अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार काउंसिल से खुद को अलग कर लिया। इससे पहले अमेरिका नीतियों के प्रतिकूल होने का आरोप लगाते हुए राष्ट्रसंघ के संगठन युनस्को से अलग हो गया। विश्व संगठन या ऐसे समझौतों से अमरीका लगातार अलग होता जा रहा है। अमेरिका ने ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को मानने से इंकार कर दिया। विश्व में सर्वााधिक दूसरे स्थान पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने के बावजूद अमरीका ने पेरिस पर्यावरण समझौते को मानने से इंकार कर दिया।
इन सबके पीछे अमेरिका की दलील है इनसे अमरीकी हितों को नुकसान पहुंच रहा है। इस तरह के समझौते या नीतियां अमरीका फर्स्ट की नीति के खिलाफ हैं। अमरीका को विश्व समुदाय की परवाह नही है कि कौन उसके बारे में क्या सोचता है। क्या भारत भी अपने हितों की सुरक्षा की खातिर अमेरिका जैसी नीति अपना सकता है? भारत अपने आतंरिक, सीमा संबंधी या वैश्विक मामलों में अमेरिका की तरह निर्णय कर सकता है। भारत भी अमेरिका की तरह इंडिया फर्स्ट की नीति का अनुशरण क्यों नहीं कर सकता?
मानवाधिकार काउंसिल के प्रमुख जैद राहद अल हुसैन ने शरणार्थियों से उनके बच्चों को अलग करने पर अमेरिका की खिंचाई की। इससे खफा होकर अगले ही दिन अमेरिका ने मानवाधिकार काउंसिल की सदस्यता छोड़ दी। दलील यह दी गई कि मानवाधिकार काउंसिल इजरायल को लेकर पूर्वाग्रह से प्रेरित है। इसी मानवाधिकार काउंसिल ने कश्मीर में सेना पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया है। दुर्भाग्य से मानवाधिकार काउंसिल को कश्मीर में आतंकियों और पत्थरबाजों के मानवाधिकारों का उल्लंघन तो नजर आया किन्तु पाकिस्तान इनको पनाह दे रहा है, यह दिखाई नहीं दिया।
भारत की ओर से इसका प्रतिवाद तो किया गया किन्तु काउंसिल की सदस्यता छोड़ना तो दूर इसकी चेतावनी देने का भी साहस नहीं दिखा सका। यह अकेला मामला नहीं है जब इस तरह के घरेलू या वैश्विक मुद्दे पर भारत विश्व के सामने अभिव्यक्ति को बुलंद तरीके से दर्ज नहीं करा सका। इस मामले में भारत के नेताओं की हालत पिंजरे में बंद शेरों जैसी है। जो सिर्फ गुर्रा सकता है, आपस में लड़ सकते हैं किन्तु विश्व के सामने दहाड़ नहीं सकते। कश्मीर का मुद्दा अकेला नहीं है। नुकसान के बावजूद भारत पर हमेषा वैश्विक संधि−समझौतों का मानने का दवाब रहा है।
भारत कभी आंतरिक हितों की खातिर इनका विरोध करने और इनसे अलग होने का साहस नहीं दिखा सका। यह स्थिति बताती है कि हम कहने को कितने ही महान संस्कृति, योगा और धर्म वाले देश कहलाएं पर हमारी अन्दरूनी कमजोरियों ने ही विश्व में हमारी आवाज को अनुसना कर दिया है। केवल योग और धर्म जैसी बातों के बूते हम विश्व की आंख में आंख डालकर बात नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनवरत विदेश यात्राओं से चंद व्यापारिक समझौते जरूर हो गए। स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल होने के कारण योगा को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मान्यता भी दे दी। किन्तु भारत को कमजोर निगाहों से देखने के वैश्विक नजरिए में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
यही वजह है कि पाकिस्तान हो या चीन, आतंकवाद पर कूटनीति से भारत को अकेले ही जूझना पड़ रहा है। व्यापारिक हितों और कथित मानवतावादी चेहरा दिखाने के लिए विश्व के अन्य देश तुष्टिकरण की नीति के तहत दबे−छिपे तरीके से भारत का समर्थन कर देते हैं। यह जानते हुए भी पाकिस्तान आतंकियों की पनाहगाह है और चीन विश्व के कायदे−कानून अपने फायदे के हिसाब से तय करता है, विश्व का कोई भी देश या संयुक्त राष्ट्रसंघ दोनों को कुछ नहीं बिगाड़ सका। दक्षिणी चीन सागर के मुद्दे पर चीन ने अंतरराष्ट्रीय जलसंधि को मानने से इंकार कर दिया। यहां स्थित विवादित द्वीप पर निर्माण कार्य जारी है।
भारत की कमजोरी या यूं कहें कि उसे कमजोर करने में राजनीतिक दलों का ही हाथ है। सत्ता के लिए लड़ते−झगड़ते सभी दल एक−दूसरे को नीचा दिखाने में ही लगे रहते हैं। इन्हें इस बात का अंदाजा नहीं है कि इस हालत से कमजोर हुए भारत को विश्व में नीचा देखना पड़ रहा है। भारत अमरीका की तरह विश्व को अपने दृढ़ इरादों की झलक नहीं दिखा सकता। अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को खोजने के लिए पूरे अफगानिस्तान को बमों से खोखला कर दिया और आखिरकार पाकिस्तान में घुस कर उसे मार गिराया। अमेरिका ने इसकी किसी से स्वीकृति नहीं ली।
इसके विपरीत भारत विश्व के मंचों पर पाकिस्तान स्थित आतंकी सरगनाओं की गुहार लगाने तक ही सीमित रहा। इसी से भारत की लाचारी समझी जा सकती है। दुखद यह है कि देश के नेताओं को ऐसी हालत से कोई शर्म नहीं आती। इन्हीं आंतरिक कमजोरियों के चलते भारत आतंकी सरगनाओं का सफाया नही कर पाया। यह निश्चित है कि जब तक राजनीतिक दल क्षुद्र स्वार्थों और अंध भावनाओं से परे जाकर दूरदृष्टि से देश को मजबूत करने की दिशा में कदम नहीं उठाएंगे तब तक भारत की विश्व में कोई सुनवाई नहीं करेगा। इसके लिए सभी मुद्दों पर राजनीतिक दलों को व्यापक दृष्टि से इंडिया फर्स्ट की नीति अपनानी होगी, तभी भारत का सुर विश्व में गूंज सकेगा। तभी भारत समर्थन लेने के लिए दूसरे देशों की ओर ताकने के बजाए अमरीका की तरह अपने हितों के हिसाब से वैश्विक नीतियों में दखलंदाजी कर पाएगा।
योगेन्द्र योगी