उमाशंकर मिश्र। (इंडिया साइंस वायर)। बढ़ती आबादी एवं शहरीकरण के कारण घरों से निकले गंदे पानी का निपटारा, जैव ईंधन के लिए वनों की कटाई और सिंचाई के पानी की कमी जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। भारतीय शोधकर्ताओं ने अब इन तीनों समस्याओं से निपटने के लिए एक तरीका खोज निकाला है, जो पर्यावरण के लिहाज से मुफीद होने के साथ आर्थिक रूप से भी फायदेमंद साबित हो सकता है।
उत्तराखंड के पंतनगर में स्थित जी.बी. पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, नोएडा के गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय और देहरादून स्थित भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक कृषि वानिकी में सिंचाई के लिए घरेलू दूषित जल के उपयोग से कम अवधि में तैयार होने वाली प्रजातियों के वृक्ष लगाने से एक साथ कई फायदे हो सकते हैं। इस पहल से एक ओर गंदे पानी के निपटारे में मदद मिल सकेगी, वहीं कृषि वानिकी में सिंचाई के लिए पानी की कमी और जैव ईंधन की कमी को भी दूर किया जा सकेगा।
घरेलू गंदे पानी या ग्रे-वाटर से अभिप्राय मलमूत्र रहित दूषित जल से है, जो आमतौर पर घरों अथवा कार्यालय की साफ-सफाई, बाथरूम, किचन, सिंक, शॉवर्स और कपड़ों की धुलाई से निकलता है। वैज्ञानिकों के अनुसार अपशिष्ट जल की अपेक्षा घरेलू दूषित जल में रोगजनक कम होते हैं। इस जल को उपचारित करना ज्यादा आसान होता है और टॉयलेट फ्लशिंग, फसलों की सिंचाई जैसे कामों में यह उपयोगी साबित हो सकता है।
इस अध्ययन के दौरान यूकेलिप्टस (यूकेलिप्टस हाइब्रिड), पॉपलर (पॉपलस डेल्टोइड्स), नम्रा (व्हाइट विलो) और बकाइन (चाइनाबेरी ट्री) के वृक्ष एक प्लाट में नियंत्रित रूप से लगाए गए। इन वृक्षों की सिंचाई के लिए घरेलू दूषित जल उपयोग किया गया और उसकी तुलना समान्य रूप से विकसित हुए पेड़ों से की गई। करंट साइंस जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक घरेलू दूषित जल से सिंचित प्लाटों में लगाए गए पेड़ों का जैव द्रवयमान (बायोमास) और उसकी आर्थिक उपयोगिता सामान्य से अधिक पाई गई। इसके आर्थिक मूल्यांकन से शोधकर्ताओं ने पाया कि ताजा पानी से सींचे गए प्लाट की अपेक्षा घरेलू दूषित जल से सिंचित प्लाट में रोपे गए वृक्षों से ज्यादा लाभ हो सकता है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में आशा पांडेय, आर.के. श्रीवास्तव और राजेश कौशल शामिल थे। इन शोधकर्ताओं के मुताबिक सिंचाई के लिए घरेलू दूषित जल का उपयोग करने से यूकेलिप्टस में 143 प्रतिशत, पॉपलर में 54 प्रतिशत, नम्रा में 274 प्रतिशत और बकाइन के वृक्षों से 321 प्रतिशत अधिक बायोमास प्राप्त हुआ। ये वृक्ष तेजी से बढ़ते हैं और कम समय में विकसित हो जाते हैं। इनका उपयोग इमारती लकड़ी प्राप्त करने के लिए भी होता है। इस लिहाज से इन वृक्षों का आर्थिक महत्व काफी अधिक है।
यह अध्ययन जी.बी. पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में ऊसर भूमि में नियंत्रित रूप से किया गया, जहां कुछ हद तक अम्लीय एवं बलुई चिकनी मिट्टी थी। नवंबर, 2008 में शुरू हुए इस अध्ययन में विश्वविद्यालय की रिहायशी कॉलोनियों से निकले घरेलू दूषित जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया गया, जहां पर करीब 5000 लोगों की आबादी रहती है। शोधकर्ताओं के अनुसार वृक्षों की ये प्रजातियां स्थानीय जलवायु के मुताबिक बहुत तेजी से ढल गई थीं।
अध्ययन में शामिल इन चारों प्रजातियों के वृक्षों के बायोमास, ऊष्मीय मान और नाइट्रोजन की मात्रा के बीच सह-संबंध ज्ञात करने के लिए संख्यात्मक पद्धति का उपयोग किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार इन वृक्षों की लकड़ी के नमूनों में नाइट्रोजन का स्तर अधिक पाया गया और ऊष्मीय मान भी अधिक था। पांच साल की अवधि के लिए प्रति हेक्टेयर जमीन पर रोपे गए 2500 पौधे की दर से आर्थिक आकलन किया गया। पांच से सात साल तक चलने वाले इस परीक्षण में पेड़ों के शुरुआती नमूने दो साल के बाद लिए गए थे।
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं के मुताबिक घरेलू गंदे पानी के उपयोग से जैव ईंधन के उत्पादन का यह मॉडल आर्थिक एवं पर्यावरण के लिहाज से काफी उपयोगी साबित हो सकता है। सामान्यत: इन वृक्षों का औसत बाजार मूल्य 2500 रुपये होता है। लेकिन घरेलू दूषित जल से सींचे गए वृक्षों का जैव द्रव्यमान अधिक होने के कारण इनका औसत मूल्य करीब 3000 रुपये तक था। अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक इस अध्ययन के लिए साइट तैयार करने, वृक्षों की रोपाई और रखरखाव में 8.5 लाख से 9 लाख रुपये खर्च हुए। दोनों प्लाटों की तैयारी, रोपाई और रखरखाव में लागत बराबर थी, पर दूषित जल से सींचे गए वृक्षों का बायोमास अधिक होने के कारण उनकी कीमत अधिक प्राप्त हुई। अध्ययनकर्ताओं ने ताजे पानी से सींचे गए प्लाट से पांच साल में करीब 54 लाख रुपये और घरेलू दूषित जल से सींचे गए प्लाट से 68 लाख रुपये लाभ मिलने का अनुमान लगाया है, जो सामान्य से 14 लाख रुपये अधिक है।
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक फिलहाल ये शुरुआती नतीजे हैं और इस पर अभी अधिक अध्ययन करने की जरूरत है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस तरह की परियोजनाओं से भारत ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बन सकता है और ऐसी पहल जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी मददगार हो सकती है। (इंडिया साइंस वायर)