हिन्दी काव्य संगम से जुड़ीं लखनऊ की कवयित्री प्रतिभा शुक्ला की ओर से प्रेषित कविता 'मन अरण्य' में मन की उलझन और सुलझन पर प्रकाश डाला गया है।
यामा के तृतीय पहर में
कानन की स्तब्ध नीरवता
आभास कराती है मुझको
मन में पसरी व्याकुलता का।
द्रुमदल से निकली पगडंडी
तिमिर में ही ओझल हो जाती
मेरे मन से भी सुलझन की
कोई राह निकल न पाती।
सुंदर, प्रिय और जीवन घातक
जहरीले और अमृत तुल्य
अरण्य समेटे रहता सबको
ज्यों भावों को मन कौटिल्य।
अमरबेल सी तरुवरों से
लिपटी हैं विषधर इच्छाएं
कीट पतंगे निर्जन में जैसे
स्वर साधें मन की पृच्छाएं।
कठिन बहुत ही आगे बढ़ना
चुनौतियां निश्चल दुविधा सी
रुक जाए तो ठूंठ है जीवन
गति दे स्वप्नों में स्पर्धा सी।
ये दूर तलक भ्रमपूर्ण कुहासा
पथ अवरुद्ध हुआ जाता है।
अंतहीन लगता यह जीवन
देखें विराम कहां आता है।
-प्रतिभा शुक्ला