By कमलेश पांडे | Jul 08, 2025
अमेरिकी नेतृत्व वाले जी-सेवन के मुकाबले ब्रिक्स देशों की जवाबी रणनीति और उसके बारे में सम्बन्धित देशों के द्वारा ना-नुकुर करते रहने से विफ़रे अमेरिकी चिढ़ के अंतरराष्ट्रीय मायने स्पष्ट हैं और ये देर-सबेर अमेरिका पर ही भारी पड़ने वाले हैं। यद्यपि डोनाल्ड ट्रंप का टैरिफ ब्रेक के बाद फिर से दुनिया में हलचल मचाने लगा है, क्योंकि गत सोमवार को ही उन्होंने अपने मित्र जापान-साउथ कोरिया समेत 14 देशों पर फ्रेश टैरिफ लगाने का ऐलान किया है।
वहीं इससे पहले ब्रिक्स पर निशाना साधते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंफ ने कहा है कि जो देश अमेरिकी नीतियों के खिलाफ जाएगा, उस पर 10 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाया जाएगा। हालांकि ट्रंप की इस चेतावनी को लेकर ब्रिक्स में शामिल सदस्य देशों ने कड़ी आलोचना की है। इसलिए स्वाभाविक सवाल है कि आखिर ऐसी कौन सी वजह है, जिसे लेकर ब्रिक्स देश ट्रंप के टारगेट पर हैं और इन अतिरिक्त टैरिफ का इन देशों पर क्या असर होगा, जिसमें उसका कथित मित्र भारत भी शामिल है?
उल्लेखनीय है कि ब्रिक्स दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है। इसके संस्थापक सदस्य देशों में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका हैं। दरअसल, इसका नाम भी इन्हीं पांच देशों के पहले अक्षर को लेकर बनाया गया है। ब्रिक्स का उद्देश्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में आर्थिक सहयोग, विकास और वैश्विक संतुलन बढ़ाना है। ब्रिक्स की स्थापना 2009 में हुई और 1 जनवरी 2024 को ईरान, मिस्र, इथियोपिया, इंडोनेशिय और संयुक्त अरब अमीरात को भी संगठन में शामिल किया गया था। वैसे तो सऊदी अरब भी इसमें आमंत्रित राष्ट्र के रूप में ग्रुप की गतिविधियों में भाग लेता है, हालांकि अभी तक वह आधिकारिक तौर पर शामिल नहीं हुआ है। शायद अपनी अमेरिकी करीबियों के चलते!
बता दें कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते 2 अप्रैल को ही दुनिया के तमाम देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ का ऐलान किया था। हालांकि, बाद में इसे 90 दिन के लिए रोक दिया था। इस छूट की डेडलाइन 9 जुलाई को खत्म होने वाली थी, लिहाजा इसे 1 अगस्त 2025 तक बढ़ाया गया है। वहीं, इससे पहले सोमवार 7 जुलाई को ही ट्रंप ने अपना टैरिफ बम फोड़ना शुरू कर दिया और जापान-साउथ कोरिया के अलावा म्यांमार, लाओस, दक्षिण अफ्रीका, कजाकिस्तान, मलेशिया, ट्यूनीशिया, इंडोनेशिया, बोस्निया, बांग्लादेश, सर्बिया, कंबोडिया और थाईलैंड पर 25 फीसदी से 40 फीसदी तक टैरिफ लगाने का ऐलान कर दिया। इसी बीच उन्होंने सोशल मीडिया के जरिए ब्रिक्स देशों के लिए एक चेतावनी भी जारी की।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंफ ने अपने ट्रुथ सोशल अकाउंट पर लिखा है कि जो भी देश ब्रिक्स की एंटी-अमेरिकन पॉलिसी का समर्थन करेंगे, उन पर 10 फीसदी का एक्स्ट्रा टैरिफ लगाया जाएगा और अमेरिका की इस नीति में किसी भी तरह की कोई छूट की गुंजाइश नहीं है। इशारा स्पष्ट इशारा भारत की ओर था। यहां बता दें कि ब्राजील के रियो डी जनेरियो में 6-7 जुलाई को संपन्न हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के बाद जारी एक घोषणापत्र में यूएस टैरिफ की आलोचना की गई थी, जिसके बाद डोनाल्ड ट्रंप की ये तीखी प्रतिक्रिया सामने आई है।
