By सुखी भारती | Jan 23, 2025
भगवान शंकर ने जैसे ही विवाह के लिए अपनी सहमति दी, तो चारों ओर मंगल छा गया। देवताओं को तो मानों डूबते हुओं को किनारा मिल गया। ऐसे लगा, कि जैसे उन्हें किसी ने चिता से उठाकर नवजीवन प्रदान कर दिया हो। इससे पूर्व तो वे अपने प्राणों को समाप्त हुआ ही मान लिए थे। विवाह का शंखनाद होते ही, सभी देवता भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे। कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ सुंदर सुंदर गीत गाने लगीं-
‘लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान।।’
भगवान शंकर के गणों ने जब यह देखा, कि देवता भी कैसे अजीब हैं? विवाह तो भगवान शंकर का है, और सजने का चाव इन देवताओं को चढ़ा हुआ है। दूल्हा होने के नाते तो भोलेनाथ को ही विशेष प्रकार से सजाना चाहिए। किंतु देवताओं की तो प्रथा ही निराली है। भगवान शंकर को श्रँगारित करने की बजाये, वे तो स्वयं को ही सजाने में मस्त हो गये। इससे स्पष्ट है, कि उन्हें भगवान शंकर से कोई लेना देना अथवा, आँतरिक लगाव नहीं है। वे तो बस अपना उल्लू साधने में लगे हैं। कोई उनसे पूछे, कि भई बारात में सभी दूल्हे को देखते हैं, कि बारातियों को? अब बाराती भले ही कितने ही सुंदर वेषों वाले व श्रेष्ठ क्यों न हों? किंतु अगर उस बारात में दूल्हा ही न हो, तो क्या उस बारात का कोई मूल्य रह जाता है? होना तो यही चाहिए था, कि देवता सर्वप्रथम भगवान भोले नाथ की साज सज्जा में लगते, किंतु वे तो अपने मुख सजाने में ही लग गए। जबकि वह भी तो समय था, जब तारकासुर के भय से उनके मुँह की हवाईयाँ उड़ी हुई थी।
खैर! शिवगणों को इससे बहुत पड़ी भी नहीं थी। कारण कि भगवान शंकर का श्रँगार करने का चाव तो उन्हें ही था, कारण कि वे तो भोलनाथ को निःस्वार्थ प्रेम जो करते थे। सभी शिवगण आनंद मग्न हो भगवान शंकर के श्रँगार में जुट गए-
‘सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा।
जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा।।’
कंडल कंकल पहिरे ब्याला।
तन बिभूति पट केहिरि छाला।।
शिवजी के गणों ने भोलेनाथ की जटाओं को देखा तो उन्हें वे बिखरी सी जटायें अच्छी न लगीं। उन्होंने सोचा, कि दूल्हा तो सुंदर मुकुट या पगड़ी पहनता है, जो कि हमारे पास है नहीं। मान लो होती भी, तो क्या वे पहनते? नहीं पहनते। क्योंकि उनके सीस पर गंगा जी जो बिराजमान हैं। अब बहती गंगा में क्या पगड़ी और क्या मुकुट, सब तो गीला होकर गिर ही जायेगा न? तो क्या किया जाये, कि जटायें भी बनी रहें, ओर उनकी सुंदरता भी प्रगट होने लगे। तो शिवगणों ने जटायों को बाँध कर एवं उन्हें लपेट कर, जटायों का मुकुट बना दिया। लगा कि अब कुछ बात बनी।
लेकिन सच कहें तो शिवगणों को अब भी बात बनती प्रतीत नहीं हो रही थी। उन्हें बँधी जटायें भी सूनी-सूनी सी लग रही थीं। फिर एक गण ने कुछ साँपों को एक साथ लिया, और जाटायों पर साँपों का मौर सजा दिया। जैसे ही साँपों का मौर सजाया, तो शिवगण प्रसन्न हो उठे। क्योंकि इससे जटाओं पर एक छत्र सा सजा प्रतीत होने लगा। शिवजी भी अपने गणों द्वारा किए जा रहे श्रँगार से ऊब से नहीं रहे थे। वे आराम से अपना श्रँगार करवा रहे थे।
अब शिवगणों ने देखा, कि बालों का श्रँगार तो चलो कुछ देखने योग्य हो गया, किंतु प्रभु के सूने कानों को देख मन में संतुष्टि सी नहीं हो रही थी। कारण कि राजा महाराज तो विवाह के समय कानों में कुण्डल और कंकन पहनते हैं, और वे हमारे पास है नहीं। तो कानों में क्या डाला जाये? इतने में एक शिवगण ने सोचा, कि क्यों ना प्रभु के कानों में छोटे-छोटे सर्प ही डाल दिये जायें? बाकी शिवगणों को भी यह सीख अच्छी लगी। तब नन्हें से सर्पों को कानों में सजा दिया। ऐसे शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकन पहने।
फिर एक गण ने देखा, कि संसार में दूल्हों को तैयार करने से पहले हलदी का लेप किया जाता है। हलदी तो हमारे पास अब है नहीं। तो क्या किया जाये? तब एक शिवगण ने मरघट की विभूति ही लगा दी। मानों भगवान शंकर को हलदी लगा दी गई हो। विवाह था, तो वस्त्र भी तो उत्तम होने चाहिए थे। लेकिन समस्या तो यह थी, कि भगवान शंकर तो संसारिक वस्त्र पहनते ही नहीं हैं। तो उन्हें क्या पहनाया जाये? कारण कि कैलाश पर तो वे कैसे भी रह सकते हैं। किंतु आज तो उन्हें दूल्हा सजाया जा रहा है। तो दूल्हा तो नग्न होकर वधु पक्ष के यहाँ नहीं जा सकता न? पूरा हिमाचल नगर भला क्या कहेगा? सभी शिवगण इसी उलझन में थे, कि एक शिवगण अपने हाथों में बाघम्बर लेकर पहुँचा। बड़ा प्रसन्न होकर बोला, कि चिंता किस बात की? हम अपने प्रभु को यह बाघम्बर पहनायेंगे। यह देख सभी शिवगण साधु साधु कहकर उसका समर्थन करने लगे।
भगवान शंकर का श्रृंगार आगे कैसे हुआ, और इस दिव्य श्रँगार का क्या अर्थ व महत्व है, जानेंगे इस पर विस्तृत चर्चा अगले अंक में---(क्रमशः)
जय श्रीराम।
- सुखी भारती