हमारी अनूठी राष्ट्रीय प्रतिभाएं (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Dec 21, 2018

प्रभावोत्पादक आंकड़े उगाकर, स्वादिष्ट आश्वासन खिलाकर और रंगीन ख्वाब दिखाकर महाखुश कर देने वाली, कानों से स्पष्ट देख सकने वाली और आँखों से अच्छी तरह सुन सकने वाली अनेक अनोखी, अनूठी व विरली राष्ट्रीय प्रतिभाएं भारतीय राजनीति के विचारकों की टोली में हमेशा शामिल रही हैं। इन सबने हाथ से हाथ मिलाकर देश को तरक्की की राह पर दूर तक पहुँचाया है। अपना नाम देश ही नहीं पूरी दुनिया के हर अँधेरे कोने में भी खूब रोशन कर दिखाया है। मगर इनकी समझदारी पर हैरत होती है कि जब यह संसार की समस्याओं पर ज़ोरदार व लच्छेदार भाषण देते हैं तो अपने देश की समस्याएं इन्हें कागज़, कपड़े, लकड़ी, रबड़ व प्लास्टिक के आकर्षक फूलों पर उड़ती फुदकती रंग बिरंगी तितलियां लगती हैं जो इन्हें खूब लुभाती और ललचाती हैं।


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ये विशिष्ट अनुभव वाले देशप्रेमी कभी अपने विशेष सहायकों की टोली और कभी कभी अकेले इनके साथ अठखेलियां करते रहते हैं। खून ख़राबे, तोड़ फोड़ व नफ़रत से भरा उजड़ा बाग़ इन्हें हरा हरा फूलों से भरा दिखता है। इनकी मानने वाले अनेक समझदार लोग हमेशा भरे हुए लेकिन भूखे पेट से खूब गहरा सोचते हैं और शातिर दिमाग़ से स्वादिष्ट खाते हैं। कोई कुछ कहने पूछने सुनने की ज़रा सी हिम्मत कर ले तो हिसाब किताब काग़ज़ कलम से नहीं ज़बान, हाथों और टांगों से करते हैं। अपने बालों को अनुभव समझते हैं और इनकी शानदार सोच इतनी विकसित कर दी गई है कि जो दिखाया जाता है वह हाथोंहाथ खरीद लिया जाता है। पुराने भुलाए जा रहे लोग चुपचाप बताते हैं कि किसी ज़माने में एक शायर ने कलम से लिखा था कि मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ। मगर छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी हो गई है।

 

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अब नए अंदाज़ में लिखी जा रही है बिलकुल नई कहानी। अब तो ज़बान ही कमान हो चुकी है जिस पर बेहतर शैली में गढ़े हुए विचारों के नश्तर गलत लोगों के बढ़ते क़दमों को छलनी करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। इनमें से कितनों के पांव भूतों और चुड़ेलों के लगते हैं मगर सीधे हैं तभी तो भ्रम की स्थिति बनी रहती है कि क्या यह इंसान हैं। ऐसा लगता है पीछे को चलते हैं मगर एहसास करा डालते हैं कि निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। वैसे भी जब ज्यादा आगे बढ़ चुके हों तो पीछे जाना समझदारी नहीं माना जाता। इनकी इच्छाएं किराए पर चलने वालों को लगातार ढूँढती रहती हैं। इनकी बातें सिनथेटिक चाशनी में लिपटी होती हैं  मगर उनका स्वाद दो सौ प्रतिशत क़ुदरती लगता है। राजनीति के धुरंधर होते जा रहे कर्मठ कलाकार ठुमका अपनी जीभ और हाथों से लगाते हैं और ज़माने को नचाते हैं। जनता का चरित्र अभी तक तो नहीं बदला वह भी कई दशक से इशारों पर नाचने की शौक़ीन बनी हुई है। इनकी गर्दन ही नहीं सब कुछ यहां तक के अड़ोस पड़ोस भी लाल बत्ती के बिना भी वीवीआइपी होता है। मुझे तो पूर्ण विशवास है कि इन विरली प्रतिभाओं की बातों के सिर और पैर ही नहीं पेट, टांगें और बाज़ू व पूँछ भी होती है। इनकी ख़ास पूंछ बहुत घुमावदार लंबी टिकाऊ व ज़्यादा आग लगाऊ होती है मगर सब को नहीं दिखती। इनके शरीर के हर हिस्से में राष्ट्रीय डिजिटल आंखें होती हैं जिन्हें सुरक्षित करते बाल इतने ख़तरनाक होते हैं कि आँख में चुभ जाएं तो सारे ख़्वाब बह निकलें और जिंदगी फना हो जाए। इन अनूठी प्रतिभाओं की खूब सारी जय हो।

 

-संतोष उत्सुक

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