इसलिए सवाल दर सवाल उभरता है कि आखिर क्या टैरिफ की आलोचना ही एकमात्र कारण है, जिसे लेकर डोनाल्ड ट्रंफ ब्रिक्स को टारगेट कर रहे हैं, या इसके पीछे और भी कुछ ठोस वजह हैं। यदि ऐसा है तो क्या क्या है, यह जानना हर किसी के लिए जरूरी है। पहली बात तो ये कि इस साल अमेरिकी करेंसी डॉलर में आई तगड़ी गिरावट और बीते कुछ समय में यूएस इकोनॉमी में सुस्ती के कारण ट्रंप को ऐसा लगता है कि हर कोई अमेरिका के खिलाफ साजिश कर रहा है। वहीं, दूसरा बड़ा कारण दुनिया के तमाम बड़े देशों द्वारा डॉलर के उपयोग को कम करने की दिशा में कदम बढ़ाना भी इसके पीछे की वजह समझा जा सकता है।
इस बात का एक बड़ा उदाहरण देखें, तो स्पष्ट होता है कि ब्रिक्स के संस्थापक सदस्य देशों में शामिल और आर्थिक रूप से मजबूत रूस और चीन आपस में अपनी करेंसी में ही ट्रेड करते रहे हैं। यही नहीं 2022 में तो रूस ने ब्रिक्स देशों के लिए एक इंटरनेशनल करेंसी का प्रस्ताव भी दिया था। जिससे अमेरिका का चिढ़ना स्वाभाविक है। क्योंकि डॉलर पर बड़े देशों की निर्भरता कम होना अमेरिका के प्रभुत्व के लिए एक बड़ा खतरा साबित हो सकता है, जिसको लेकर ट्रंप की चिंता बढ़ी हुई है। वहीं, जब से अमेरिका ने ग्लोबल फाइनेंशियल इंफ्रास्ट्रक्चर को अपना हथियार बनाया है और ईरान (2012 में) के अलावा रूस (2022 में) को विश्वव्यापी अंतरबैंक वित्तीय दूरसंचार (SWIFT) सोसायटी से बाहर रखा गया है, तभी से दुनिया भर के देशों ने अमेरिकी डॉलर और अमेरिकी नेतृत्व वाली वैश्विक वित्तीय प्रणाली पर अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश की है।
सच कहा जाए तो डोनाल्ड ट्रंप ब्रिक्स को ऐसे ही टारगेट नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसका एक बड़ा कारण ये भी है कि ब्रिक्स अब वैश्विक आबादी का 45 प्रतिशत हिस्सा है और दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में 35 प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है। अब अगर वे वैश्विक व्यापार में इस समूह में शामिल बड़े देशों द्वारा डॉलर के उपयोग को कम किया जाएगा, तो ये अमेरिका के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं होगा। वैसे भी डॉलर में इस साल येन-यूरो के मुकाबले 10 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है और ये बीते दिनों 3 साल के निचले स्तर पर पहुंच गया था।
वहीं, अमेरिका की एक्स्ट्रा टैरिफ की धमकी के बाद ब्रिक्स के संस्थापक सदस्यों में शामिल ब्राजील के राष्ट्रपति लुईस इनसियो लूला दा सिल्वा ने सख्त तेवर दिखाए हैं और 10% टैरिफ लगाने की ट्रंप की धमकी को सिरे से खारिज कर दिया। साथ ही उन्होंने कहा कि अब दुनिया बदल चुकी है और हमें कोई सम्राट नहीं चाहिए। उन्होंने ठीक ही कहा कि ब्रिक्स अब वैश्विक अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित करने के नए तरीके तलाश रहा है। मुझे लगता है कि यही वजह है कि कुछ बड़े देश/लोग खुद में असहज महसूस कर रहे हैं। वहीं चीन ने भी स्पष्ट कहा है कि ब्रिक्स किसी भी देश के खिलाफ नहीं है।
