जीवन का गणित (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Nov 26, 2020

नौ के पहाड़े में जब नौ तियाँ कितना होता है, बता नहीं सका, तभी मेरे भविष्य का फैसला हो चुका था। जो नौ का पहाड़ा नहीं बता सकता वह आगे का पहाड़ा समझे न समझे खुद को पहाड़ अवश्य समझेगा। अंक गणित और बीज गणित दोनों नाम से तो मानो मुझको जुड़वा भाई लगते हैं। एक-सी शक्ल और एक-सी करतूत। स्वप्न में कई बार आर्किमिडिज़, पैथागारस की पीठ पर चढ़कर कुछ सूत्रों को छूने की कोशिश की। कोशिश क्या खुद को बेइज्जत करवाने की भरपूर चेष्टा की। दोनों स्वप्न में मुझे देखकर पिंड छुड़ाकर भागते दिखायी दिए। समय और दूरी के बीच के सूत्र में जब सिर नहीं खपा सका तो एक दिन 10 बटा 2 ने मुझे चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाने की सलाह दी। मैं मरता भी कैसे? मेरे जैसे बेशर्म इंसान बहुत कम पैदा होते हैं।

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चूँकि मैं बड़ा हो चुका हूँ तो मुझे लगा कि अब कभी गणित की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मैंने पाठशाला के समय ही गणित की तेरहवीं और श्राद्ध दोनों कर दी। मैंने उससे हाय-तौबा कर ली और उसने मुझसे। वह अपने घर खुश, मैं अपने घर। वह अपनी कठिनता का जब इतना एटिट्युड दिखाता है तो मैं क्या कुछ कम हूँ। मेरा एटिट्युड बार-बार बेशर्म करने वाले के पीछे जाने से रोकता है। लेकिन यह गुमान ज्यादा देर न टिक सका। सच तो यह है कि हम चाहकर भी गणित से पीछा नहीं छुड़ा सकते। उसने जीवन के वर्तमान को अंकों में बदलकर उसे हमारी उपलब्धियों से भाग दे दिया। जो बचा शेष उसे ही जिंदगी करार दिया। जमाना जिस दौर से गुजर रहा है वहाँ मृत्यु के मूलधन पर ब्याज चढ़ता ही जा रहा है। इसका मूलधन तो दूर ब्याज चुकाने में हमारी हालत सवा सेर गेहूँ जैसी हो गयी है। धरती के कुल योग से जंगल, पहाड़, नदियाँ, समुंदर का व्यकलन होता जा रहा है। जो शेष बचा वह ऋणात्मक बनकर रह गया है।

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अब अंकों से मृत्यु की गंध आ रही है। मात्र एक अदृश्य रूपातीत रूपिणी कब दहाई से सैकड़ा, सैकड़े से हजार और हजार से लाख, करोड़ बन गयी, पता ही नहीं चला। जिंदगी का गणित एक ऐसा विषय है जहाँ गलती होने पर हम स्वयं को न कोसकर भाग्य को कोसते हैं। इससे जीवन का गणित संतुलित बना रहता है। परीक्षा के समय दो खंभों के बीच ट्रेन की स्पीड कितनी है, जैसे प्रश्न अक्सर पूछे जाते थे। अब प्रश्न को कोई क्या बताए कि मेरी दो गिरती उम्मीदों के बीच आत्मविश्वास की स्पीड कितनी है। मैं तो बहुविकल्पीय उत्तर वाले प्रश्नों का आदी हो चुका हूँ। हर बार एक नए विकल्प के साथ जीवन प्रश्न के बहुविकल्पीय उत्तर चुन लेता हूँ। इससे कभी निराशा तो कभी प्रसन्नता हाथ लगती है। चलिए अच्छा है, कभी-कभी प्रसन्नता हाथ तो लगती है! वरना दुनिया में ऐसे कई हैं जो जीवन को रिक्त स्थान की तरह जिए जा रहे हैं और हर बार त्रुटिपूर्ण उत्तर भरकर जीवन के हाथों दुर्भाग्य का तमाचा खाते जा रहे हैं। दिन की शुरुआत में घड़ी देखने के लिए गणित जरूरी है। गणित से लाख पिंड छुड़ाना चाहता हूँ छुड़ा ही नहीं पाता हूँ। चाय पीने का मन करता है तो शक्कर, दूध, पानी का अनुपात वाला गणित आना चाहिए। बाज़ार से कुछ खरददारी करना हो तो गणित आना चाहिए। साँप-सीढ़ी, अष्टचम्मा, लूडो, चेस, क्रिकेट, कबड्डी, हॉकी खेलना हो तो गणित आना चाहिए। गोल रोटी चाहिए तो गणित, तिकोना समोसा चाहिए तो गणित! खुद का क्षेत्रफल समझना हो तो गणित, कटोरी में दाल भरना हो तो उसके घेरे का गणित आना चाहिए। बाप रे! जहाँ देखो वहाँ सिर्फ एक ही चीज़ है- गणित! गणित! गणित! 


-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

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