साक्षात्कारः रामायण का संपूर्ण दोहाकरण करने वाले बेबाक जौनपुरी से खास बातचीत

By डॉ. रमेश ठाकुर | Aug 10, 2020

वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का दोहा करण करने वाले राष्ट्रकवि बेबाक जौनपुरी बदलते साहित्य जगत से खासे चिंतित हैं। उनका मानना है कि साहित्य वह साधना है जिसे तपस्या से हासिल किया जाता है। लेकिन, दौर ऐसा है कि एक स्वयंभू साहित्यकार सत्ता का सहारा लेकर खुद को बड़ा साहित्यकार घोषित करवा लेता है। उससे वह साहित्यकार गुमनामी के अंधेरे में चले जाते हैं जो वास्तव में साहित्य साधना के सच्चे रखवाले होते हैं। दिल्ली सरकार में बड़े ओहदे पर आसीन राष्ट्रकवि अनित्य नारायण मिश्र, बेबाक जौनपुरी के ही नाम से प्रसिद्ध हैं, उनके द्वारा वाल्मीकी रामायण को दोहों में प्रवर्तित करने और उनकी साहित्य यात्रा पर डॉ. रमेश ठाकुर ने विस्तृत बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंश-


प्रश्न- भगवान वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण का आपने दोहावलीकरण किया है?

उत्तर- जी हाँ। समूची रामायण को दोहों में प्रवर्तित करने से पहले मैंने कई वर्षों तक रिसर्च की। रामायण के हर खंड काल को समझा, फिर उन्हें दोहों में पिरोया। मेरी पुस्तक 'अथश्री महाआनंद रामायण' जो रामकथा दोहावली का नया संस्करण है, अभी राम मंदिर शिलान्यास के शुभ दिन पर ही पूर्ण हुई है। लगभग ग्यारह वर्षों की तपस्या के फलस्वरूप यह पुस्तक पूर्ण हुई। पुस्तक में संपूर्ण रामचरित को लगभग दो हजार दोहों में सवैया, आल्हा छंदों के साथ लिखा है। मुझे इस बात का गर्व है कि दोहों में रामायण कहने वाला विश्व का पहला कवि होने का गौरव मुझे प्राप्त हुआ।

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प्रश्न- साहित्य के बदलते रूप को कैसे देखते हैं आप?

उत्तर- साहित्य की आत्मा साहित्कारों के लिखे शब्दों के नव रसों में होती है जिसमें कोई चाहकर भी बदलाव नहीं कर सकता। वैसे, बदलाव होना प्राकृतिक भी है और स्वाभाविक भी। बदलाव होना भी चाहिए। पर, ये बदलाव मात्र भौतिक है, जो अन्य क्षेत्रों की तरह साहित्य में भी आया। साहित्य में भी अब ग्लैमर और चकाचौंध है। साहित्य की अन्य विधाओं का मौलिक स्वरूप आज भी वही है, जो पहले था। मुकम्मल साहित्य का सर्जन आज भी परिस्थितियों को ध्यान में रचा जाता है। उदाहरणार्थ मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में आपको मोबाइल, लैपटॉप, मेट्रो का जिक्र नहीं मिलेगा...लेकिन आज की कहानियों, कथाओं और उपन्यासों में इन सबकी चचाएं होती हैं।


प्रश्न- अपनी साहित्य यात्रा के संबंध में कुछ बताएं?

उत्तर- मेरी काव्य यात्रा ने देश-विदेश को नापा है। वह कश्मीर हो या चीन की सीमा से सटा उत्तराखंड का अंतिम गांव माणा, अथवा दिल्ली से उड़ीसा, बंगाल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तो घर की है। राजस्थान, हरियाणा समेत देश के विभिन्न हिस्सों में नगर गांव के दर्शन साहित्यिक यात्राओं से ही संभव हुआ। मेरे काव्य पाठ को हर वर्ग के दर्शक पसंद करते हैं यहीं मेरी अपनी पूँजी है और

सम्मान भी।


प्रश्न- साहित्य और सियासत में बढ़ते गठजोड़ को कैसे देखते हैं आप?

उत्तर- एक दोहा याद आता है कि ''कवि कविता को खा गये, नेता खाते देश, बाबा लीलें धरम को, प्रतिभा चली विदेश। वैसे, आपका ये सवाल बड़ा प्रासंगिक है। हाल के वर्षों में सत्ता और साहित्य का आपस में गठजोड़ कुछ ज्यादा ही देखने को मिला है। नये-नवेले साहित्यकार बहुत जल्दी फेमस होना चाहते हैं, इसलिए सियासी लोगों की जी−हुजूरी करके खुद को प्रसिद्ध कराते हैं। सरकारी सम्मानों में भी ये लोग सेंधमारी करते हैं। कई ऐसे अपात्र और स्वयंभू साहित्यकार हैं जिन्होंने सियासी चाटुकारिता करके पद्मश्री जैसे सम्मान पर कब्जा किया है। एक मुकम्मल साहित्यकार जीवन भर कलम घिसाई करता है और गुमनामी में जीता है, पर अपनी कलम का सौदा नहीं करता। आज कुछ ऐसा चलन हो गया है बिना सत्ता के गलियारों में चक्कर काटने से सम्मान नहीं मिलता।


प्रश्न- सत्ता के गलियारों में चक्कर काटना एक साहित्यकार के लिए क्यों जरूरी हो गया है?

