मुट्ठीभर पाक परस्त मुसलमानों की आंखें अब तो खुल जानी चाहिए

By राकेश सैन | Feb 10, 2020

नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ किए जा रहे प्रदर्शनों में कुछ स्थानों पर 'पाकिस्तान से नाता क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह' के मतान्ध नारे सुनने को मिले। दूसरी ओर चीन में फैले कोरोना वायरस  के बाद पूरी दुनिया के देशों ने अपने नागरिकों को वहां से निकालना शुरू कर दिया है, सिवाय पाकिस्तान के। पाकिस्तानी स्वास्थ्य मन्त्री का कहना है कि चीन उनका घनिष्ठ मित्र है और वे अपने छात्रों को वहां से निकाल कर दुनिया को ये सन्देश नहीं देना चाहते कि कोरोना वारयस के चलते चीन की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। सोशल मीडिया पर देखने को मिल रहा है कि चीन के वुहान नगर में फसे पाकिस्तानी विद्यार्थी वहां से निकलने को छटपटा रहे हैं और उनके परिजन अपनों की कुशलता के लिए आतुर होकर इमरान खान सरकार को कोस रहे हैं।

 

इस घटना से पाकिस्तान के साथ 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का नाता जोड़ने वाले मुट्ठीभर भारतीय मुसलमानों की आंखें खुलनी चाहिएं कि जो देश अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर गम्भीर नहीं, अपने ही हमवतनों व हमधर्मियों को मौत के आगोश में तड़पता हुआ छोड़ देता है वो उनका कितना सगा हो सकता है ? खुद चीनी सरकार ने स्वीकार किया है कि कोरोना वायरस उनके यहां महामारी का रूप धारण कर गया। वहां इस महामारी में मरने वालों की संख्या 636 हो गई। इस वायरस के अब तक कुल 31 हजार से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। वायरस के प्रसार पर रोक लगाने के लिए दो दर्जन से ज्यादा विदेशी वायु सेवाओं ने चीन के लिए अपनी उड़ानें बन्द या सीमित कर दीं। कई देशों ने चीन से लगती अपनी सीमाएं भी सील कर दी हैं। इतना होने के बाद भी अगर पाकिस्तान मानता है कि चीन में स्थिति गम्भीर नहीं है तो उनके आकलन पर या तो अफसोस व्यक्त किया जा सकता है या इसे लापरवाही की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। फिलहाल पाकिस्तानी अभिभावक अपने बच्चों को लेकर चिन्तित हैं और वहां की सरकार के समक्ष भारत की अपने नागरिकों के प्रति सन्वदेनशीलता का उदाहरण रख रहे हैं। आश्चर्य है कि भारत के कुछ लोग उसी पाकिस्तान के साथ 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का नाता जोड़ने को आतुर दिख रहे हैं जिसे अपने लोगों की सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं। इस तरह के नारे लगाने वालों की यह गलती लगभग वैसी ही है जैसी कि पाकिस्तान के निर्माण के समय भारत छोड़ कर नई-नई इस्लामिक जन्नत में गए मुसलमानों ने की और आज दूसरी श्रेणी के नागरिक बन कर अपनी ऐतिहासिक गलती पर पछता रहे हैं।

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भारत के मुसलमान ठीक ही गर्व से यह बात कहते हैं कि उन्होंने मोहम्मद अली जिन्नाह के द्विराष्ट्र सिद्धान्त को नकारते हुए भारत को अपना वतन स्वीकार किया, लेकिन उन्हें इसका गर्व करने के साथ-साथ अल्लाह ताअला का धन्यवाद भी करना चाहिए कि वे धर्म के नाम पर बने उस देश में जाने से बच गए जहां भारत से गए मुसलमानों को आज भी मुहाजिर कहा जाता है। उर्दू के मुहाजिर शब्द का हिन्दी में अर्थ है, अपना देश छोड़ कर दूसरे देश में निवास करने वाला। कहने का भाव कि पाकिस्तानी मुसलमान आज भी भारत से गए उत्तर प्रदेश व बिहारी मुसलमानों को स्वीकार करने को तैयार नहीं। ये लोग भारत में अपना सार घर-बार छोड़कर पाकिस्तान आए थे लेकिन पाकिस्तान में इन उर्दूभाषी लोगों को मुहाजिर कहा गया। ये जिस हालत में आए थे आज भी उसी हालत में कराची की मैली-कुचैली गलियों में जीवन बिता रहे हैं। लगभग 50 प्रतिशत मुहाजिर अत्यन्त गरीबी की हालात में सिन्ध व खास कर कराची में रहते हैं। 72 साल बीत जाने बाद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। गरीबी से जूझते ये लोग बड़ी संख्या में कराची के गुज्जर नाला, ओरंगी टाउन, अलीगढ़ कॉलोनी, बिहार कालोनी और सुर्जानी इलाकों में रहते हैं। साल 2001 के सरकारी आँकड़ों के अनुसार पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 16.5 करोड़ है जिसमें मुहाजिरों की संख्या लगभग आठ प्रतिशत है। पाकिस्तान में रह रहे पंजाबी मुसलमानों की प्रताडऩा झेलते-झेलते ये लोग इतने परेशान हैं कि पाकिस्तान से अलग होने के लिए संघर्ष करने को मजबूर हो रहे हैं। इन मुहाजिरों की मनोदशा व पीड़ा को मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने यूं अपने शब्दों में पिरोया है:-

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मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।

तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।।

कहानी का ये हिस्सा आजतक सबसे छुपाया है।

कि हम मिट्टी की खातिर अपना सोना छोड़ आए हैं।।

नई दुनिया बसा लेने की इक कमजोर चाहत में।

पुराने घर की दहलीजों को सूना छोड़ आए हैं।।

अकीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी।

वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं।।

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है।

वहीं हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं।।

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफा में याद आता है।

अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं।।

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे।

दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं।।

हमें सूरज की किरनें इसलिए तकलीफ देती हैं।

अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं।।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मजहब।

इलाहाबाद में कैसा नजारा छोड़ आए हैं।।

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की।

किसी शायर ने लिखा था जो सेहरा छोड़ आए हैं।।

 

यह गजल केवल साहित्य की पंक्तियां भर नहीं बल्कि पछतावा है, पीड़ा और व्यथा है भारतीय मुसलमानों की उस पीढ़ी को जो अपनी जड़ों से कट कर 1947 में पाकिस्तान से 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का रिश्ता जोड़ बैठी। इस तरह के भड़काऊ नारे लगाने वालों को स्मरण रहना चाहिए कि पूरी दुनिया में केवल भारत ही ऐसा देश है जहां इस्लाम के सभी 72 फिरके एक साथ अमन से रहते हैं और विकास के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं अन्यथा यह सौभाग्य किसी इस्लामिक देश को भी प्राप्त नहीं है।

 

-राकेश सैन

 

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