सनद रहे कि इससे पहले साल 2025 की शुरुआत में ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ब्रिक्स देशों को बड़ी चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर इसमें शामिल देश वैश्विक व्यापार में डॉलर की भूमिका को चुनौती देंगे, तो फिर उन्हें 100 प्रतिशत टैरिफ का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, ताजा चेतावनी सिर्फ 10 फीसदी की है, जो सुकून की बात है। इस बीच एक अमेरिकी मीडिया की एक रिपोर्ट की मानें, तो इसमें कहा गया है कि अमेरिका का ट्रंप प्रशासन सभी ब्रिक्स देशों पर तत्काल 10% टैरिफ लगाने की योजना नहीं बना रहा है, बल्कि अगर कोई भी देश ऐसे कदम उठाता है जिसे वह अमेरिका विरोधी मानता है, तो उसे इस तरह की अमेरिकी कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है।
वहीं, एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्या ट्रंफ की ये एक्स्ट्रा टैरिफ की धमकी भारत के लिए भी परेशानी का सबब बन सकती है? ऐसा इसलिए क्योंकि भारत ब्रिक्स के संस्थापक सदस्यों में शामिल हैं। हाल ही में भारत ने ब्रिक्स के उस घोषणापत्र पर साइन किए हैं, जिसमें अमेरिकी टैरिफ की आलोचना की गई। इसलिए ये सवाल भी अहम हो जाता है क्योंकि टैरिफ युद्ध के बीच इंडिया और अमेरिका के बीच ट्रेड डील पर फाइनल मुहर लगना बाकी है। हालांकि, ट्रंप ने सोमवार को 14 देशों पर नए सिरे से टैरिफ का ऐलान करते हुए भारत-अमेरिका ट्रेड डील को लेकर कहा है कि हम भारत के साथ सौदा करने के करीब हैं। भारत के लिए यह उम्मीद की किरण है।
हालांकि, लोकतंत्र के कथित पहरूए और जनद्रोही पूंजीवाद के कट्टर समर्थक अमेरिका को यदि समझना हो तो उसकी उन नीतियों पर गौर करना लाजिमी है, जिसके बल पर वह पूरी दुनिया को हांकता रहता है। कभी तकनीकी क्रांति और कभी आर्थिक लाभ हेतु डॉलर डिप्लोमेसी का सहारा लेने वाला अमेरिका दुनिया भर में पहले झगड़ा लगाने और फिर पंचायती करके लाभ कमाने का आदी रहा है। इसलिए उसकी नीतियों को वक्त वक्त पर अंतरराष्ट्रीय चुनौती भी मिलती रही हैं। भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था का उन्नायक कब और कैसे मानवता विरोधी खलनायक बन गया, जनशोध का विषय है।
जानकार बताते हैं कि "मेक अमेरिका ग्रेट अगेन" का नारा देने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को उन यूरोपीय, एशियाई, अफ्रीकी, ऑस्ट्रेलियाई, दक्षिण अमेरिकी देशों का असरदार सरदार समझा जाता है, जो दुनिया को दर्द बांटकर उसके कारोबारी सफलता हासिल करने के यत्न दर यत्न का घिनौना समर्थन करते रहते हैं। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सोवियत संघ (मौजूदा रूस के पड़ोसी देशों का संघ गणराज्य) को चुनौती देकर हथियारों, ड्रग्स सिंडिकेट और कारोबारी सिंडिकेट की आड़ में मानवता को तबाह करने का आरोपी अमेरिका, जब 21वीं के पूर्वार्द्ध में चीन से अनर्गल प्रतिस्पर्धा करता हुआ दिखाई दिया, तो लोगों के मन में सवाल उपजा की, आखिर रूस और भारत के खिलाफ तथा पाकिस्तान के समर्थन हेतु अमेरिका ने जिस चीन में औद्योगिक विकास की रफ्तार दी, आखिर अब वह उसी चीन को अपना कारोबारी दुश्मन क्यों बना बैठा है?
