सम्मोहन और स्वतंत्रता का सरकारी परचा (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त' | Nov 08, 2025

तो सुनिए भाईसाहब, ये जो कवि जी कह रहे हैं कि "जब यह सम्मोहन उतर जाएगा, मैं आसमान में उड़ जाऊँगा"—असल में यह आदमी कोई कवि-ववि नहीं, लगता है कोई रिटायर होता सरकारी बाबू है। क्योंकि सम्मोहन उतरने की बात वही कर सकता है जो चालीस साल तक, सुबह दस से शाम पाँच, फ़ाइल के नीचे दबा रहा हो और अब उसे अचानक 'स्वतंत्रता' का दौरा पड़ा हो। यह 'सम्मोहन' क्या था? घर की ईएमआई, बच्चों की फीस, और हर महीने बाबूजी के पेंशन के कागज़ों पर अँगूठा लगाने का मोह। अब, जब सब चुकता हो गया, तो इन्हें आसमान याद आ गया! और "घर और परिवार का मनमोहक सपना छोड़कर, मैं पंख की तरह हवा में उड़ जाऊँगा!"—अरे! यह कौन-सा सपना है जो रिटायरमेंट के बाद याद आता है? घर और परिवार का सपना तो तब होता है जब आप रोज़ शाम को ऑफ़िस की कुर्सी तोड़कर भागते हैं, ताकि बीवी की नाराज़गी से बच सकें। यह तो 'छोड़कर जाने' की धमकी है। यह धमकी नहीं, घोषणा है—कि अब मुझे न घर की किचकिच सुननी, न फ़ाइल की खड़खड़ाहट। अब तो मैं 'पंख' हूँ। माने, अब इन्हें कोई जिम्मेदारी नहीं, कोई जवाबदेही नहीं। अब यह आदमी अपने ही दफ्तर के दफ्तरदारों पर व्यंग्य लिखेगा। ये वही लोग होते हैं जो पूरी ज़िंदगी तो कुर्सी पर चिपककर 'देश-सेवा' करते हैं और रिटायर होते ही 'आध्यात्मिक स्वतंत्रता' का झंडा लेकर निकलते हैं। मानो, स्वर्ग की सीढ़ी पर पैर रखने से पहले, ज़मीन की धूल झाड़ना जरूरी हो। इनकी 'उड़ान' असल में, चार धाम की यात्रा और पोतों को कहानी सुनाने तक सीमित रहती है, मगर दावा पूरा आसमान जीतने का होता है। यही हमारे देश के 'कर्मयोगी' का अंतिम सत्य है।


कवि आगे कहता है, "अभी भी रंग-बिरंगी बहार में, धूप, पानी और मिट्टी का खेल।" यह रंग-बिरंगी बहार क्या है, भाई? यह 'बहार' है नेताओं के चुनावी वादों का कैलेंडर। हर चुनाव में नई बहार आती है—कभी रोज़गार की बहार, कभी अच्छे दिनों की बहार, कभी 'हर घर पानी' की बहार। और ये धूप, पानी और मिट्टी का खेल? यह सीधा-सीधा सरकारी ठेकेदारी का खेल है। जिस सड़क का टेंडर तीस लाख का था, वह 'धूप, पानी और मिट्टी' में तीस हज़ार की बनती है, और तीस करोड़ का हिसाब बन जाता है। हँसी तो तब नहीं रुकेगी, जब आप भ्रष्टाचार को एक 'कला' मान लें—एक ऐसी कला जिसमें हर आदमी पूरे सफ़र में (माने, जन्म से मृत्यु तक) हँसता ही रहता है। इसलिए कवि कहता है, "पूरे सफ़र में हँसी नहीं रुकेगी।" यह हँसी इसलिए नहीं रुकती, क्योंकि हर आदमी दूसरे को ठगकर खुश है। और सबसे बड़ा व्यंग्य तो अंतिम पंक्ति में है: "बस कोई और ट्रेन से नहीं उतरेगा!" यह इस बात का प्रतीक है कि इस सिस्टम वाली ट्रेन में हर कोई अंदर घुसना चाहता है, क्योंकि ट्रेन में घुसने का मतलब है—पावर, पैसा, कमीशन। ट्रेन में तो सब चढ़ेंगे, टिकट हो न हो, पर उतरेगा कोई नहीं। क्योंकि एक बार सरकारी कुर्सी या पावर की सीट मिल गई, तो आदमी को लगता है कि यह ट्रेन सीधे स्वर्ग जाएगी। और अगर आप गलती से उतरने की बात भी कर दें, तो बाकि यात्री आपको पागल घोषित कर देंगे, कहेंगे—"अरे! इतनी बढ़िया सीट और एसी का मज़ा छोड़ कर कौन मूर्ख उतरता है?" हमारे देश में सत्ता की ट्रेन से उतरना, मोक्ष से ज़्यादा कठिन है।

