षक और राजनीति का एक गहरा रिश्ता रहा है। तीनों के समीकरण को समझना ज़रा मुश्किल है किन्तु कठिन नहीं है। राजनीति और राजनीतिक शक्तियां हमेशा ही पूर्व के दोनों ही घटकों को बहुत करीब से प्रभावित और दिशा देती रही हैं। शिक्षा की क्या नीति हो? शिक्षक क्या पढ़ाए? कितना पढ़ाए? कब पढ़ाए आदि अकादमिक कार्यों में भी राजनीति के हस्तक्षेप के पदचाप को सुना जा सकता है। आज़ादी के पूर्व से लेकर आज़ादी के बाद भी उस राजनीतिक हुंकार को सुन सकते हैं। हमारा शिक्षक किस पाठ को पढ़ाए और कितना पढ़ाए इस विमर्श को राजनीति तय करने लगे तो यह शिक्षक और शिक्षा के लिए शुभ संकेत नहीं माने जा सकते। दरअसल राजनीतिक शक्तियां इतनी ताकतवर होती हैं कि शिक्षा और शिक्षक की सत्ता को कमजोर कर अपना विजय पर्व मनाती हैं। इसे स्वीकारने में किसी को भी गुरेज़ नहीं हो सकता कि राजनीतिक हस्तक्षेप एक ऐसा प्रहार है जिससे समय-समय पर अकादमिक जीव आहत होता है। उस दबाव को सह नहीं पाता और वह पेशेगत समझ और कौशल होने के बावजूद बाहर हो जाता है या कर कर दिया जाता है। दूर न भी जाएं तो चाहें वह नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क का इतिहास हो या फिर शिक्षा नीतियां या फिर अन्य शैक्षणिक समितियां कई बार बेहद दक्ष और शिक्षाशास्त्री और शिक्षाविदों ने अपने आप को अलग कर लिया। जब राजनीतिक शक्तियां अपने कई काम कराने लगें, अपनी स्थापनाओं और मान्यताओं को तर्कातीत स्वीकारने को विवश करें तो ऐसे में देश के जाने माने शिक्षविदों ने समितियों से ख़ुद को बाहर कर लिया। प्रकारांतर से शिक्षा−शिक्षक कई बार राजनीति की चपेट में आकर अपनी मूल स्थापनाओं और मूल्यों को खो देता है। इसका खामियाजा राजनीतिक धड़ों से ज़्यादा हमारे भावी युवाओं को भुगतने पड़ते हैं। इसका एहसास नहीं होता कि हमने सत्तायी ताकत की मद में क्या खोया और क्या पाया।

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शिक्षक जिसकी दुनिया स्कूल और कक्षा है इसी दुनिया में वह बच्चों से शब्दों से रूबरू होता है। बच्चों को शब्दों की नरमीयत, कठोरता और सत्ता का एहसास कराता है। वह बच्चों को सिखाता है कि ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए औरों को शीतल करें खुद भी शीतल होए। लेकिन वह भूल जाता है कि यह किताब में शामिल महज़ दोहे हैं। हक़ीकत तो यही है कि जो कोमल बोलते हैं उन्हें निरा मूर्ख और इस दुनिया के बाहर का जीव माना जाता है। लेकिन फिर भी वह क्या ताकत है कि शिक्षक ताउम्र उन्हीं दोहों, साखियों, कविताओं, कहानियों को बड़ी शिद्दत से पढ़ता और पढ़ाता है। उसे उम्मीद होती है कि इन पंक्तियों में अभी भी कुछ तो ताकत बची हुई है। कोई तो ऐसा होगा जो इसे मानेगा। कोई तो होगा जो उसकी भी सुनेगा। हमारा शिक्षक इसी विश्वास की सत्ता में सांसें लेता है। अपनी बात न कह पाने की टीस तो उसे होती है, किन्तु निराश नहीं होता। हर साल साल दर साल वह बच्चों को मूल्य, नैतिकता का पाठ पढ़ाता है। खुद बेशक व्यवस्था से टूक चुका हो लेकिन बच्चों को हार न मानने की सीख देता है।

 

शिक्षक ही शायद एक ऐसे पेशेवर जीव है जो बच्चों को पढ़ाने, समझने में अपनी पूरी जि़ंदगी खपा देता है। इस प्रक्रिया में अपने जने बच्चे तो होते ही हैं समाज के हज़ारों बच्चे होते हैं जिन्हें शिक्षक अपनी पूरी उम्र भर सीखने−सिखाने का पाठ पढ़ाता है। यह कुछ पढ़ा सकने की ललक और चाह ही वह आकर्षण है जो शिक्षक को जि़ंदा रख पाती है। शिक्षक शायद यही सोचता है कि मेरा पढ़ाया अगर आगे चल कर अच्छा नागरिक बन पाता है। कोई बड़ा अधिकारी बन पाता है तो इससे बढ़कर और क्या चाहिए। कभी कहीं मिल जाए और पास आकर कहें सर, गुरुजी आपने मुझे पढ़ाया था। आज मैं फलां फलां बन गया हूं। आपकी मेहनत न होती तो शायद मैं आज यह नहीं बन पाता। यह सुनकर एक शिक्षक जिसमें अब चलने−फिरने की ताकत भी नहीं बची किन्तु वह अश्रु भरी आंखों से उस बच्चे को देखता है जिसे भी उसने पढ़ाया था। बेशक उसकी अपनी औलाद उस ऊंचाई तक न पहुंच पाये किन्तु दूसरे से सुख और पहुंच में अपनी खुशी तलाश लेता है। ऐसे ही तो शिक्षक हम सब के जीवन में आज भी मौजूद हैं। चाहें वो इस दुनिया में हैं या नहीं। मेरी जिंदगी में जिन शिक्षकों की भूमिका रही उनमें नगीना बाबू जिन्होंने प्राथमिक स्कूल में पढ़ाया, लिखने के लिए प्रेरित किया। वहीं उच्च स्कूल में मेरे पिता और शिक्षक। कॉलेज स्तर पर प्रो. लाल कृष्ण राव, प्रो. कमलकांत बुद्धकर, प्रो. हरीश नवल, प्रो. राम प्रसाद वेदालंकार आदि हैं जिनसे परोक्ष−अपरोक्ष जीवन कौशल और शैक्षणिक ताकत मिलती रही। 

 

-कौशलेंद्र प्रपन्न 

(भाषा एवं शिक्षाशास्त्र विशेषज्ञ)

 

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