उससे भी बड़ा सवाल यह कि एकमात्र यहूदी देश इजरायल विरोधी इस्लामिक देशों को आपस में लड़वाकर और आतंकवादी पैदा करने की फैक्ट्री बनाकर उन्हें बर्बाद करने वाला अमेरिका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब इतना लाचार क्यों है? क्या चीन-रूस-उत्तरकोरिया-ईरान की मिलीभगत से उसकी वैश्विक दुनियादारी जनित थानेदारी खतरे में है? क्या अमेरिका-यूरोप विरोधी इस्लामिक देश भी चीन-रूस के नेतृत्व में गोलबंद होकर अमेरिका को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं? क्या आतंकवाद विरोधी रुख पर अमेरिका के साथ खड़ा हुआ भारत अब उसके पुराने पाकिस्तान-बंगलादेश प्रेम की घरवापसी होते ही उससे छिटकने को तैयार बैठा है?
सवाल है कि क्या इजरायल, भारत, रूस, जापान, इंडोनेशिया, जर्मनी, फ्रांस, इटली, इंग्लैंड, यूरोपीय संघ, कनाडा, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, सऊदी अरब और ओआईसी से जुड़े 56 कट्टर मुस्लिम देशों के शह-मात से अमेरिका परेशान महसूस करता है? इजरायल-अरब युद्ध उसके गले की हड्डी बन चुकी है या कारोबारी लाभ के नए नए मौके सृजित कर रही है। दुनिया के कई मजबूत देशों को मजबूर बनाए रखने के लिए उसके पड़ोसियों को भड़काए रखने की अमेरिकी रणनीति है, वह बेहद घातक है। इससे मानवता शर्मशार है। क्योंकि जब अमेरिका के हथियार बिकते हैं तो वहां खुशी की लहर दौड़ती है, लेकिन जब वही हथियार किसी देश या मानवीय समूह पर टूटने लगते हैं तो मानवता कराह उठती है। हालांकि, कुचरा की पारी अंतिम बारी वाली कहावत अब अमेरिका पर भी लागू हो रही है, क्योंकि वह अपने ही सैन्य व आर्थिक चक्रब्युह में घिर गया है और उससे बाहर आने के लिए छटपटा रहा है, क्योंकि अब वह भी अपनी अंतिम गति से वाकिफ हो चुका है!
सवाल है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंफ कभी रूस की तारीफ करते हैं, कभी भारत से डील चाहते हैं, कभी चीन को पुचकारते हैं, कभी यूरोपीय देशों को हड़काते हैं, कभी पाकिस्तानी प्रेम का इजहार करते हैं तप इसके मायने क्या हैं? शायद फूट डालो और राज करो। अब अमेरिका इस बात को समझ चुका है कि रूस, चीन के बाद भारत से जो उसके सैन्य व आर्थिक टकराव होने के आसार बढ़े हैं, वह यूनाइटेड किंगडम की तरह ही अमेरिकी किंगडम को भी बर्बाद कर देंगे। अमेरिका के बारे में आम धारणा है कि ईराक, लीबिया, वियतनाम, सीरिया, अफगानिस्तान आदि देशों को बर्बाद करने में उसकी अहम भूमिका है। आज यूक्रेन बर्बादी के कगार पर खड़ा है, कल ताइवान की भी यही दुर्गति हो सकती है, पाकिस्तान को बर्बाद/आबाद करने में उसकी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन ईरान से जो उसकी शत्रुता है, वही उसके विनाश की बुनियाद रख चुकी है।
जानकार बताते हैं कि जी-7 के देश यानी अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान आदि पश्चिमी खेमे के मुकाबले खड़ा किये गए ब्रिक्स देशों के समूह यानी ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन, दक्षिण अफ्रीका आदि की जो आर्थिक व सैन्य रणनीति है, उससे तीसरे विश्वयुद्ध या परमाणु युद्ध की संभावनाएं ज्यादा बलवती होंगी। यही वजह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंफ कारोबारी टैरिफ के मुद्दे को लेकर आक्रामक हैं। उन्होंने ब्रिक्स समूह में शामिल होने की सोच रहे देशों को चेतावनी दी है कि ब्रिक्स से जुड़ने की सोच रहे देशों पर 10 फीसदी अधिक टैरिफ लगाया जाएगा। बता दें कि इस ग्रुप में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के अलावा पिछले साल यानी 2024 में इसमें मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इंडोनेशिया शामिल हुए थे।