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अब देखिए, ये "बाज़ार का थैला" क्या है? ये वो थैला है जिसमें हर नागरिक अपने 'ईमान' को भरकर बाज़ार में बेचने के लिए ले जाता है। और इसीलिए कवि तुरंत हाथ जोड़ लेता है, "मुझे बाज़ार का थैला रखने को मत कहो।" क्यों? क्योंकि यह थैला बड़ा भारी है—इसमें सिर्फ़ सब्ज़ियाँ नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के छोटे-मोटे समझौते, रिश्वत की पहली किस्त, और अपने 'नैतिक मूल्यों' का चूरा भरा है। और इस थैले को रखने से मना करने की वजह क्या है? "मेरे मन में दुःख की काई जम गई है।" भाईसाहब! यह 'दुःख की काई' बहुत ख़तरनाक है। यह उस सरकारी कर्मचारी के दिल में जमती है, जिसे पता है कि वह ग़लत कर रहा है, पर फिर भी करने के लिए 'मजबूर' है। यह काई इतनी मोटी हो जाती है कि उस बेचारे को अपनी आत्मा की आवाज़ सुनाई देना बंद हो जाती है। अब असली मसला आता है "उपेक्षा और अपमान के राज़" पर। हमारे देश में हर छोटा आदमी बड़े आदमी की उपेक्षा सहता है, उसका अपमान झेलता है। और यह उपेक्षा ही उसकी 'राज' बन जाती है—वह चुपचाप सब देखता है और इंतज़ार करता है कि कब वह बड़ा आदमी बनेगा और दूसरे छोटे आदमी को उपेक्षित करेगा। यह एक चक्र है—उपेक्षा का उत्पादन और अपमान का वितरण। नेता जनता की उपेक्षा करते हैं, जनता नेता को वोट देकर अपना अपमान कराती है, कर्मचारी जनता को टरकाता है, जनता कर्मचारियों को गालियाँ देती है। सब एक-दूसरे से दुखी हैं, पर दुःख बेचता कोई नहीं। इसलिए यह थैला कोई नहीं रखना चाहता—क्योंकि थैला रखते ही, आपको उस काई और राज़ का भागीदार बनना पड़ेगा।


अंतिम पंक्तियाँ बताती हैं कि इस सब का सार क्या है: "आओ बेचो, पानी और मिट्टी को बुलाओ।" यह क्या मज़ाक है? यह मज़ाक नहीं है, यह आज के भारत का अर्थशास्त्र है। जब सबकुछ बिक रहा है—देश की ज़मीन, सरकारी कंपनियाँ, यहाँ तक कि लोगों की राय भी—तो कवि कह रहा है, "आओ बेचो!" खुली छूट है। और बेचने के लिए क्या बचा है? 'पानी और मिट्टी'। माने, जीवन की सबसे मूलभूत चीज़ें। जिस देश में पानी के लिए भी बिसलरी का बिल देना पड़े और मिट्टी (ज़मीन) भी उद्योगपतियों के हाथों में चली जाए, वहाँ इससे ज़्यादा व्यंग्यात्मक बात क्या होगी? "पानी और मिट्टी को बुलाओ" का मतलब है कि अब तो भगवान भी ज़मीन पर उतरकर अपने लिए पानी और रहने की जगह ढूँढें। यह आह्वान उस 'आत्मनिर्भरता' का है जहाँ आदमी केवल बेचने और खरीदने वाला बनकर रह गया है। जहाँ कविता में उड़ने की बात करने वाला भी अंत में 'बाज़ार का थैला' देखकर डर जाता है। जहाँ सम्मोहन (मोह) टूटता है तो आदमी आज़ादी के बजाय 'व्यापार' की ओर भागता है। यह वह समाज है, जहाँ नैतिकता एक बिकने वाला आइटम है और आज़ादी एक विज्ञापन। यह कविता, दरअसल, उस आम आदमी की अंतिम चीख़ है, जो सब कुछ छोड़कर उड़ना चाहता था, पर अंत में उसे समझ आ गया कि यहाँ तो 'उपेक्षा और अपमान' ही जीवन का स्थायी भाव है, और इस स्थायी भाव को मिटाने के लिए उसे भी आख़िर में बाज़ार में उतरकर अपना सब कुछ बेचना पड़ेगा। उड़ना-वड़ना सब हवाई बातें हैं। असली उड़ान तो दलाली और मुनाफ़े में है।


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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