उत्तर- बिल्कुल नहीं, खाटी का साहित्यकार कतई ऐसा नहीं करेगा। साहित्यिक क्षेत्र में पदार्पण करने वाले अधिकतर नवोदित कलमकार मार्केटिंग के महत्व को जानते हैं। उन्हें हमारी पीढ़ी के बहुधा कलम धनी साहित्यकरों एवं कवियों का हश्र ज्ञात है। जो कलमकार सत्ता के साथ चला, वह सरकारी सम्मान ले उड़ता है। जो साधना में रमा रहता है उसके हिस्से सिर्फ गुमनामी का अंधेरा आता है। हमारे समय में काव्य गोष्ठी में लगातार जाने के बाद ही कभी कभार काव्य पाठ करने का सौभाग्यशाली अवसर मिलता था। वह भी उपस्थित वरिष्ठ कवियों की डांट के साथ, कभी प्रशंस मिल जाए तो समझिये ऑस्कर मिलने जैसा होता था।


प्रश्न-....तो क्या साहित्य भी जुगाड़ का जरिया हो गया है?

उत्तर- ''साधन से की साधना, साध सके ना साध, साध सधे से साधना, साधन से मत साध''। नवोदित कवि−कवित्रियाँ एकाध कविताओं के बल पर टीवी पर छा जाने को बेताब रहते हैं। बड़े-बड़े मंचों पर जाने को उत्साहित रहते हैं। टीवी कार्यक्रमों ने उनके दिमाग और खराब कर दिए हैं। चेहरा एक बार टीवी पर दिख जाने से ही खुद को तोप समझने लगते हैं। गुब्बार की तरह फूल जाते हैं। वरिष्ठों को भी घास कूड़ा समझने लगते हैं। काव्य एक ऐसी साधना है जो वर्षों तपने के बाद हासिल होती है। लेकिन नवेले कवियों को इससे कोई लेना देना नहीं? उनके लिए सब कुछ दो मिनटों में तैयार.. इसलिए वह जुगाड़ का रास्ता खोजते-खोजते प्रभावशाली लोगों की गोद में जा बैठते हैं।

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प्रश्न- आपके काव्य में खाटी का गवंईपन झलकता है, औरों में ये सब नहीं?

उत्तर- देखिए, मैं किसी पर टीका-टिप्पणी नहीं करना चाहता। हां, मैं ग्रामीण और देशी भारतीय सभ्यता से सीधा संबंध रखने वाला व्यक्ति हूं। मुझे भारतीय परंपराओं में पूर्ण आस्था और विश्वास है, मेरी जो रचना धर्मिता है उसमें प्रयास यही रहता है कि उसमें अपनेपन का एहसास हो। मुझे अपने गांव और जन्मांत माटी से अत्यधिक लगाव है। इसलिए नाम में जौनपुरी (जौनपुर) जुड़ा है।


प्रश्न- कॉपी−पेस्ट और स्वयंभू साहित्कारों से साहित्य को किस तरह से नुकसान हो रहा है?

उत्तर- लोगों पर साहित्यकार कहलाने का भूत सवार है, कारण समाज में स्वयं को बुद्धिजीवियों की कतार में दिखा कर अतिरिक्त सम्मान पाना। मैं कई लोगों को जानता हूँ, जो सरकारी प्रतिष्ठान में उच्च पद पर आसीन हैं, कुछ भी लिख कर पुस्तक प्रकाशित करवाते हैं और लेखक होने का छदम गौरव पाना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर कॉपी-पेस्टनुमा कवियों की भरमार है, रचना किसी के नाम की होती है, उस पर अपना नाम लिखकर झूठी वाहवाही बटोरते हैं। मैंने खुद अपनी कई कविताएं दूसरों की वॉल पर लिखी देखी हैं। उनका बस चले तो रामायण, रामचरित मानस भगवत् गीता को भी अपने नाम से प्रकाशित करवा दें। मैं ऐसे चोट्टे कवियों पर लानत भेजता हूं।


-बदलते साहित्य जगत और रामायण का दोहाकरण करने पर वरिष्ठ साहित्कार बेबाक जौनपुरी से डॉ. रमेश ठाकुर की विस्तृत बातचीत।

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