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिज्ञ बताते हैं कि ट्रंप ने ब्रिक्स समूह पर अमेरिकी विरोधी होने का आरोप लगाया है। यह गलत भी नहीं है, क्योंकि रूस, चीन, भारत, ईरान जैसे कई देशों के साथ चूहे-बिल्ली वाली कूटनीति जारी है। चूंकि ब्राजील में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन-2025 चला, इसलिए अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप का धमकी भरे अंदाज में आना स्वाभाविक था।वो इसमें शामिल हुए नए देशों को टैरिफ की धमकी देकर डराना चाह रहे हैं। उन्होंने ऐसे देशों को धमकाते हुए कहा, "ब्रिक्स की अमेरिका विरोधी नीतियों से जुड़ने वाले किसी भी देश पर 10% अतिरिक्त टैरिफ लगाया जाएगा। इस नीति में कोई अपवाद नहीं होगा। इस मामले पर आपका ध्यान देने के लिए धन्यवाद!" इससे साफ है कि अब चीन-पाकिस्तान विरोधी भारत भी इसके लपेटे में आएगा। यूँ तो इस साल की शुरुआत में ट्रंप ने अमेरिकी डॉलर को बदलने की कोशिश कर रहे ब्रिक्स देशों पर 100 फीसदी टैरिफ लगाने की चेतावनी भी दी थी। उन्होंने कहा था कि वह किसी दूसरे बेवकूफ देश को ढूंढ सकते हैं। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि ब्रिक्स अंतरराष्ट्रीय व्यापार में या कहीं और अमेरिकी डॉलर की जगह ले लेगा, और जो भी देश ऐसा करने की कोशिश करेगा, उसे अमेरिका से व्यापारिक रिश्ते तोड़ लेना चाहिए।
बता दें कि ब्रिक्स की स्थापना मूलतः 2006 में जी-8 आउटरीच शिखर सम्मेलन के दौरान रूस, भारत, चीन और ब्राजील के नेताओं की आपसी बैठक में हुई थी। इस समूह ने 2009 में रूस में आयोजित पहले ब्रिक शिखर सम्मेलन के साथ अपने सहयोग को औपचारिक रूप दिया। 2010 में दक्षिण अफ्रीका भी इसमें शामिल हुआ, जिससे समूह का विस्तार ब्रिक्स तक हो गया। इसके बाद 2024 में इसमें 4 देश मिस्र, इथियोपिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात और जुड़ गए। वहीं, 2025 में इसमें इंडोनेशिया भी जुड़ गया। वह जनवरी 2025 में ब्रिक्स का पूर्ण सदस्य बना। इसके अलावा बेलारूस, बोलीविया, कजाकिस्तान, क्यूबा, मलेशिया, नाइजीरिया, थाईलैंड, युगांडा और उज्बेकिस्तान को भागीदार देशों के रूप में शामिल किया गया है। इसके अपने वैश्विक मायने हैं।
हाल ही में संपन्न 17वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाग लिया। जबकि चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग नदारत रहे। यह सम्मेलन 6-7 जुलाई को ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में आयोजित हुआ। स्पष्ट है कि भारत की भागीदारी वाले ब्रिक्स समूह में शामिल होने की सोच रहे देशों को ट्रंप ने जिस तरह से धमकाया है, उसके खिलाफ भारत यदि अड़ गया तो अमेरिका की परेशानी बढ़ सकती है। वहीं,ब्रिक्स देशों की त्रासदी है कि इसमें मुस्लिम देशों की तादात ज्यादा है। इसके देश भारत-चीन एक दूसरे के प्रबल प्रतिद्वंद्वी है। भारत का हिन्दू राष्ट्रवाद भी इनके लिए बाधक हो सकता है। इसलिए ये आपसी मनमुटाव मिटाएं और दुनिया पर छा जाएं। इससे एशिया-अफ्रीका-दक्षिण अमेरिका में आशातीत विकास होगा। अमेरिका की मजबूरी है कि हथियारों, ड्रग्स और उद्योग सिंडिकेट के बिना वह जिंदा नहीं रह सकता। ये तीनों बातें जनविरोधी हैं। इसलिए शांति व सुव्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद में बदलाव करना होगा। भारत को स्थायी सदस्यता देनी होगी। अन्यथा आगे की राह कंटकाकीर्ण होगी, यह तय है।
कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक