By नीरज कुमार दुबे | Feb 15, 2023
नमस्कार, प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम जन गण मन में आप सभी का स्वागत है। मुस्लिमों के वक्फ बोर्ड की तरह अब हिंदुओं के लिए सनातन बोर्ड की माँग होने लगी है। सनातन बोर्ड की माँग करने वालों का कहना है कि हिंदुओं के धर्म स्थलों की संपत्ति और आय सरकार के पास नहीं जानी चाहिए। सनातन बोर्ड की मांग करने वालों का कहना है कि जब सरकार किसी मस्जिद या चर्च में आने वाले दान या चढ़ावे का एक रुपया भी नहीं लेती तो आखिर क्यों हिंदू मंदिरों में चढ़ाया जाने वाला एक-एक रुपया तक ले लेती है। भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने सनातन बोर्ड की माँग कर विपक्ष को एक नया मुद्दा थमा दिया है लेकिन देखना होगा कि हिंदुत्व की राजनीति में हाथ आजमाने की कोशिश कर रही कांग्रेस और आम आदमी पार्टी क्या इस माँग का विरोध करती हैं?
वक्फ बोर्ड विवादों में क्यों है? इसे कांग्रेस सरकारों ने कैसे संपत्ति कब्जाने वाला संगठन बना दिया?
जहां तक वक्फ बोर्ड की बात है तो आपको बता दें कि यह जमीन कब्जाने वाला एक संगठन बन कर रह गया है। वोट बैंक की सियासत के चलते कांग्रेस सरकारों ने वक्फ बोर्ड के काले कारनामों की हमेशा अनदेखी की। कांग्रेस सरकारों ने तुष्टिकरण की राजनीति के चलते वक्फ बोर्ड के फलने-फूलने के लिए कई रास्ते खोले। कांग्रेस ने वक्फ बोर्ड को असीम शक्तियां दीं जिसके चलते वक्फ बोर्ड की संपत्ति दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। वक्फ बोर्ड के महत्वपूर्ण पदों पर बड़े नेता और दबंग आसीन होने लगे और महत्वपूर्ण जमीनों पर कब्जा कर बंदरबांट का खेल शुरू हो गया।
देखा जाये तो वक्फ बोर्ड में कुंडली मारे बैठे लोगों का धर्म-कर्म से कोई नाता नहीं रह गया है, इनका सारा ध्यान ऐसी जमीनों को हथियाने पर लगा रहता है जिसको लेकर कहीं कोई विवाद चल रहा हो या फिर या फिर ऐसी कोई जमीन हो जिसका कोई वैध वारिस नहीं हो। इसके अलावा वक्फ बोर्ड जहां भी कब्रिस्तान की घेरेबंदी करवाता है, उसके आसपास की जमीन को भी अपनी संपत्ति करार दे देता है। जिसके चलते अवैध मजारों और नई-नई मस्जिदों की भी बाढ़-सी आ रही है। 1995 का वक्फ एक्ट कहता है कि अगर वक्फ बोर्ड को लगता है कि कोई जमीन वक्फ की संपत्ति है तो यह साबित करने की जिम्मेदारी उसकी नहीं, बल्कि जमीन के असली मालिक की होती है कि वो बताए कि कैसे उसकी जमीन वक्फ की नहीं है। 1995 का कानून यह जरूर कहता है कि किसी निजी संपत्ति पर वक्फ बोर्ड अपना दावा नहीं कर सकता, लेकिन यह तय कैसे होगा कि संपत्ति निजी है? इसको लेकर कानून में बिल्कुल भी स्पष्टता नहीं है। अगर वक्फ बोर्ड को सिर्फ लगता है कि कोई संपत्ति वक्फ की है तो उसे कोई दस्तावेज या सबूत पेश नहीं करना है, सारे कागज और सबूत उसे देने हैं जो अब तक दावेदार रहा है। कौन नहीं जानता है कि कई परिवारों के पास पुस्तैनी जमीन के पुख्ता कागज नहीं होते हैं। वक्फ बोर्ड इसी का फायदा उठाता है क्योंकि उसे कब्जा जमाने के लिए कोई कागज नहीं देना है। इसी के चलते वक्फ बोर्ड की संपत्ति में लगातार बेतहाशा वृद्धि होती जा रही है। वक्फ बोर्ड को अपनी दावेदारी साबित करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं करना पड़ता है, वह एक बैनर या बोर्ड लगाकर किसी भी संपत्ति को अपना बता देता है।
हम आपको बता दें कि 1947 में आजादी मिलने के साथ भारत के बंटवारे से पाकिस्तान नया देश बना। तब जो मुसलमान भारत से पाकिस्तान चले गए, उनकी जमीनों को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया गया था। उसी समय 1950 में हुए नेहरू-लियाकत समझौते में तय हुआ था कि विस्थापित होने वालों का भारत और पाकिस्तान में अपनी-अपनी संपत्तियों पर अधिकार बना रहेगा। वो अपनी संपत्तियां बेच सकेंगे। हालांकि, पाकिस्तान में नेहरू-लियाकत समझौते के अन्य प्रावधानों का जो हश्र हुआ, वही हश्र इसका भी हुआ।
हिन्दुस्तान में तो वोट बैंक की सियासत के चलते वक्फ बोर्ड खूब फलाफूला वहीं पाकिस्तान में हिंदुओं की छोड़ी जमीनें, उनके मकानों, अन्य संपत्तियों पर वहां की सरकार या स्थानीय लोगों का कब्जा हो गया। उसी समय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि यहां से पाकिस्तान गए मुसलमानों की संपत्तियों को कोई हाथ नहीं लगाएगा। इसके बाद 1954 में वक्फ बोर्ड का गठन हुआ। देखा जाये तो दुनिया के किसी इस्लामी देश में वक्फ बोर्ड नाम की कोई संस्था नहीं है। यह सिर्फ भारत में है जो इस्लामी नहीं, धर्मनिरपेक्ष देश है।
