राष्ट्रीय एकता का तत्व है हिन्दी, विश्व में बढ़ रही है इसकी स्वीकार्यता

By डॉ. वंदना सेन | Sep 13, 2021

महात्मा गांधी ने कहा था कि अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है। हिन्दी इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। गांधी जी का यह कथन अनुभव से निकला हुआ एक ऐसा पाथेय है, जो निश्चित ही राष्ट्रीय स्वाभिमान को उन्नति का पथ प्रदान करेगा। यह सर्वकालिक सत्य है कि कोई भी देश अपनी भाषा में ही अपने मूल स्वत्व को प्रकट कर सकता है। निज भाषा देश की उन्नति का मूल होता है। निज भाषा को नकारना अपनी संस्कृति को विस्मरण करना है। वर्तमान में हम स्वयं इसका विचार करें कि क्या हमें अपनी भाषा के गौरव का अभिमान है, अगर नहीं है तो हम अपने स्वत्व से बहुत दूर होते जा रहे हैं।


विश्व के किसी भी विकसित देश का अध्ययन करने से पता चलता है कि उसके नागरिकों में मन में अपने देश के स्वत्व के प्रति आत्मीय लगाव है, अपने धर्म के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा है, लेकिन हमारे देश के नागरिकों की स्थिति क्या है? वह राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों की स्वयं ही उपेक्षा करने पर उतारू हैं। भारत के मानबिन्दुओं में यूं तो बहुत से प्रतीक शामिल हैं, लेकिन भाषा के तौर हम केवल हिन्दी को ही मान्यता दे सकते हैं। यह सर्वविदित है कि हिन्दी भारत में बहुत बड़े क्षेत्र में बोली जाती है, इतना ही नहीं विश्व में भारत की अधिकारिक भाषा और राष्ट्रीय भाषा के तौर पर हिन्दी को मान्यता दी जाती है। हम जानते ही होंगे कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जब विदेश मंत्री थे, तब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का स्वत्व प्रकट करते हुए हिन्दी में उद्बोधन दिया था। उस समय ऐसा लगा था कि अटल जी ने विश्व के समक्ष भारत का गौरवगान किया है। हिन्दी प्रेमियों के लिए वह क्षण आज भी एक दिशादर्शक की भांति स्मरणीय है।


14 सितम्बर को हिन्दी दिवस है। भारत में हिन्दी दिवस मनाया जाना निसंदेह अटपटा सा ही लगता है। यह शर्म का विषय भी माना जा सकता है, क्योंकि जो भाषा भारत की पहचान है, उस भाषा के प्रयोग करने के लिए हिन्दी दिवस मनाकर अनुरोध किया जाता है, बल्कि यह अनुरोध करने का चलन बढ़ता ही जा रहा है। हमारे लिए वर्ष के सारे दिवस हिन्दी दिवस होने चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। इसका मुख्य कारण यही है कि आज हम जाने अनजाने में जिस प्रकार से अपनी हिन्दी भाषा के साथ मजाक कर रहे हैं, वह अभी भले उही हमें समझ में नहीं आ रहा होगा, लेकिन भविष्य के लिए यह अत्यंत दुखदायी होने वाला है। वर्तमान में प्राय: देखा जा रहा है कि हिंदी की सामान्य बोलचाल में अंग्रेजी और उर्दू शब्दों का समावेश बेखटके हो रहा है। इसे हम अपने स्वभाव का हिस्सा मान चुके हैं, लेकिन हम विचार करें कि क्या यह हिंदी के शब्दों की हत्या नहीं है। एक बात ध्यान में रखना होगा कि हम अंग्रेजी को केवल एक भाषा के तौर पर स्वीकार करें। भारत के लिए अंग्रेजी केवल एक भाषा ही है। जब हम हिंदी को मातृभाषा का दर्जा देते हैं तो यह भाव हमारे स्वभाव में प्रकट होना चाहिये। भारत का परिवेश निसंदेह हिंदी से भी जुड़ा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिंदी भारत का प्राण है, हिंदी भारत का स्वाभिमान है, हिंदी भारत का गौरवगान है। भारत के अस्तित्व का भान कराने वाले प्रमुख बिंदुओं में हिंदी का भी स्थान है। हिंदी भारत का अस्तित्व है।


भाषाओं के मामले में भारत को विश्व का सबसे बड़ा देश निरूपित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारत दक्षिण के राज्यों में अपनी एक भाषा है, जिसे हम विविधता के रूप में प्रचारित करते हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भाषा के मामले में हम अत्यंत समृद्ध हैं। लेकिन कभी कभी यह भी देखा जाता है कि राजनीतिक कारणों के प्रभाव में आकर दक्षिण भारत के कुछ लोग हिंदी का विरोध करते हैं। इस विरोध को जन सामान्य का कुछ भी लेना देना नहीं होता, लेकिन ऐसा प्रचारित करने का प्रयास किया जाता है जैसे पूरा समाज ही विरोध कर रहा हो। दक्षिण भारत के राज्यों में जो भाषा बोली जाती है, उसका हिंदी भाषियों ने सदैव सम्मान किया है। भाषा और बोली के तौर पर भारत की एक विशेषता यह भी है कि चाहे वह दक्षिण भारत का राज्य हो या फिर उत्तर भारत का, हर प्रदेश का नागरिक अपने शब्दों के उच्चारण मात्र से यह प्रदर्शित कर देता है कि वह किस राज्य का है। यह भारत की बेहतरीन खूबसूरती ही है। हिन्दी हमारी राष्ट्रीय पहचान है। दक्षिण के राज्यों के नागरिकों की प्रादेशिक पहचान के रूप में उनकी अपनी भाषा हो सकती है, लेकिन राष्ट्रीय पहचान की बात की जाए तो वह केवल हिंदी ही हो सकती है। हालांकि आज दक्षिण के राज्यों में हिंदी को जानने और बोलने की उत्सुकता बढ़ी है, जो उनके राष्ट्रीय होने को प्रमाणित करता है। आज पूरा भारत राष्ट्रीय भाव की तरफ कदम बढ़ा रहा है।


आज हिंदी को पहले की भांति वैश्विक धरातल प्राप्त हो रहा है। विश्व के कई देशों में हिंदी के प्रति आकर्षण का आत्मीय भाव संचरित हुआ है। वे भारत के बारे में गहराई से अध्ययन करना चाह रहे हैं। विश्व के कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में हिंदी के पाठ्यक्रम संचालित किए जाने लगे हैं। इतना ही नहीं आज विश्व के कई देशों में हिंदी के संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। आज विश्व के लगभग 44 ऐसे देश हैं जहां हिंदी बोलने का प्रचलन बढ़ रहा है। सवाल यह है कि जब हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ रही है, तब हम अंग्रेजी के पीछे क्यों भाग रहे हैं। हम अपने आपको भुलाने की दिशा में कदम क्यों बढ़ा रहे हैं।


- डॉ. वंदना सेन

(लेखिका हिंदी की सहायक प्राध्यापक हैं)

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