प्रेम स्वयं का है विसर्जन (कविता)

By प्रतिभा शुक्ला | May 07, 2018

शीर्षक- प्रेम

सत्य, सनातन, सगुण, शाश्वत

प्रेम है भावों की पूर्णता,

नव नूतन नित रूप चंद्र ज्यों

बहता जाए नद्य वेग सा।

 

विलग है इसकी भाव प्रबलता

हृदय में रहता चिर उल्लास,

महके तन मन, महके जीवन

मनभावन चंदन सुवास।

 

मूरत बसे मन मन्दिर में

नैना विकल पंथ निहारें,

विरही की प्रेम पिपासा को

प्रेम सिक्त हृदय ही जाने।

 

प्रेम अलौकिक, प्रेम दिव्य है

प्रेम आत्मा का है रंजन,

प्रेम अहं से परे अवतरित

प्रेम स्वयं का है विसर्जन।

 

प्रतिभा शुक्ला

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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