वक्फ बोर्ड पर सरकारें कैसे मेहरबान रहती थीं इसका सबसे बड़ा उदाहरण वर्ष 1995 में पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार के समय देखने को मिला जब केन्द्र सरकार ने वक्फ एक्ट 1954 में संशोधन किया और नए-नए प्रावधान जोड़कर वक्फ बोर्ड को असीमित शक्तियां दे दीं। इसके बाद वर्ष 2013 में मनमोहन सरकार ने वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन कर इसे और शक्तियां प्रदान कर दीं। हम आपको बता दें कि बड़ी बात है कि अगर आपकी संपत्ति को वक्फ की संपत्ति बता दिया गया है तो आप उसके खिलाफ कोर्ट नहीं जा सकते। आपको वक्फ बोर्ड से ही गुहार लगानी होगी। वक्फ बोर्ड का फैसला आपके खिलाफ आया, तब भी आप कोर्ट नहीं जा सकते। तब आप वक्फ ट्राइब्यूनल में जा सकते हैं। इस ट्राइब्यूनल में प्रशासनिक अधिकारी होते हैं। उसमें गैर-मुस्लिम भी हो सकते हैं। हालांकि, राज्य की सरकार किस दल की है, इस पर निर्भर करता है कि ट्राइब्यूनल में कौन लोग होंगे। संभव है कि ट्राइब्यूनल में भी सभी के सभी मुस्लिम ही हो जाएं। वैसे भी अक्सर सरकारों की कोशिश यही होती है कि ट्राइब्यूनल का गठन ज्यादा से ज्यादा मुस्लिमों के साथ ही हो। वक्फ एक्ट का सेक्शन 85 कहता है कि ट्राइब्यूनल के फैसले को हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है।
सनातन बोर्ड की माँग क्यों?
तो यह तो हुई वक्फ बोर्ड की बात अब जरा सनातन बोर्ड की मांग कर रहे हिंदुओं की बात भी कर लेते हैं। हिंदुओं की ओर से उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को निरस्त करने और देशभर के मठों-मंदिरों की संपत्तियों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की आवाज अगर जोर पकड़ रही है तो इसके कारण भी हैं। हम आपको बता दें कि ‘उपासना स्थल अधिनियम-1991’ कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के उपासना स्थल को, किसी दूसरे धर्म के उपासना स्थल में नहीं बदला जा सकता और यदि कोई इसका उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। यह कानून तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली सरकार 1991 में लेकर आई थी, यह कानून तब आया जब बाबरी मस्जिद और अयोध्या का मुद्दा बेहद गर्म था।
हम आपको यह भी बता दें कि उपासना स्थल अधिनियम यानि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 के प्रावधानों पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसे असंवैधानिक घोषित करने की गुहार भी लगाई गई है। इस एक्ट के खिलाफ दाखिल याचिका में कहा गया है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 के प्रावधान मनमाने और असंवैधानिक हैं। याचिका में कहा गया है कि यह एक्ट हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध लोगों को उनके पूजा स्थल पर अवैध अतिक्रमण के खिलाफ दावे करने से रोकता है और उन्हें अपने धार्मिक स्थल दोबारा पाने के लिए विवाद की स्थिति में कोर्ट जाने से रोकता है।
बात यदि मठों-मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की करें तो आपको बता दें कि संतों का कहना है कि सरकारें केवल मंदिरों का अधिग्रहण करती हैं, मस्जिद या चर्च का नहीं। संतों का यह भी कहना है कि यदि सरकार मंदिर को जनता की संपत्ति समझती है तो पुजारियों को वेतन क्यों नहीं देती? संतों का यह भी कहना है कि यदि मस्जिदें मुस्लिमों की निजी संपत्ति हैं, तो मौलवियों को सरकारी खजाने से वेतन क्यों दिया जाता है? संतगण साल 2014 में आये सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का हवाला भी दे रहे हैं जिसमें अदालत ने तमिलनाडु के नटराज मंदिर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने वाले आदेश में कहा था कि मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है सरकारों का नहीं।
बहरहाल, इस मुद्दे पर सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने सनातन बोर्ड की मांग उठाई है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। इस मांग को जिस तरह से संतों और विश्व हिन्दू परिषद तथा अन्य संगठनों का समर्थन मिल रहा है उससे यह मांग और तेज होगी।